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 क्यों दूर्वा (दूबी) को हर पूजा में आवश्यक माना जाता है ?
 बालोद से पंडित प्रकाश उपाध्याय
दूर्वा, जिसे हम हिंदी में दूब भी कहते हैं, का हिन्दू धर्म में बहुत महत्व है। शायद ही ऐसी कोई पूजा हो जो दूर्वा के बिना संपन्न होती हो। आम तौर पर लोग दूर्वा और घास को एक ही समझते हैं किन्तु ऐसा नहीं है। दूर्वा घास का ही एक प्रकार है जो हरे रंग की होती है और पृथ्वी पर फ़ैल कर बढ़ती है और कभी ऊपर नहीं उठती।
 पुराणों के अनुसार दूर्वा की उत्पत्ति समुद्र मंथन से मानी गयी है। इसे समुद्र मंथन से निकले 84 अन्य रत्नों में से एक माना जाता है। कथा के अनुसार  मंदराचल की रगड़ से श्रीहरि की जांघ का एक रोम टूट गया और उसी से दूर्वा का जन्म हुआ। नारायण के शरीर का भाग होने के कारण ये परम पवित्र कहलाई। जब अमृत प्राप्त होने के बाद समुद्र मंथन का समापन हुआ तो नारायण ने मोहिनी रूप धर कर कुछ समय के लिए अमृत को इसी दूर्वा पर रख दिया। अमृत का स्पर्श होने से इसकी पवित्रता और बढ़ गयी और ये वनस्पति अमर हो गयी। इसीलिए दूर्वा ही एक ऐसी वनस्पति है जो किसी भी परिस्थित में बिना किसी की सहायता के स्वयं बढ़ सकती है। इसे अमृता, अनंता, गौरी, महौषधि, शतपर्वा, भार्गवी इत्यादि नामों से भी जानते हैं।
 समुद्र मंथन के सन्दर्भ में ही दूर्वा के लिए हमारे धर्म ग्रंथों में एक श्लोक आता है -
 त्वं दूर्वे अमृतनामासि सर्वदेवैस्तु वन्दिता।
वन्दिता दह तत्सर्वं दुरितं यन्मया कृतम॥
विष्णवादिसर्वदेवानां दूर्वे त्वं प्रीतिदा यदा।
क्षीरसागर संभूते वंशवृद्धिकारी भव।।
  मान्यता है कि दूर्वा यज्ञ में तीन महान अवगुणों - आणव, कार्मण एवं मायिक का नाश कर देती है। हिन्दू कर्मकांडों एवं सभी 16 संस्कारों में दूर्वा का प्रयोग किया जाता है। कोई भी मांगलिक अवसर दूर्वा की उपस्थिति के बिना अधूरा माना जाता है।
 स्त्रियों को विशेष कर दूर्वा का पूजन करने को कहा गया है। ऐसी मान्यता है ऐसा करने से उनका सुहाग अखंड रहता है। महान पतिव्रताओं जैसे माता सीता और दमयन्ती द्वारा भी दूर्वा के पूजन का वर्णन हमें ग्रंथों में मिलता है। ऐसी मान्यता है कि जो कोई भी स्त्री दूर्वा द्वारा पूजन करती है वो अपने पति के साथ उसी के लोक को प्राप्त करती है।
 वैसे तो दूर्वा सभी देवताओं को अत्यंत प्रिय है किन्तु विशेष रूप से श्रीगणेश को ये अति प्रिय है। इसके विषय में एक कथा पुराणों में आती है कि  श्रीगणेश ने अनलासुर से युद्ध किया और उसे जीवित ही निगल कर देवताओं को भयमुक्त किया। जब श्रीगणेश ने अनलासुर को निगला तो उसके ताप से उनके उदर में भयानक पीड़ा होने लगी। तब महर्षि कश्यप ने उन्हें दूर्वा की 21 गांठें खाने को दी जिसे खाने के बाद उन्हें उस ताप से मुक्ति मिली। तभी से श्रीगणेश को दूर्वा चढ़ाने का विशेष विधान है।
 श्रीगणेश को आम तौर पर 11 दूर्वा चढ़ाई जाती है और प्रत्येक के साथ उनका एक मन्त्र बोला जाता है। श्रीगणेश के ये 11 मन्त्र हैं - ऊँ गं गणपतेय नम:, ऊँ गणाधिपाय नम:, ऊँ उमापुत्राय नम:, ऊँ विघ्ननाशनाय नम:, ऊँ विनायकाय नम:, ऊँ ईशपुत्राय नम:, ऊँ सर्वसिद्धिप्रदाय नम:, ऊँएकदन्ताय नम:, ऊँ इभवक्त्राय नम:, ऊँ मूषकवाहनाय नम: एवं ऊँ कुमारगुरवे नम:।
  दूर्वा को औषधीय गुणों से परिपूर्ण माना गया है। कहा जाता है कि त्रिफ़ल के अतिरिक्त केवल दूर्वा ही ऐसी वनस्पति है जो तीन मुख्य विकारों - वात, पित्त और कफ का नाश करती है। इसे प्राकृतिक रूप से सबसे प्रभावकारी एंटीबायोटिक माना गया है जिसके सेवन से शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।
 

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