संसार में सुख मानने से उसकी ओर आकर्षित होने का जो स्वभाव है, उसे भगवान की ओर मोड़ना होगा!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 211
(संसार के स्वरुप पर विचार करते हुये इससे मन को हटाकर भगवान की ओर लगाने के अभ्यास के संबंध में जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा संक्षिप्त प्रवचन...)
हमको जो सुख मिलता है, वो आत्मा का सुख नहीं है, मन का है और लिमिटेड है और वो नश्वर है। तमाम गड़बड़ियाँ हैं उसमें। जो भी सुख हमको मिलता है संसार में वो सदा नहीं रहती। ये तो अनुभव करता है आदमी। भूख लगी है रसगुल्ला खाया सुख मिला। उसमें भी पहले रसगुल्ले में ज्यादा सुख मिला, दूसरे में उससे कम, तीसरे में उससे कम, चौथे में ख़तम। जिस वस्तु से सुख मिलता है उससे भी हमेशा एक सा नहीं मिलता। धीरे-धीरे घटता जाता है और फिर उसी से दुःख मिलने लगता है। ये भी होता है। स्वार्थ हानि हुई कि दुःख। उसी बीबी से प्यार है और उसी बीबी की शकल देखने से नफरत है। उसी बेटे से प्यार है और उसी से झगड़ा हो गया या कोई अपमान कर दिया बाप का तो उससे बातचीत करना बन्द। तो संसार का सुख तो अगर थोड़ा है और सदा रहे तो भी कोई बात है। वो तो आया गया, धूप-छाँव की तरह।
तो ये सब बातें हमेशा बुद्धि में बैठी रहें। कभी बैठती हैं कभी गायब हो जाती हैं, फिर संसार में बह जाता है वो। लापरवाही से। 'तत्त्वविस्मरणात् भेकीवत्।' भूल गया। तो फिर क्या होगा?
तो हम तत्त्व को भूल जाते हैं। जिस समय गुरु का उपदेश होता रहता है तो समझ में सब बात आती है पढ़े लिखे आदमी को। वो मानता है, एडमिट करता है, सब सही है और फिर संसार के एटमोस्फियर में गया और भूल गया। तो उसमें सावधान रहना चाहिए और बार-बार मन को पकड़ करके बुद्धि के द्वारा हरि गुरु के चरणों में लगाते रहना चाहिए। तो अभ्यास करने से पक्का हो जाएगा।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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