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  भक्ति के 64 अंगों में से प्रधान अंग कौन-कौन से हैं, जिनका पालन किसी भी आध्यात्मिक पथिक के लिये अनिवार्य है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 225

(भक्तिमार्ग यद्यपि अति सरल है तथापि इसमें कुछ पड़ाव अथवा शर्तें हैं, जिनका पालन करने से ही साधक की भक्ति सुदृढ़ रह सकती है अन्यथा अनेक प्रकार की अड़चनें भक्तिपथ में रुकावट डाल सकती है. जानते हैं जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज इस संबंध में क्या निर्देश कर रहे हैं....)

अब हम तुम्हें भक्ति के चौंसठ अंगों में से कुछ प्रमुख अंगों को कतिपय उदाहरणों द्वारा समझाते हैं।

सद्गुरु शरणागति - सर्वप्रथम श्रद्धा-युक्त होकर जिज्ञासु शिष्य को गुरु की शरणागति ग्रहण करनी चाहिये, किन्तु गुरु ऐसा होना चाहिये, जो शिष्य को भगवत्तत्त्व का बोध भी करा सके, एवं स्वयं अनुभूत भी हो। 

विश्वास-पूर्वक गुरु की सेवा - भगवान् कहते हैं कि अपने गुरु को मेरा ही रूप समझो। कभी भी, भूल कर भी, अपमान न करो, न तो मनुष्य की बुद्धि से ही गुरु को नापो, क्योंकि गुरु मनुष्य नहीं है, उसके हृदय में तो भगवान् स्वयं निवास करते हैं, अतएव गुरु सर्वदेवमय होता है।

श्रीकृष्ण-विमुख-संग-त्याग - धधकती हुई आग की ज्वाला-युक्त पिंजड़े में जलना ठीक है, किन्तु भगवद्विमुख के संग, महान् से महान् इन्द्रादि लोकों में रहना ठीक नहीं, तथा भयंकर सांपों, सिंहों, एवं जोंकों से लिपट जाना अच्छा है, किन्तु अनंतानंत देवताओं से भी सेवित भगवद्विमुखों का संग करना ठीक नहीं है। 

बहु-शिष्यादि करने का निषेध - अधिकारी, अनधिकारी का विचार न करते हुये साम्प्रदायिकता में आकर अनेकानेक शिष्य न करना चाहिये । वस्तुतस्तु भगवत्प्राप्ति के पूर्व, शिष्य समुदाय जोड़ना, अपने आप को पतन के गर्त में डालना है।

सांसारिक सुखों या दुखों के आने पर भी साधना न छोड़ना - खान, पान, कपड़े आदि सांसारिक व्यावहारिक वस्तुओं के पाने एवं न पाने दोनों ही अवस्थाओं में असावधान या खिन्न न होते हुये निरन्तर भगवान् का ही स्मरण करना चाहिये।

ब्रह्मादिकों का अपमान न करना - श्रीकृष्ण, समस्त देवताओं के ईश्वर के भी ईश्वर हैं। ऐसा समझ कर उपासना तो एकमात्र उन्हीं की करनी चाहिये, किन्तु साथ ही ब्रह्मा, शंकर आदि का अपमान भी न करना चाहिये। अन्यथा नामापराध-रूप अमिट पाप हो जायगा।

हरि एवं हरिजन की निंदा न सुनना - भगवान् एवं उनके भक्तों की निंदा कभी भूल कर भी न सुननी चाहिये, अन्यथा साधक का पतन हो जायगा, तथा उसकी सत्प्रवृत्तियाँ भी नष्ट हो जायँगी। प्रायः अल्पज्ञ-साधक किसी महापुरुष की निंदा सुनने में बड़ा ही शौक रखता है, वह यह नहीं सोचता कि निंदा करने वाला स्वयं निंदनीय है, या महापुरुष है। संत-निंदा सुनना नामापराध है। स्मरण रहे, कि हज़ारों वर्षों की साधना मिल कर भी जीव को जितनी मात्रा में उठाने में समर्थ नहीं, उतनी मात्रा में एक क्षण की भी कुसंगति पतन कराने में समर्थ है।

०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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