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 क्या श्रेष्ठ कहा गया, संसार में समस्त कर्म करते हुये भक्ति करना श्रेष्ठ है अथवा समस्त कर्मों से संन्यास लेकर भक्ति करना?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 224

साधक का प्रश्न ::: कर्मयोग की साधना और कर्मसंन्यास की साधना इन दोनों में उत्तम कौन सी है ?

जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर ::: उत्तम तो कर्मयोग बताया है;

संन्यास: कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।
(गीता 5-2)

दोनों कल्याणकृत हैं। किंतु इन दोनों में कर्मयोग विशेष अच्छा है, इसलिए कि अगर कर्मयोग कोई महापुरुष करेगा तो उसकी नकल करने वाले भक्ति की नकल तो कर नहीं सकेगें, तो कम से कम कर्म की नकल करेंगे तो विकर्मी नहीं बनेंगे। और यदि कर्मसंन्यास का महापुरुष है, तो उसकी नकल करेंगे तो कर्म को छोड़ देंगे और भक्ति को बड़ा मुश्किल है करना, वह करेंगे नहीं। इसलिए अर्जुन को कहा; तू कर्मयोगी बन, क्योंकि कर्म की नकल तो लोग करेंगे कम से कम विकर्मी तो नहीं बनेंगे। बाकी फल में कोई अंतर नहीं है। साधना में बड़ा अंतर है। कर्मयोगी की साधना बड़ी कठिन है क्योंकि संसार का संपर्क होता है। संसारी एटमॉस्फीयर (वातावरण) में रहना पड़ता है, उसका असर पड़ता है तो साधना की गति तेज नहीं हो पाती। अगर पहले साधना कर ले, कर्मसंन्यास करके और पक्का हो जाए फिर कर्मयोग करे, जैसे ध्रुव, प्रहलाद वगैरह ने करोड़ों वर्ष राज्य किया। तो फिर संसार उनके ऊपर हावी नहीं हो सकता। पहले दूध को जमा ले, दही बना दे, एकान्त में - ये कर्म संन्यास। फिर उसको मथ के मक्खन निकाल ले, फिर उसको पानी में छोड़ दे। कोई डर नहीं, वो तैरता रहेगा मक्खन। ऐसे ही, विशेष साधना द्वारा, कुछ भगवद् विषय प्राप्त कर ले, फिर कर्म करे तो कर्म में आसक्ति नहीं होगी।

तो साधना की दृष्टि से तो कर्मसंन्यास श्रेष्ठ है लेकिन लोक-कल्याण की दृष्टि से कर्मयोग श्रेष्ठ है।

०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी *महाराज साहित्य
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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