यदि दोष देखने भी हों तो साधक अपने दोष देखे, जानिये दूसरों के दोष देखना क्यों साधक के लिये पतनकारी है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 201
(साधक अपनी साधना की उन्नति के लिये जो प्रयत्न करता है, उसे कुसंग की अग्नि भस्म कर देती है. समस्त कुसंगों में परदोष-दर्शन भयानक है, क्यों और साधक क्या करे, जानिये जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के श्रीवचनों से...)
परदोष-दर्शन भी घोर कुसंग है, क्योंकि परदोष-दर्शन से दो हानि है। एक तो यह कि परदोष-दर्शनकाल ही में स्वाभाविक-रूप से स्वाभिमान-वृद्धि होती है, जो कि साधक के लिये तत्क्षण ही पतन का कारण बन जाती है। दूसरे यह कि परदोष-चिन्तन करते हुये शनैःशनैः बुद्धि भी दोषमय हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप उन्हीं सदोष विषयों में ही प्रवृत्ति होने लगती है, अतएव सदोष कार्य होने लगता है।
फिर जब संसारमात्र ही सदोष है, तो हम कहाँ तक दोषचिन्तन करेंगे? आश्चर्य तो यह है कि मूर्ख, मूर्ख को, मूर्ख क्यों कहता है? वह भी तो स्वयं मूर्ख है। यदि यह कहो कि क्या करें, दोष-दर्शन का स्वभाव सा बन गया है, तो हमें कोई आपत्ति नहीं, तुम दोष देख सकते हो, किन्तु दूसरों के नहीं, अपने ही दोष क्या कम हैं? अपने दोषों को देखने में तुम्हारा स्वभाव भी न नष्ट होगा, तथा साथ लाभ भी होगा, वह महान् लाभ तुलसी के शब्दों में;
जाने ते छीजहिं कछु पापी..
अर्थात् अपने दोष जान लेने पर कुछ न कुछ बचाव हो जाता है, क्योंकि फिर वह जीव उससे बचने का कुछ न कुछ अवश्य प्रयत्न करता है। मेरी राय में तो परदोष-चिन्तन करना ही स्वयं के सदोष होने का पक्का प्रमाण है, अन्यथा भला उसको इन बातों से क्या अभिप्राय है?
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
Leave A Comment