साधना में अपने आँसुओं तथा भाव को यथासंभव छिपाना चाहिये; अन्यथा वह साधक के हृदय में अहंकार लाकर हानि करेगा!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 355
(भूमिका - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज ने अपने प्रवचनों में 'कुसंग' की परिभाषा तथा कुसंग के विभिन्न स्वरूपों के बारे में चर्चा की है। इसी कड़ी में कल, पहला भाग - 'कुसंग क्या है?' के रूप में कुसंग पर प्रकाश डाला गया था। आज से लेकर अगले 7 दिनों तक विभिन्न प्रकार के कुसंग के स्वरूपों पर श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा दिये गये प्रवचन प्रकाशित होंगे। आशा है, आप सभी पाठक जन इन्हें विचारपूर्वक पठन करते हुये अपने जीवन में लाभ उठायेंगे...)
★ पहला कुसंग - 'लोकरंजन'
...साधनावस्था में किसी साधक को थोड़ा सा भाव आ गया या आँसू आ गये तो उसको बताने के लिये, कि लोग ऐसा समझें कि यह बड़ा भावुक है, जरा जोर से हल्ला मचा दिया, जोर से उछल पड़ा। कभी पढ़ा होगा गौरांग महाप्रभु के चरित्र वगैरह में, उसका आइडिया होगा। या सचमुच कोई महापुरुष उसको मिल गया होगा, उसने उसका कुछ देखा-भाला होगा। तो ये जो कुछ उसने कर लिया यानि भाव आने पर उसको और बढ़ा दिया, क्यों?
ये अहंकार है जो वहाँ जाकर प्रवेश कर गया है। मुझको भाव आ रहा है, कुछ लोगों को नहीं आ रहा है। बस ऐसा सोचा और भाव चला आया नीचे। कुसंग वहाँ जाकर घुस गया। अपने श्यामसुन्दर के लिये आँसू बहा रहा है, इतनी बारीक जगह में अहंकार के रूप में कुसंग घुस गया। बेचारे को पता ही नहीं है। अगर उसको पता चल जाता तो वह क्या करता? पहले तो भाव को वह कंट्रोल करता और अगर भाव इतना अधिक होता कि उससे कंट्रोल न होता तो किसी बहाने से वहाँ से उठकर कहीं और चला जाता, तो कुसंग से बच पाता और नुकसान होने से बच जाता। साधारण जीवों को बिचारों को कंट्रोल की पॉवर तो होती ही नहीं है;
क्षुद्र नदी भरि चलि इतराई।
जैसे छोटी नदी और नालों में थोड़े से पानी में ही बाढ़ आ जाती है। उस समय वो साधक होशियार न रहा तो लोकरंजन की बुद्धि आ जायेगी कि लोगों को जरा मालूम हो जाये मैं कितना बड़ा भक्त हूँ। देखिये, ये कुसंग हो रहा है। सुसंग करते-करते इस प्रकार से चोरी-चोरी गड़बड़ी किया करता है और लाभ से वंचित हो जाता है। यही नहीं हानि उठा जाता है। एक तो मिथ्याभिमान है, दूसरे लोकरंजन की बुद्धि होने से प्रायश्चित का आँसू भी छिन जाता है। अतएव साधक को लोकरंजन रूपी महाव्याधि से बचना चाहिये।
साधक को तो अपनी साधना विशेषकर अनुभवों को अत्यन्त ही गुप्त रखना चाहिये। केवल अपने सद्गुरु से ही कहना चाहिये। अपने आप ही उन अनुभवों का चिन्तन करना चाहिये, किन्तु वहाँ भी सावधानी यह रखनी चाहिये कि यह सब अनुभव महापुरुष की कृपा से ही प्राप्त हुआ है, मेरी क्या सामर्थ्य है!!
०० प्रवचनकर्ता ::: जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज
०० स्त्रोत : 'साधन साध्य' पत्रिका, जुलाई 2011 अंक
०० सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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(3) Sanatan Vaidik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
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