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 वेदों में सरस्वती नदी


 सरस्वती नदी का ऋग्वेद की चौथे पुस्तक छोड़कर सभी पुस्तकों में कई बार उल्लेख किया गया है। केवल यही ऐसी नदी है जिसके लिए ऋग्वेद की छन्द संख्या 6.61,7.95 और 7.96 में पूरी तरह से समर्पित भजन दिए गए हैं। वैदिक काल में सरस्वती की बड़ी महिमा थी और इसे परम पवित्र नदी माना जाता था, क्योंकि इसके तट के पास रहकर तथा इसी नदी के पानी का सेवन करते हुए ऋषियों ने वेदों को रचा और वैदिक ज्ञान का विस्तार किया।
इसी कारण सरस्वती को विद्या और ज्ञान की देवी के रुप में भी पूजा जाने लगा। ऋग्वेद के नदी सूक्त में सरस्वती का इस प्रकार उल्लेेख है कि  इमं में गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्ण्या असिक्न्या मरूद्वधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया । सरस्वती ऋग्वेद में केवल  नदी देवी के रूप में वर्णित है (इसकी वंदना तीन सम्पूर्ण तथा अनेक प्रकीर्ण मंत्रों में की गई है), किंतु ब्राह्मण ग्रथों में इसे वाणी की देवी या वाच् के रूप में देखा गया, क्योंकि तब तक यह लुप्त हो चुकी थी परन्तु इसकी महिमा लुप्त नहीं हुई और उत्तर वैदिक काल में सरस्वती को मुख्यत:, वाणी के अतिरिक्त बुद्धि या विद्या की अधिष्ठात्री देवी भी माना गया है और ब्रह्मा की पत्नी के रूप में इसकी वंदना के गीत गाए गए हंै। ऋग्वेद में सरस्वती को नदीतमा की उपाधि दी गयी है। उसकी एक शाखा 2.41.16 में इसे  सर्वश्रेष्ठ मां,सर्वश्रेष्ठ नदी,सर्वश्रेष्ठ देवी  कहकर संबोधित किया गया है। यही प्रशंसा ऋग्वेद के अन्य छंदों 6.61,8.81,7.96 और 10.17 में भी की गयी है। नवेद के श्लोक 7.9.52 तथा अन्य जैसे 8.21.18 में सरस्वती नदी को  दूध और घी  से परिपूर्ण बताया गया है। ऋग्वेद के श्लोक 3.33.1 मे इसे गाय की तरह पालन करने वाली बताया गया है। ऋग्वेद के श्लोक 7.36.6 में सरस्वती को सप्तसिंधु नदियों की जननी बताया गया है।
 ऋग्वेद के बाद के वैदिक साहित्यों में सरस्वती नदी के विलुप्त होने का उल्लेेख आता हैं ,इसके अतिरिक्त सरस्वती नदी के उद्गम स्थल की प्लक्ष प्रस्रवन के रुप में पहचान की गई है जो कि यमुनोत्री के पास ही स्थित है। यजुर्वेदयजुर्वेद की वाजस्नेयी संहिता 34.11 में कहा गया है कि पांच नदियां अपने पूरे प्रवाह के साथ सरस्वती नदी में प्रविष्ट होती हैं, यह पांच नदियां पंजाब की सतलुज, रावी, व्यास, चेनाव और दृष्टावती हो सकती हैं ।
 वाल्मीकि रामायण में भरत के केकय देश से अयोध्या आने के प्रसंग में सरस्वती और गंगा को पार करने का वर्णन है-  सरस्वती च गंगा च युग्मेन प्रतिपद्य च, उत्तरान् वीरमत्स्यानां भारूण्डं प्राविशद्वनम्म। सरस्वती नदी के तटवर्ती सभी तीर्थों का वर्णन महाभारत में शल्यपर्व के 35 वें से 54 वें अध्याय तक सविस्तार दिया गया है। इन स्थानों की यात्रा बलराम ने की थी। जिस स्थान पर मरूभूमि में सरस्वती लुप्त हो गई थी उसे विनशन कहते थे।  महाभारत में तो सरस्वती नदी का उल्लेख कई बार किया गया है। सबसे पहले तो यह बताया गया है कि कई राजाओं ने इसके तट के समीप कई यज्ञ किए थे। वर्तमान सूखी हुई सरस्वती नदी के समान्तर खुदाई में 5500 - 4000 वर्ष पुराने शहर मिले हंै जिनमें कालीबंगा और लोथल भी है यहां कई यज्ञ कुण्डों के अवशेष भी मिले हंै जो महाभारत में कहे तथ्य को प्रमाणित करती है। महाभारत में यह भी वर्णन आता है कि निषादों और मलेच्छों से द्वेष होने के कारण सरस्वती नदी ने इनके प्रदेशों मे जाना बंद कर दिया जो इसके सूखने की प्रथम अवस्था को दर्शाती है, साथ ही यह भी वर्णन मिलता है कि सरस्वती नदी मरुस्थल में विनाशन नामक स्थान पर लुप्त हो फिर पुन किसी स्थान पर प्रकट होती है।   

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