वेदादिक ग्रन्थ कहते हैं कि भगवान से यह संसार निकला है, तो भगवान ने यह संसार दुःखमय क्यों बनाया? (समाधान, भाग - 2)
• जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 403
(भूमिका - किसी साधक/जिज्ञासु ने जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज से यह प्रश्न किया था कि... 'वेदों में, शास्त्रों में, पुराणों में, हमारे हिन्दू धर्म ग्रन्थों में सभी स्थलों में बताया गया है कि ये संसार भगवान् से निकला है, भगवान् ने बनाया । तो भगवान् ने ये दुःखमय संसार क्यों बनाया?' नीचे जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा वेदादिक सम्मत दिया गया समाधान प्रकाशित किया जा रहा है। चूँकि यह उत्तर अधिक विस्तार में है, अतएव इसे 3 या 4 भागों में प्रकाशित किया जा रहा है। कल 23 सितम्बर को श्रृंखला के 402-वें भाग में इस उत्तर का प्रथम भाग प्रस्तुत किया गया था। कृपया आप सभी पिछले भाग से ही इसे पढ़ें, ताकि सम्पूर्ण समाधान से लाभान्वित हो सकें...)
(भाग - 2, पिछले भाग से आगे)
.......भगवान् का एक नाम है - आनन्द। और चित् माने ज्ञान स्वरूप, सत् माने नित्य ये तीन बाते हैं भगवान् में। नित्य है भगवान् , सर्वज्ञ है भगवान् और आनन्द स्वरूप है। आनन्द रूप है। उसमें आनन्द है ऐसा नहीं। वो आनन्द है। अनलिमिटेड आनन्द।
यो वै भूमा तत्सुखम्।
(छान्दोग्योपनिषद 7-23-1)
हाँ जी, तो जब भगवान् नित्य है, ज्ञानयुक्त है और आनन्द है तो उससे पैदा हुआ ये संसार इसका उल्टा क्यों है? उल्टा माने नश्वर। वो नित्य, नित्य का उल्टा अनित्य, नश्वर। वो ज्ञान स्वरूप, ये अज्ञान स्वरूप, वो आनन्द स्वरूप, यहाँ दुःख ही दु:ख। कहीं आनन्द नहीं। किसी पदार्थ में आनन्द नहीं। न चेतन में, न जड़ में। इस मृत्युलोक में तो क्या आनन्द होगा स्वर्गलोक में भी नहीं।
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः।
(गीता 8-16)
तो भगवान् आनन्द है तो उससे ये दुःख कैसे पैदा हुआ? भगवान् चित् स्वरूप है और ये अचित् जड़ संसार कैसे पैदा हुआ? भगवान् नित्य है तो ये अनित्य संसार कैसे पैदा हुआ? ये प्रश्न है। बार-बार कहा शास्त्रों वेदों ने कि भगवान् आनन्द रूप है।
आनन्दमात्रमविकल्पमविद्धवर्चः।
(भागवत 3-9-3)
आनन्दमूर्तिमजहादतिदीर्घतापम्॥
(भागवत 10-48-7)
और वेद भी कहता है ।
रसो वै सः।
(तैत्तिरीयोपनिषद 2-7)
वो आनन्द स्वरूप है। हाँ हाँ ठीक है, आपको आश्चर्य है। हाँ, हमारे संसार में ऐसा नहीं होता। हाथी से घोड़ा नहीं पैदा होता। आदमी से ऊँट नहीं पैदा होता। जैसा पिता होता है वैसा ही पुत्र होता है। डार्विन का सिद्धान्त तो खण्डित हो गया कब का। जो कहता था कि बन्दर से मनुष्य बने हैं। उत्तर दिया वेद ने;
यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति।
यथा सतः पुरुषात्केशलोमानि तथाक्षरात्सम्भवतीह विश्वम्॥
(मुण्डकोपनिषद 1-1-7)
अरे! तुमको आश्चर्य हो रहा है? अच्छा, एक बात बताओ । तुम्हारा शरीर चेतन है? हाँ है। उससे जड़ क्यों पैदा हुआ? कहाँ? ये बाल। बाल को काट दो, दर्द हुआ? नहीं। क्यों, ये बाल क्या चिपकाये गये हैं बाहर से? चेतन से निकले हैं। हाँ। और जड़ हैं? हाँ। अरे! नाखून चेतन से निकला? हाँ। और आप हर हफ्ते काटते रहते हैं' हँसते हुये। यानी दो प्रकार के नाखून - एक जड़, एक चेतन। अगर चेतन कट गया तो 'हू हू' करते हैं। एक ही नाखून में दो विरोधी बात। फिर आप ही के शरीर में ये आश्चर्य की बात है। और वो तो;
आत्मनि चैवं विचित्राश्च हि।
(ब्र. सू. 2-1-28)
भगवान् के पास अनन्त विचित्र उलटी पुलटी दोनों प्रकार की शक्तियाँ हैं। योगमाया भी, माया भी। माया जड़ है, योगमाया चेतन है। वसुदेव ने भगवान् की स्तुति की;
त्वत्तोऽस्य जन्मस्थिति संयमान् विभोवदन्त्यनीहादगुणादविक्रियात्।
त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुध्यते त्वदाश्रयत्वादुपचर्यते गुणैः॥
(भाग. 10-3-19)
हे श्रीकृष्ण! तुम्हारे कोई इच्छा नहीं है। गधा भी जानता है। इच्छा तो उसको होती है जो अपूर्ण हो, कुछ पाना बाकी हो। अज्ञानी हो, ज्ञान पाना है; दुःखी हो, आनन्द पाना है। कुछ पाना है। और जो सदा;
आत्मरतिरात्मक्रीड आत्ममिथुन आत्मानन्दः।
(छान्दोग्योपनिषद 7-25-2)
जो ऐसा भगवान् है उसके इच्छा क्या होगी, क्यों होगी, लेकिन आप कर्म करते हैं। बिना इच्छा के कर्म कैसे होगा जी? हम लोग कोई कर्म करते हैं तो पहले इच्छा होती है। हाँ, वहाँ चलना चाहिये। अब चलेंगे। पहले इच्छा होगी। फिर क्रिया होगी।
स यथाकामो भवति तत्क्रतुर्भवति यत्क्रतुर्भवति तत् कर्म कुरुते यत् कर्म कुरुते तदभिसम्पद्यते।
(वृहदारण्यक उपनिषद 4-4-5)
तो पहले तो इच्छा ही होगी;
ज्ञानजन्या भवेदिच्छा हीच्छाजन्या भवेत्कृतिः।
कृतिजन्या भवेच्चेष्टा चेष्टाजन्या क्रियोच्यते ॥
कृति कैसे हो जायेगी बिना इच्छा के। लेकिन आप तो बड़ा कर्म करते हैं। अरे! सबसे बड़ा कर्म यही, सृष्टि;
जन्मस्थिति संयमान्।
(भागवत 10-3-19)
फिर उसमें व्याप्त होना, फिर सारे संसार का नियामन करना, फिर सब जीवों के हृदय में अलग- अलग रूप से बैठना, फिर उसके अनन्त जन्मों के कर्मों का बहीखाता लेकर बैठना, उसको कर्मफल देना, उसके इन्द्रिय मन बुद्धि में तत्तत् कर्म करने की शक्ति देना। अरे ! कितने कर्म करते हैं। फिर अवतार लेना, किसी को बाप, माँ, बीबी बनाना और बेटा बनाना। सोलह हजार एक सौ आठ श्रीमती, एक एक श्रीमती के दस-दस बच्चे इतनी बड़ी फैमिली फिर सबको मरवा देना। बिना बात। और इच्छा नहीं है। और 'अगुणाद्' - ये सात्त्विक, राजस, तामस ये गुण भी नहीं हैं आप में। जब गुण नहीं हैं तो गुण के काम कैसे करते हैं? ये बच्चा पैदा होता है बिना गुण के? ये तो तीन गुण का काम है। अरे! ये गुस्सा भगवान् का, रथ का पहिया लेकर दौड़े मारने भीष्मपितामह को। आँख निकाल कर, भौंह तानकर, दाँत पीस के। ये गुस्सा कैसे आ गया? भगवान् को भी गुस्सा! ये गुण के काम हैं सब। ये राम ने इतने राक्षसों को मारा; श्रीकृष्ण ने अघासुर, बकासुर , खोपड़ासुर कितनो को मारा। हाँ, हाँ समझ गये। क्या समझ गये?
त्वयीश्वरे ब्रह्मणि नो विरुध्यते।
(भागवत 10-3-19)
आप में अनेक विरोधी शक्तियाँ हैं। इसलिये आप सब प्रकार का कार्य कर लेते हैं।
न तेऽभवस्येश भवस्य कारणम्।
(भागवत 10-2-39)
आप अभव हैं फिर भी जन्म लेते हैं। अनन्त जन्म, एक दो जन्म नहीं।
जन्मकर्माभिधानानि सन्ति मेSङ्ग सहस्रशः।
न शक्यंतेनु संख्यातुमनन्तत्वान्यापि हि।।
(भागवत 10-51-37)
अनन्त जन्म हो चुके हैं मेरे, मैं भी नहीं बता सकता उनकी संख्या। अरे ! जन्म तो कर्म से होता है । बिना कर्म के जन्म कैसे हो सकता है? पुण्य करोगे तो जन्म होगा, पाप करोगे तो जन्म होगा। जब कोई कर्म ही नहीं तो जन्म कैसे? लेकिन हो रहा है;
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
(गीता 4-5)
कालात्मा, केवल एक भगवान् निर्भय है। काल के भी काल। बाकी सब काल के अण्डर में हैं।
(Note - शेष प्रवचन कल तीसरे भाग में प्रकाशित किया जायेगा)
• सन्दर्भ ::: प्रश्नोत्तरी, भाग - 2, प्रश्न संख्या - 4
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