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  भगवान शब्द की क्या परिभाषा है? क्या भगवान से कोई जीव सीधे सीधे प्यार कर सकता है? यदि नहीं तो कैसे प्यार करे?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 227

(भूमिका ::: 'भगवान' से प्यार करने का तरीका रसिकों ने बताया है, क्योंकि भगवान को भगवान मानकर कोई प्यार कर नहीं सकता। ऐसा क्यों है, जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साधक-समुदाय को समझा रहे हैं...)

..धनवान, बुद्धिवान, ऐसे ही भगवान्। प्रत्यय होकर के भगवान् शब्द बनता है, अर्थात् 'भग' वाला। और 'भग' किसे कहते हैं?

ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसश्श्रियः।
ऐश्वर्यस्य ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ॥
(विष्णु पुराण 6-5-74)

छहों ऐश्वर्य अनन्त मात्रा के जिसमें हों, लिमिटेड नहीं। प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक शक्ति अनन्त मात्रा की जिसमें हों, उसका नाम भगवान्। संसार में आप लोगों के पास भी शक्तियाँ हैं, बहुत छोटी। बहुत कम पॉवर की। आप लोगों से बहुत अधिक शक्ति देवताओं की है। जैसे; सुन्दरता में कामदेव, ऐश्वर्य में इन्द्र, धन में कुबेर, सम्मान में गणेश। इन लोगों के पास बड़ी-बड़ी लिमिट की चीज है लेकिन है सब सीमित और भगवान् के पास ये सब असीम मात्रा की होती हैं, अनन्त मात्रा की। उसको भगवान् कहते हैं।

तो भगवान् से प्यार करने जब हम लोग चलेंगे, तो डर लगेगा न। अरे! कहाँ भगवान्, कहाँ हम? हम संसार में भी किसी से प्यार करते हैं तो पहले हैसियत देख लेते हैं कि हम एक भिखारी की लड़की हैं और एक प्राइम मिनिस्टर के लड़के से ब्याह करने की सोच रहे हैं, ये मूर्खता है। ये असम्भव है। फिर एक साधारण जीव, सर्वशक्तिमान् भगवान् से प्यार करने की बात कैसे सोचे? इसलिए भगवान् ने कहा देखो, तुम हमको भगवान् मत मानो। हमसे चार नाते मानो।

पहला नाता भगवान् स्वामी, हम उनके दास। बस। वो भगवान् नहीं। जैसे संसार में हम किसी के सर्वेन्ट हो जाते हैं तो वो हमारा स्वामी होता है, हम उनके दास होते हैं। ये सबसे नीचे वाला भाव है। इसमें दूरी बहुत है क्योंकि दास तो मर्यादा में रहेगा, स्वामी के बराबर बैठ भी नहीं सकता। इससे ऊँचा भाव है सख्य भाव। भगवान् मेरे सखा हैं, फ्रैण्ड हैं, दोस्त हैं, मित्र हैं, इसमें बराबरी आ गई। हम उनके बराबर हैं। अब सखा लोग भगवान् के कन्धे पर बैठ जाते हैं, खेल में हारने पर घोड़ा बना लेते हैं उनको। बड़ा अधिकार हो गया उनको। लेकिन, अब भी पूरा अधिकार नहीं।

तो सख्य भाव से बड़ा है वात्सल्य भाव। यानी भगवान् को अपना बेटा मानना, अपने को माँ-बाप मानना। ये वात्सल्य भाव। और सबसे ऊँचा भाव है भगवान् हमारे प्रियतम हैं, हम उनकी प्रेयसी हैं। ये प्रियतम और प्रेयसी के भाव में सब भाव अण्डरस्टुड हैं। जब चाहो उनको पति मान लो, जब चाहो बेटा मान लो, जब चाहो सखा मान लो और जब चाहो स्वामी मान लो। चारों भाव माधुर्य भाव में अंतर्निहित होते हैं। संसार में ऐसा नहीं होता कि कोई पति को कहे ओ बेटा! इधर आओ। हाँ, झगड़ा हो जाय, मुसीबत हो जाय। कोई बेटे को नहीं कहता प्रियतम! इधर आओ। पाप कहते हैं उसको, पाप लग जायेगा, ऐसा नहीं बोलो, ऐसा नहीं सोचो। बेटा अपनी जगह, बाप अपनी जगह, पति अपनी जगह। लेकिन भगवान् के यहाँ ऐसा नहीं है।

त्वमेव माता च पिता त्वमेव। त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव। ..... त्वमेव सर्वं मम देव देव।

भगवान् ही हमारा सब कुछ है। तो सब भावों में हम जा सकें स्वतंत्रता पूर्वक, ये माधुर्य भाव है। यानी प्रियतम का भाव। वह हमारे प्रियतम, हम उनकी प्रेयसी। इसलिए गोपियों ने खूब डाँट लगाई, अपमान किया श्यामसुन्दर का, फिर भी वो विभोर होते रहे। ये माधुर्य भाव है।

तो ये भक्त कह रहा है कि मैं आपको भगवान् वगवान् नहीं मानता। भगवान् मानने पर अर्जुन डर गया। गांडीवधारी अर्जुन!! उसने श्रीकृष्ण को भगवान् माना और कहा हमको अपना स्वरूप दिखाइए। जब श्रीकृष्ण ने अपना भगवान् का रूप दिखाया तो काँपने लगा, डर के मारे पसीना-पसीना हो गया। चक्कर आ गया। उसने कहा महाराज! ये रूप नहीं चाहिए। हमारे तुम सखा बने रहो बस।

तो इसलिए भगवान् अपनी जगह पर रहें भगवान्, ठीक है। लेकिन वे हमारे स्वामी हैं, हमारे सखा हैं, हमारे पुत्र हैं, हमारे प्रियतम हैं, एक से एक ऊँचे। इन चारों भावों से ही भक्ति करने की आज्ञा दिया है शास्त्रों ने, वेदों ने।

०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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