चैत्र नवरात्रि से पहले दिन को संवत्सर क्यों कहते हैं?
चैत्र नवरात्रि से पहले दिन को संवत्सर कहा जाता है। इसे हिन्दू नव वर्ष के रूप में मनाया जाता है। ब्रह्म पुराण के अनुसार जगत पिता ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन की थी।
ब्रह्माजी ने जब सृष्टि की रचना का कार्य आरंभ किया तो चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को प्रवरा तिथि घोषित किया। इसमें धार्मिक, सामाजिक, व्यवसायिक और राजनीतिक अधिक महत्व के जो भी कार्य आरंभ किए जाते हैं, सभी सिद्धफलीभूत होते हैं। कालांतर में भगवान विष्णु के मत्स्यावतार का अविर्भाव और सतयुग का आरंभ भी इसी दौरान हुआ था। प्रवरा तिथि के महत्व को स्वीकार कर, भारत के सम्राट विक्रमादित्य ने भी अपने संवत्सर का आरंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही किया था। आगे चलकर महर्षि दयानंद जी ने भी आर्य समाज की स्थापना इसी दिन करना शुभ संकेत माना।
इस दिन संवत्सर पूजन, नवरात्र घट स्थापना, ध्वजारोहण, तैलाभ्याड्ं स्नान, वर्षेशादि पंचाग फल श्रवण, परिभद्रफल प्राशनन और प्रपास्थापन प्रमुख हैं। इस दिन मुख्यतया ब्रह्माजी का व उनकी निर्माण की हुई सृष्टि के प्रधान देवी-देवताओं, यक्ष-राक्षसों, गंधर्वों, ऋषि, मुनियों, मनुष्यों, नदियों, पर्वतों, पशुपक्षियों और कीटाणुओं का ही नहीं, रोगों और उनके उपचारों तक का पूजन किया जाता है। इसका विधिपूर्वक पूजन करने से वर्ष पर्यन्त सुख-शान्ति, समृद्धि आरोग्यता बनी रहती है।
भारत की गौरवमयी सभ्यता एवं संस्कृति में संवत्सर का विशेष महत्व है। हिंदुओं के प्राय: सभी शुभ संस्कार, विवाह, मुंडन, नामकरण आदि एवं मंत्र जाप यज्ञादि अनुष्ठानों में संकल्प आदि के समय संवत के नाम का प्रयोग प्रमुखता से किया जाता है। ऋग्वेद में एक उल्लेख मिलता है कि दीर्घतमा ऋषि ने युग-युगों तक तपस्या करके ग्रहों, उपग्रहों, तारों, नक्षत्रों आदि की स्थितियों का आकाश मंडल में ज्ञान प्राप्त किया। वेदांग ज्योतिष काल गणना के लिए विश्व भर में भारत की सबसे प्राचीन और सटीक पद्धति है।
पौराणिक काल गणना वैवश्वत मनु के कल्प आधार पर सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग - इन चार भागों में विभाजित है। इसके पश्चात ऐतिहासिक दृष्टि से काल गणना का विभाजन इस प्रकार से हुआ। युधिष्ठिर संवत, कलिसंवत, कृष्ण संवत, विक्रम संवत, शक संवत, महावीर संवत, बौद्ध संवत। उसके बाद हर्ष संवत, बंगला, हिजरी, फसली और ईसा सन भारत में चलते रहे। इसलिए वेद, उपनिषद, आयुर्वेद, ज्योतिष और ब्रह्मांड संहिताओं में मास, ऋतु, वर्ष, युग, ग्रह, ग्रहण, ग्रहकक्षा, नक्षत्र, विषुव और दिन रात का मान व उनकी ह्रास, वृद्धि संबंधी विवरण पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं।
ईसवी सन से 57 वर्ष पहले उज्जैन के राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय ने आक्रांताशकों को पराजित कर विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी। यह चैत्र शुक्ला प्रतिपदा को घटित हुआ। विक्रमादित्य ने इसी दिन से विक्रम संवत की शुरुआत की। काल को देवता माना जाता है। संवत्सर की प्रतिमा स्थापित करके उसका विधिवत पूजन व प्रार्थना की जाती है। विक्रम और शक संवत्सर दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। हालांकि हमारे राष्ट्रीय पंचांग का आधार शक संवत है, हालांकि शक हमारे देश में हमलावर के रूप में आए थे। कालान्तर में भारत में बसने के उपरांत शक भारतीय संस्कृति में ऐसे रच बस गए कि उनकी मूल पहचान लुप्त हो गई।
विश्व में लगभग 25 संवतों का प्रचलन है जिसमें 15 तो 2500 वर्षों से प्रचलित हैं। दो-चार को छोड़कर प्राय: सभी संवत् वसंत ऋतु में आरंभ होते हैं। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को विक्रम संवत् का आरंभ भी भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप है क्योंकि इसका संबंध हमारे ऋतुचक्र से जुड़ा है।
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