पाप और पुण्य दोनों ही नश्वर और जीव को बंधन में बांधने वाले हैं; अपने कल्याण हेतु इन्हें त्यागकर किसकी शरण ली जाय?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 366
★ भूमिका - आज के अंक में प्रकाशित दोहा तथा उसकी व्याख्या जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित ग्रन्थ 'भक्ति-शतक' से उद्धृत है। इस ग्रन्थ में आचार्यश्री ने 100-दोहों की रचना की है, जिनमें 'भक्ति' तत्व के सभी गूढ़ रहस्यों को बड़ी सरलता से प्रकट किया है। पुनः उनके भावार्थ तथा व्याख्या के द्वारा विषय को और अधिक स्पष्ट किया है, जिसका पठन और मनन करने पर निश्चय ही आत्मिक लाभ प्राप्त होता है। आइये उसी ग्रन्थ के 68-वें दोहे पर विचार करें, जिसमें आचार्यश्री ने यह बताया है कि पाप और पुण्य दोनों ही नश्वर और बन्धनकरक हैं और इन दोनों को त्यागकर एकमात्र हरिभक्ति की शरण ग्रहण करके ही मनुष्य बंधनों से मुक्त होकर परमपद प्राप्त कर सकता है...
पुण्य देत फल नश्वर, पाप नरक लै जाय।
दोउन तजि जो हरि भजे, सोइ परम पद पाय।।68।।
भावार्थ ::: विधिवत् किया हुआ पुण्य कर्म नश्वर स्वर्ग देता है। पाप कर्म नरक देता है। इन दोनों का परित्याग कर जो श्रीकृष्ण भक्ति करता है, उसे भगवान् का लोक प्राप्त होता है।
व्याख्या ::: इस दोहे में सम्पूर्ण गीता का आशय है । यथा - अर्जुन ने प्रारम्भ में कहा कि मैं गुरुजनों की हत्या करके राज्य सुख भोग नहीं चाहता। श्रीकृष्ण ने समझाया कि हे अर्जुन! अगर तू युद्ध करेगा तो मृत्यु होने पर स्वर्ग एवं जीतने पर राज्य मिलेगा। यथा;
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्ग जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।
(गीता 2-37)
यदि युद्ध न करेगा तो पाप होगा एवं परिणामतः नरक मिलेगा। अब तू सोच ले कि स्वर्ग अथवा पृथिवी श्रेष्ठ है या नरक? अर्जुन ने कहा कि स्वर्ग भी नश्वर है। पृथिवी भी नश्वर है। नरक भी नश्वर है। अतः मैं इन सब को नहीं चाहता। तब श्रीकृष्ण ने कहा कि 'युद्ध कर' ऐसा भी न कर, क्योंकि स्वर्ग या पृथिवी तो मिलेगी और ये दोनों ही क्षणभंगुर हैं। तथा 'युद्ध न कर', ऐसा भी न कर, क्योंकि ऐसा करने से नरक मिलेगा। जो स्वर्ग से भी निकृष्ट है। अर्जुन यह सुनकर सोच में पड़ गया कि दोनों में एक तो करना ही पड़ेगा। श्रीकृष्ण ने कहा एक मार्ग और है, उसे समझ एवं पालन कर।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
(गीता 8-7)
अर्थात् मन से मेरी भक्ति ही कर एवं शरीर से युद्ध कर। मैंने पूर्व में बताया है कि कोई भी कर्म मन की आसक्ति से ही सम्बन्ध रखता है। यदि मन का अनुराग निरन्तर श्रीकृष्ण में रखा जायगा तो न पाप का फल मिलेगा, न पुण्य का फल मिलेगा केवल श्रीकृष्ण भक्ति का ही फल मिलेगा - यही 'कर्मयोग' है। अर्जुन समझ तो गया किंतु पुनः सोचने लगा कि जब पुण्य एवं पाप दोनों का फल उपर्युक्त प्रकार से नहीं मिलना है तो कर्म धर्म का पालन ही क्यों किया जाय? फिर तो युद्ध त्याग कर केवल भक्ति ही करना बुद्धिमत्ता है। कर्मयोग के श्रम से तो कर्म संन्यास युक्त भक्ति सुगम है। इसका उत्तर भी श्रीकृष्ण ने दिया। यथा;
संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥
(गीता 5-2)
अर्थात् तेरा सोचना भी ठीक है किंतु कर्म करने में एक परोपकार भी है। वह यह कि लोग तेरे कर्म का अनुकरण करेंगे। अर्थात् धर्म का पालन करेंगे। यदि तू केवल भक्ति करेगा तो लोग धर्म के त्याग मात्र का ही अनुकरण करेंगे। अतः जैसे मैं कर्मयोग का पालन कर रहा हूँ, ऐसे ही तू भी कर। ताकि अनुकरणकर्ता नास्तिक न बनें। सारांश यह कि धर्म एवं अधर्म बन्धनकारक है। केवल भक्ति ही ग्राह्य है। फिर लोक आदर्श के लिये कर्म करे या न करे।
०० व्याख्याकार ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'भक्ति-शतक' ग्रन्थ, दोहा संख्या - 68
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
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