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  क्या भक्तिमार्गी साधक वर्णाश्रम-धर्म का त्याग कर सकता है? क्या कहते हैं शास्त्र, जानिये जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु के श्रीमुख से!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 228

साधक का प्रश्न ::: क्या भक्तिमार्गी वर्णाश्रम-धर्म का त्याग कर सकता है?

जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा उत्तर ::: भागवत कहती है,

आज्ञायैवं गुणान्दोषान्मयादिष्टानपि स्वकान्।
धर्मान्सन्त्यज्य यः सर्वान्मां भजेत्स च सत्तमः।।
(भागवत 11वाँ स्कंध)

अर्थात् भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि वर्णाश्रम व्यवस्था का विधि-निषेधात्मक विधान मेरा ही बनाया हुआ है, किन्तु जो उसे छोड़कर एकमात्र मेरा ही भजन करता है, उसे कार्यों के परित्याग का दोष नहीं लगता, एवं वह मेरा अत्यन्त प्रिय हो जाता है। 

किन्तु यह स्मरण रहे कि यदि भगवदाराधना भी नहीं करता, एवं उन विधिनिषेधात्मक भगवद्विधान का भी परित्याग कर देता है, तो वह विधान के अनुसार ही दंडनीय होगा। यह नियम तो एक विशेष नियम है कि भगवान् के निमित्त उसने समस्त धर्मों का परित्याग किया है, अतएव यह सर्वथा क्षम्य एवं भगवत्प्रिय है। भागवत कहती है,

देवर्षिभूताप्तनृणां पितृणां न किङ्करो नायमृणी च राजन्।
सर्वात्मनाः यः शरणं शरण्यं गतो मुकुन्दं परिहत्य कर्तम्।।
(भागवत 11वाँ स्कंध)

अर्थात् जो विधिनिषेधात्मक धर्मों का परित्याग करके सर्वभाव से मेरी ही शरण हो जाता है, उसके लिए देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण, एवं अन्य भूतऋण, वेदऋण, मनुष्यऋणादि के बंधनों से छूटने का आवश्यक नियम लागू नहीं होता। वो इन ऋणों का दास नहीं माना जाता। यह भी एक विशेष नियम है किन्तु जो उच्छृंखलतावश शरणागत न होते हुये भी विधिनिषेधात्मक विधान का परित्याग करेगा, वह विधान के अनुसार ही दंडनीय होगा।

यदि साधक भक्त, जो एकमात्र श्रीकृष्ण के शरणागत है, कदाचित् कुछ पापकर्म कर भी जाता है तो अकारण करुण भगवान् श्रीकृष्ण उसके हृदय में प्रविष्ट होकर उस विकार को नष्ट कर देते हैं, एवं उसको फिर उठा लेते हैं।

किन्तु यदि सम्पूर्ण-भाव से शरणागत नहीं है, नाटकीय रूप से ही शरणागति का स्वांग रचता है, तब योगक्षेम वहन करने का विधान लागू नहीं होता।

०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज साहित्य
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

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