अपनी साधना का मिथ्या अभिमान और अपने साधन-मार्ग के अलावा अन्य साधना-मार्ग संबंधी उपदेश श्रवण हानिकारक होता है!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 360
(भूमिका - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा 'कुसंग' पर दिये गये प्रवचन से संबंधित श्रृंखला में आज छठे तथा सातवें कुसंग 'मिथ्याभिमान' और 'अन्य किसी मार्ग विषयक उपदेश' की चर्चा यहाँ प्रकाशित की जा रही है। 'जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन' के भाग 354 से 'कुसंग' विषय पर विस्तृत चर्चा का प्रकाशन हो रहा है। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित इस अमूल्य तत्वज्ञान से निश्चित ही हमें आध्यात्मिक हानि उठाने से बचाव के उपाय ज्ञात होंगे....)
★ छठा कुसंग - 'मिथ्याभिमान'
किसी नास्तिक को देखकर यह मिथ्याभिमान भी न करना चाहिए कि यह तो कुछ नहीं जानता, मैं तो बहुत आगे बढ़ चुका हूँ। क्योंकि बड़े से बड़े घोर नास्तिक भी कभी कभी इतना आगे बढ़ जाते हैं कि बड़े बड़े साधकों के भी कान काट लेते हैं। यह सब विशेषकर पूर्व जन्म के संस्कारों के द्वारा ही हो जाता है। तुम किसी के संस्कारों को क्या जानो। अतएव सभी जीव गुप्त या प्रकट रूप से भगवत्कृपा पात्र हैं, ऐसा समझकर किसी को भी घृणा की दृष्टि से नहीं देखना चाहिये, किन्तु इतना अवश्य है कि संग उन्हीं का करना चाहिये जिनके द्वारा हमारी साधना में वॄद्धि हो।
★ सातवाँ कुसंग - 'अन्य किसी मार्ग विषयक उपदेश'
अपने गुरु के बताये हुये मार्ग के सिवा अन्य किसी मार्ग विषयक उपदेश सुनना, पढ़ना आदि भी कुसंग है, भले ही वह मार्ग महापुरुष निर्दिष्ट ही क्यों न हो। कारण ये है कि साधक विविध प्रकार के मार्गों को सुनकर कभी इधर जाएगा कभी उधर जाएगा। परिणामस्वरूप 'इतो भ्रष्टोस्ततो भ्रष्ट:' के अनुसार न इधर का रहेगा न उधर का रहेगा।
मान लो, तुम भक्तिमार्ग की साधना कर रहे हो, कोई ज्ञानमार्गीय महापुरुष ज्ञानमार्ग का उपदेश कर रहा है। तुम उसे सुनोगे तथा सोचने लग जाओगे कि अरे! यह तो कुछ और ही कहता है। बस, दिमाग में कूड़ा भरने लग जायेगा। तुम्हारी लघु बुद्धि की यह सामर्थ्य नहीं है कि वास्तविक तत्त्व पर पहुँच सके।
इसी प्रकार अपने मार्ग में भी उपासना के अनेकानेक ढंग हैं, जो कि साधक की रुचि एवं विश्वास पर निर्भर रहते हैं। तुम दूसरी साधना को सुनकर सोचोगे कि अरे! यह बड़ी अच्छी साधना होगी, क्योंकि मेरी साधना से तो अभी तक भगवत्प्राप्ति नहीं हुई। कदाचित उस साधना के प्रति यह दुर्भाव पैदा हो गया कि उसकी साधना सही नहीं है, तब तो और भी अपराध कमा बैठोगे। अतएव अपने गुरु के ही बताये मार्ग का निरंतर चिन्तन, मनन एवं परिपालन करना चाहिए तथा अन्य मार्गावलम्बी साधकों अथवा अपने मार्ग के अन्यान्य प्रणाली युक्त साधकों की साधना पर दुर्भाव न करना चाहिये। यह समझ लेना चाहिये कि सभी की साधनायें ठीक हैं। जिसके लिये जो अनुकूल है, वह वही करता है। हमें इस उधेड़बुन से क्या मतलब।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज
०० स्त्रोत : 'साधन साध्य' पत्रिका, जुलाई 2011 अंक
०० सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vaidik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
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