प्रेमतत्व के विषय में जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा संक्षिप्त प्रवचन अंश, जानें प्रेम का वास्तविक स्वरूप कैसा होता है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 200
(प्रेम के अर्थ और स्वरूप की व्याख्या आचार्य श्री की वाणी में यहाँ से पढ़ें....)
प्रेम... प्रेम शब्द का अर्थ होता है;
सर्वथा ध्वंसरहितम् सत्यपि ध्वंस कारणे।
यद्भवावबन्धनं यूनोः सः प्रेमा परिकीर्तितः॥
(भक्तिरसामृतसिन्धु)
ये परिभाषा भक्तिरसामृतसिन्धु में महारासिकों ने की है कि प्रेम के नष्ट होने का कारण हो फिर भी प्रेम नष्ट न हो, उसको प्रेम कहते हैं। हमारे संसार में जितना प्रेम है ये स्वार्थ पर डिपेंड करता है। हमारे स्वार्थ की सिद्धि जितनी लिमिट में, जहाँ होने की आशा होती है उतनी लिमिट में वहाँ मन का प्यार हो जाता है। नैचुरल।
अगर हमें आशा है सेंट परसेंट स्वार्थ सिद्ध होगा तो सेंट परसेंट प्रेम ले लो और अगर दूसरे दिन फिफ्टी परसेंट आशा रह गई, तो प्रेम घट के फिफ्टी परसेंट हो गया। तीसरे दिन अगर ऐसा आभास हुआ कि यहाँ कुछ स्वार्थ सिद्ध नहीं होगा तो प्रेम जीरो पर आ गया। ये माँ, बाप, बेटा, स्त्री, पति सबका प्यार इसी प्रकार अप-डाउन, अप-डाउन दिन भर होता रहता है।
तो संसार में प्रेम नहीं हो सकता। क्योंकि वो स्वार्थ पर आधारित है और स्वार्थ तो परिवर्तनशील होता है। तो प्रेम की परिभाषा है कि प्रेम नष्ट होने का कारण हो और फिर भी प्रेम नष्ट न हो।
गौरांग महाप्रभु ने प्रेम की परिभाषा बताई, प्रैक्टिकल। उन्होंने कहा, हे श्रीकृष्ण!
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मामदर्शनान्मर्महतां करोतु वा।
यथा तथा व विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥
हे श्रीकृष्ण! तुम तीन काम कर सकते हो; या तो मेरा आलिंगन कर के प्यार कर लो, या तो चक्र चला के मार दो और या न्यूट्रल हो जाओ, उदासीन हो जाओ। तुम कौन हो, हम पहचानते नहीं - ऐसे बन जाओ। हम तीनों में चैलेंज कर रहे हैं तुमको। इन तीनों में जिस अवस्था में सुख मिले वो करो। हमारे प्रेम में इन तीनों अवस्थाओं में कोई परिवर्तन नहीं होगा। वो बढ़ता जाएगा।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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