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पढ़िये जीवन और अध्यात्म से जुड़े संत कबीरदास जी के ये दोहे

 संत श्री कबीरदास जी के दोहे

(समझने के लिये भावार्थ दिये गये हैं..)
 
मनुष जन्म दुर्लभ अहै, होय न बारम्बार।
तरुवर से पत्ता झरैं, बहुरि न लागै डार।।1।।
भावार्थ - यह मनुष्य जन्म तो अति ही दुर्लभ है और बार-बार नहीं मिला करता। जैसे पेड़ पर लगे हुये पत्ते जब झड़ जाते हैं तो उन्हें पुनः डाल पर नहीं लगाया जा सकता है ऐसे ही मनुष्य जन्म एक बार छिन जाय तो बड़ी हानि हो सकती है अर्थात अपने परमार्थ का अवसर हाथ से चला जायेगा।
 
आवत गारी एक है, उलटत होय अनेक।
कह कबीर नहिं उलटिये, वही एक की एक।।2।।
भावार्थ - जब कोई व्यक्ति किसी को गाली देता है और वह सामने वाला व्यक्ति भी गाली सुनकर आवेश में उसे गाली देने लगे तो इस प्रकार एक गाली अनेक गालियों में बदल जाती है। यदि गाली सुनकर सामने वाला व्यक्ति उसे सहन करके शान्त रहे तो फिर सामने वाले का भी क्रोध कुछ देर में शान्त हो जायेगा।
 
माखी गुड़ में गड़ी रहै, पंख रह्यो लिपटाय।
हाथ मलै और सिर धुने, लालच बुरी बलाय।।3।।
भावार्थ - गुड़ के लालच में मक्खी का हाल इस प्रकार हो जाता है कि गुड़ में उसके दोनों पंख चिपक जाते हैं और वह बहुत कोशिश करने पर भी उससे छूट नहीं पाती है। तब उसके पास अपने हाथ मलने और सिर धुनने अर्थात पछताने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। लालच कदापि नहीं करना चाहिये, इससे सदा हानि ही होती है।
 
धीरे धीरे रे मना, धीरे से सब होय।
माली सींचै सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय।।4।।
भावार्थ - मनुष्य को कभी भी हड़बड़ी नहीं करनी चाहिये। सदैव धैर्य धारण करना चाहिये। सब कार्य अपने समय पर ही होते हैं, अतः धीरजता से किसी भी कार्य को करना चाहिये। जिस प्रकार माली यदि जल्दी फल प्राप्त करने की आशा में पेड़ों में एक साथ सौ-सौ घड़े पानी डाला करे तो भी फल अनुकूल ऋतु आने पर ही लगेंगे।
 
कबीर ते नर अंध हैं, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर।।5।।
भावार्थ - वे मनुष्य विवेकहीन हैं जो गुरु को कोई दूसरा तत्व बतलाते हैं अर्थात हरि और गुरु में भेद मानते हैं। वस्तुतः दोनों एक हैं। इनमें भी गुरु का महत्व ऊँचा है। भगवान यदि रूठ जायँ तो गुरु के द्वार पर क्षमा मिल सकती है परन्तु गुरु यदि रूठ जायँ तो भगवान भी जीव को क्षमा नहीं कर सकते हैं।
 
०० साभार - 'कल्याण' सन्तवाणी अंक
(प्रस्तुति - अतुल कुमार 'श्रीधर')

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