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 काशी विद्वत परिषद द्वारा जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज को प्रदत्त उपाधियाँ - दूसरी, 'वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य' की व्याख्या
जगदगुरुत्तम-दिवस (14 जनवरी) विशेष श्रृंखला - भाग (2)

काशी विद्वत परिषद द्वारा जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज को 14 जनवरी 1957 को प्रदान किये गये 'पंचम मूल जगदगुरुत्तम' तथा अन्य उपाधियों की व्याख्या, भाग - 2

00 'वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य'

जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज वेदमार्गप्रतिष्ठापनाचार्य हैं। इन्होंने जो वेदमार्ग प्रतिष्ठापित किया है, वह सार्वभौमिक है। वैदिक सिद्धान्तों के सार को प्रकट करते हुये जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज भगवत्प्राप्ति के सर्वसुगम सर्वसाध्य मार्ग को प्रशस्त करते हैं। इन्होंने वेदों, शास्त्रों, पुराणों एवं अन्यान्य धर्मग्रन्थों में जो मतभेद सा है, उसका पूर्णरूपेण निराकरण करके बहुत ही सरल मार्ग की प्रतिष्ठापना की है, जो कलियुग में सभी जीवों के लिये ग्राह्य है।

जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के अनुसार यद्यपि ईश्वरप्राप्ति के अन्य मार्ग भी हैं तथापि भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ व सर्वसुलभ मार्ग है। आपके अनुसार कलियुग में एकमात्र नाम-संकीर्तन की ही साधना निर्धारित की गई है। यदि यह भी मान लें कि कलियुग में अन्य साधनों से भगवत्प्राप्ति हो सकती है,तब भी विचारणीय हो जाता है कि इतने अमूल्य, सरस एवं शीघ्र फल प्रदान करने वाली संकीर्तन साधना को छोड़कर क्लिष्ट अन्य साधनाओं में प्रवृत्त होने में बुद्धिमत्ता ही क्या है। 

आपके मतानुसार तो स्वसुखवासना गन्धलेशशून्य श्रीकृष्ण सुखैक तात्पर्यमयी सेवा ही जीव का लक्ष्य है अर्थात अपने सेव्य के सुख के लिये ही उनकी नित्य निष्काम सेवा प्राप्त करना ही जीवमात्र का परम लक्ष्य है। जो रसिक महापुरुष की अनन्य शरणागति पर उनकी अहैतुकी अकारण करुणा से ही प्राप्त होगा। 

00 जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा दिया 'श्रुति-सारांश'

"...ब्रम्ह, जीव एवं माया तीनों ही सनातन हैं। एवं जीव तो ब्रम्ह की परा शक्ति है, चेतन है। माया तो ब्रम्ह की अपरा शक्ति है, जड़ है। दोनों शक्तियों का शासक ब्रम्ह है।

ब्रम्ह की चेतन शक्ति होने के कारण, जीव को ब्रम्ह का अंश कहा गया है। ब्रम्ह एवं आनंद पर्यायवाची हैं, अत: जीवशक्ति, आनंद का अंश हुआ। इसी से प्रत्येक आनंदांश जीव अपने अंशी आनंद श्रीकृष्ण को ही स्वभावत: चाहता है। साथ ही अनादिकाल से प्रतिक्षण आनंदप्राप्ति के हेतु ही प्रयत्नशील है। किंतु उपाय से अनभिज्ञ है।

आनंदकंद श्रीकृष्णचंद्र की प्राप्ति से ही वह दिव्यानंद प्राप्त होगा। वह श्रीकृष्ण प्राप्ति केवल भक्ति से ही होगी। भक्ति निष्काम होनी चाहिये तथा उसमें अनन्यता भी होनी चाहिये।

तदर्थ श्रीगुरु एवं राधाकृष्ण का रूपध्यान करते हुये रोकर उनका नाम गुणादि संकीर्तन करना चाहिये। इससे अन्त:करण शुद्ध होगा। तब स्वरूप शक्ति से अन्त:करण दिव्य बनेगा। तब गुरु द्वारा दिव्य प्रेम दान होगा। तब माया निवृत्ति एवं दिव्यानंद प्राप्ति होगी। (भवदीय, जगदगुरु: कृपालु:)..."

कलियुग के हम पामर जीव इन दिव्य वचनों से निश्चय ही आत्मकल्याण का अति सुगम मार्ग प्राप्त कर सकते हैं, जिस पर श्रद्धापूर्वक आरूढ़ होकर चलने से हम भी भगवान के दिव्य प्रेमराज्य में प्रवेश कर सकेंगे तथा अनादिकाल के दु:ख-क्लेश आदि से निवृत्ति प्राप्त करेंगे।

00 सन्दर्भ ::: 'भगवत्तत्व' पत्रिका
00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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