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घी और उससे बने पदार्थों का भोग लगाने से मां शैलपुत्री होती हैं प्रसन्न

रायपुर। शारदीय नवरात्र की आज से शुरुआत हो चुकी है। नौ दिनों तक चलने वाले इस पर्व में मां शक्ति की आराधना की जाती है। प्रथम दिन कलश स्थापना के साथ ही दुर्गासप्तमी और गीता का भी पाठ किया जाता है। पहले दिन मां शक्ति के शैलपुत्री स्वरूप की विधि विधान से पूजा की जाती है।  
मां शैलपुत्री को पर्वतराज हिमालय की पुत्री माना जाता है। इनका वाहन वृषभ है इसलिए इनको वृषारूढ़ा और उमा के नाम से भी जाना जाता है। देवी सती ने जब पुनर्जन्म ग्रहण किया तो इसी रूप प्रकट हुईं इसीलिए देवी के पहले स्वरूप के तौर पर माता शैलपुत्री की पूजा होती है। मां शैलपुत्री की उत्पत्ति शैल से हुई है और मां ने दाएं हाथ में त्रिशूल धारण कर रखा है और उनके बाएं हाथ में कमल शोभायमान है। उन्हें माता के सती के रूप में भी पूजा जाता है। नवरात्र के पहले दिन शुभ मुहूर्त देखकर कन्या एवं धनु लग्न में अथवा अभिजिन्मुहूर्त में कलश स्थापना की जाती है। पुराणों में कलश को भगवान गणेश का स्वरूप बताया गया है इसलिए कलश की स्थापना के साथ दुर्गा का आह्वान किया जाता है। इसलिए कलश की स्थापना पहले ही दिन कर दी जाती है।  इसके बाद अन्य देवी-देवताओं के साथ माता शैलपुत्री की पूजा होती है। मान्यता है कि मां शैलपुत्री को सफेद वस्तु अतिप्रिय हैं इसलिए नवरात्रि के पहले दिन मां को सफेद वस्त्र और सफेद फूल चढ़ाया जाता है।
रायपुर के ज्योतिषाचार्य डॉ. दत्तात्रेय होस्केरे के अनुसार मां शैलपुत्री की कृपा पाने के लिए घी और उससे बने मीठे पदार्थों का भोग लगाना चाहिए। आज के दिन सफेद वस्त्र पहनना चाहिए।  वास्तु दोष को शांत करने के लिए भी मां शैलपुत्री की आराधना करें। इसके साथ ही पूर्व दिशा में यदि कोई वास्तु दोष को तो वह माता शैलपुत्री की आराधना से दूर होता है। इसके लिए पूर्व दिशा में जल का छिड़काव करके माता के किसी भी मंत्र का जाप करना चाहिए। मांगलिक कन्याएं यदि माता की पूजा करें तो मंगल ग्रह की शांति होती है।
माना जाता है कि मां शैलपुत्री की आराधना से मनोवांछित फल और कन्याओं को उत्तम वर की प्राप्ति होती है। मां के इस पहले स्वरूप को जीवन में स्थिरता और दृढ़ता का प्रतीक माना जाता है। शैल का अर्थ होता है पत्थर और पत्थर को दृढ़ता की प्रतीक माना जाता है। महिलाओं को इनकी पूजा से विशेष फल की प्राप्ति होती है। नवरात्र में प्रतिदिन एक अथवा एक-एक वृद्धि से अथवा प्रतिदिन दुगुनी-तिगुनी के वृद्धिक्रम से अथवा प्रत्येक दिन नौ कुंवारी कन्याओं के पूजन का विधान है। इस संबंध में कुलाचार के हिसाब से भी पूजन कर सकते हैं, कुलाचार के आधार पर षष्ठी से नवमी तक कुंवारी पूजन के दिन निर्धारित है।    

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