भूली बिसरी बातें- एक कालजयी उपन्यास मृत्युंजय
-प्रशांत शर्मा
आज घर में बैठे- बैठे किताब की आलमारी में एक पुस्तक पर नजर टिक गई। शिवाजी सावंत का लिखा उपन्यास मृत्युंजय था। काफी पहले पढ़ा था, फिर जिज्ञासा हुई और यह किताब खोल ही डाली। कुछ- कुछ याद था और कुछ शब्द और प्रसंग विस्मृत हो चुके थे। पहला पन्ना और फिर दूसरा, सब कुछ नया लग रहा था, यह लेखक शिवाजी सावंत की लेखनी का ही कमाल था कि प्रत्येक पन्ने पर हर शब्द और बातें आगे पढऩे को प्रेरित कर रहे थे। बचपन की वो किताबें पढऩे की जिज्ञासा भी बढ़ती जा रही थी। वो बचपन जब रात- रात भर में एक किताब खत्म कर दिया करते थे। अब सोशल मीडिया ने ऑन स्क्रीन पढऩे की आदत डाल दी थी, तो पन्ने पर कुछ पढऩा भी नया सा लग रहा था। अच्छा लगा कि किताब के शब्दों को बिना चश्मे के पढ़ पा रहा था। यह उपन्यास जब लिखा गया और प्रकाशित हुआ था, तब मेरी उम्र इतनी नहीं थी कि मैं इसे पढ़ पाता।
खैर कुछ बातें इस उपन्यास के बारे में ।
मृत्युंजय उपन्यास दानवीर कर्ण के विराट् व्यक्तित्व पर केन्द्रित है। महाभारत के कई मुख्य पात्रों में से एक कर्ण के व्यक्त्तिव से खुद श्रीकृष्ण भी प्रभावित थे। शिवाजी सावंत ने बहुत ही सुंदर तरीके से कर्ण की ओजस्वी, उदार, दिव्य और सर्वांगीण छवि को इस किताब में प्रस्तुत किया है। उन्होंने इस किताब में पौराणिक कथ्य और सनातन सांस्कृतिक चेतना के अन्त: सम्बन्धों को पूरी गरिमा के साथ चित्रित किया गया है। एक प्रकार से कह सकते हंै कि यह उपन्यास काफी अनूठा है। मूल रूप से यह मराठी में लिखा गया था, लेकिन हिन्दी अनुवाद में इसकी मूल भावना कायम रखी गई है।
जब 1967 में मराठी में इस उपन्यास का 3000 का प्रथम संस्करण छपा तो पाठक पढक़र स्तब्ध रह गये। कर्ण, कुन्ती, दुर्योधन, वृषाली (कर्ण-पत्नी), शोण और कृष्ण के मार्मिक आत्म-कथ्यों की श्रृंखला को रूपायित करने वाला यह उपन्यास पाठकों में इतना लोकप्रिय हुआ कि चार पाँच वर्षों में इसके चार संस्करण प्रकाशित हो गए और प्रतियों की संख्या पचास हजार पहुंच गईं। इसका अनुवाद अंग्रेज़ी एवं हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी, कन्नड़, तेलुगु, मलयालम, बांग्ला आदि अनेक भाषाओं में भी हो चुका है।
सही मायने में यह उपन्यास शिवाजी सावंत की लोकप्रियता का प्रतिमान बना। जब भी फुरसत मिले तो एक बार सोशल मीडिया से नजर चुराकर इस उपन्यास को जरूर पढि़ए.... कुछ पौराणिक चरित्र हमेशा प्रेरणा ही देते हैं। .
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