दूसरे में दोष देखने से अपना ही मन दोषयुक्त हो जाता है; दोष देखने का स्वभाव हो तो स्वयं के ही दोष-दर्शन करना चाहिये!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 362
(भूमिका - जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा 'कुसंग' पर दिये गये प्रवचन से संबंधित श्रृंखला में आज नौवें कुसंग 'परदोष-दर्शन' की चर्चा यहाँ प्रकाशित की जा रही है। 'जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन' के भाग 354 से 'कुसंग' विषय पर विस्तृत चर्चा का प्रकाशन हो रहा है। जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित इस अमूल्य तत्वज्ञान से निश्चित ही हमें आध्यात्मिक हानि उठाने से बचाव के उपाय ज्ञात होंगे....)
★ नौवाँ कुसंग - 'परदोष-दर्शन'
परदोष देखो जनि गोविन्द राधे।
यह दोष मन को सदोष बना दे।।
(स्वरचित दोहा)
परदोष-दर्शन घोर कुसंग है, क्योंकि परदोष-दर्शन से दो हानि हैं। एक तो यह कि परदोष-दर्शन काल ही में स्वाभाविक रूप से स्वाभिमान-वृद्धि होती है जो कि साधक के लिये तत्क्षण ही पतन का कारण बन जाती है। दूसरे यह कि यह दोष-चिन्तन करते हुये शनैः शनैः बुद्धि भी दोषमय हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप उन्हीं सदोष विषयों में प्रवृत्ति होने लगती है, अतएव सदोष कार्य होने लगता है। फिर जब संसारमात्र ही सदोष है, तो हम कहाँ तक दोष-चिन्तन करेंगे।
आश्चर्य तो यह है कि मूर्ख को मूर्ख कहने का अधिकार तो ज्ञानी ही को है। मूर्ख, मूर्ख को मूर्ख क्यों कहता है? वह भी तो स्वयं मूर्ख है। यदि यह कहो कि क्या करें, दोष-दर्शन स्वभाव-सा बन गया, तो हमें कोई आपत्ति नहीं, तुम दोष देख सकते हो, किन्तु दूसरों के नहीं, अपने ही दोष क्या कम हैं। अपने दोषों को देखने में तुम्हारा स्वभाव भी न नष्ट होगा, तथा साथ ही एक महान लाभ होगा। वह महान लाभ तुलसी के शब्दों में;
जाने ते छीजहिं कछु पापी।
अर्थात दोष जान लेने पर कुछ न कुछ बचाव हो जाता है, क्योंकि वह जीव उनसे बचने का कुछ न कुछ अवश्य प्रयत्न करता है।
मेरी राय में तो परदोष-चिन्तन करना ही स्वयं के सदोष होने का पक्का प्रमाण है, अन्यथा भला किसी को इन बातों से क्या अभिप्राय है। लोक में भी देखो, एक बाप अपने सन्निपात रोगग्रस्त पुत्र के हेतु औषधि लाने के लिये डॉक्टर के यहाँ जाता है। यदि उसे मार्ग में कोई बुलाता भी है, तो वह सभ्यता आदि की परवाह न करते हुये सीधे ही कह देता है, 'अभी अवकाश नहीं, फिर मिलेंगे'।
वह सीधे ही डॉक्टर के पास लक्ष्य करके जाता है। इसी प्रकार साधक को भी अपने मानसिक सन्निपातिक रोगों की निवृत्ति हेतु सद्गुरु द्वारा बताये हुए मार्ग पर चलकर अपना लक्ष्य प्राप्त करना चाहिये। उसे यह अवकाश ही न होना चाहिये कि साधना रूपी औषधि खाने के बजाय बैठे-ठाले परदोष-चिन्तन स्वरूप कुसंग का कुपथ्य करे। अतएव इस परदोष-चिन्तन रूपी अत्यन्त भयानक कुपथ्य से सर्वथा ही सावधान रहना चाहिये।
०० प्रवचनकर्ता ::: जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु जी महाराज
०० स्त्रोत : 'साधन साध्य' पत्रिका, जुलाई 2011 अंक
०० सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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(1) www.jkpliterature.org.in (website)
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(3) Sanatan Vaidik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
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