सजल
- गीत
-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
चूस आम को फेंक दिया ज्यों,
ऐसे ही इंसान हो गए।
स्वार्थ-सिद्धि के बाद न पूछें,
रिश्ते कूड़ेदान हो गए।।
शर्म न आती रिश्वत लेते ,
चोरी ऊपर सीनाजोरी।
धौंस दिखाते हैं धन-बल का,
देख सभी हैरान हो गए।।
कमजोरों को सभी लूटते,
रिश्तों का अब मोल कहाँ।
रीत गया घट संस्कारों का,
मूल्य बेच धनवान हो गए।।
अंधानुकरण करके भूले,
गौरवशाली संस्कृतियों को।
अपने ही घर में निर्वासित,
बिना राज्य सुल्तान हो गए।।
घर की मुर्गी दाल बराबर,
चाइनीज के दीवाने हम।
बिसरी ताजी रोटी-सब्जी,
मोमो मैगी जलपान हो गए।।
गमलों में सिमटे हैं पौधे,
अब हरी दूब ढूँढें न मिलें।
हरी-भरी वसुधा यह रोती,
बंजर सब मैदान हो गए।
रोजगार पाने को निकले,
चौखट से बाहर लोग सभी।
भौंक रहे गलियों में कुत्ते,
खाली गली मकान हो गए।।
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