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आईसीएस की नौकरी छोड़ स्वराज्य आंदोलन का हिस्सा बनने वाले  रघुपति सहाय ऐसे बने फिराक गोरखपुरी
 बहुत पहले से उन कदमों की आहट जान लेते हैं, 
तुझे ऐ जिंदगी, हम दूर से पहचान लेते हैं...
मेरी नजरें भी ऐसे काफिरों की जान ओ ईमां हैं
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं...
ऐसी गजलों के फनकार जाने माने शायर रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी का जन्म 28 अगस्त 1896 को गोरखपुर में हुआ। वे भारत के एक जाने माने शायर, लेखक और आलोचक रहे हैं।  1914 को उनका विवाह प्रसिद्ध जमींदार विन्देश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी से हुआ। कला स्नातक में पूरे प्रदेश में चौथा स्थान पाने के बाद आई.सी.एस. में चुने गये। 1920 में नौकरी छोड़ दी तथा स्वराज्य आंदोलन में कूद पड़े तथा डेढ़ वर्ष की जेल की सजा भी काटी।  जेल से छूटने के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस के दफ्तर में अवर सचिव की जगह दिला दी। बाद में नेहरू जी के यूरोप चले जाने के बाद उन्होंने अवर सचिव का पद छोड़ दिया। फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1930 से लेकर 1959 तक अंग्रेजी के अध्यापक रहे। 1970 में उनकी उर्दू काव्यकृति  गुले नग़्मा  पर ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। फिराक जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में अध्यापक रहे।
 उन्हें गुले-नग्मा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार , ज्ञानपीठ पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बाद में 1970 में इन्हें साहित्य अकादमी का सदस्य भी मनोनीत कर लिया गया था।  फिराक गोरखपुरी को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन 1968 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था। 
रघुपति सहाय के नाम के साथ फिराक गोरखपुरी कैसे जुड़ा इसकी भी रोचक दास्तां है। जानकारी के मुताबिक, अगस्त 1916 में जब मुंशी प्रेमचंद गोरखपुर गए तो उस समय वह अक्सर फिराक के पिता गोरख प्रसाद 'इबरत' के साथ उनके आवास लक्ष्मी निवास तुर्कमानपुर में बैठकी किया करते थे। ऐसे में फिराक को भी उनका सानिध्य मिलना स्वाभाविक था। इसी समय एक समय एक अवसर पर प्रेमचंद के पास एक पत्रिका आई, उन्होंने इसे फिराक को पढऩे को दिया। इसमें उर्दू के मशहूर लेखक नासिर अली 'फिराक' का नाम प्रकाशित था। रघुपति सहाय को नासिर के नाम में जुड़ा 'फिराक' भा गया और उन्होंने उसे अपना तखल्लुस बनाने का फैसला कर लिया और इस तरह रघुपति सहाय के नाम के साथ फिराक जुड़ गया। गोरखपुर उनका घर था, इसलिए उन्होंने अपना पूरा नाम लिखा फिराक गोरखपुरी। 
  फिराक गोरखपुरी की शायरी में गुल-ए-नगमा, मश्अल, रूह-ए-कायनात, नग्म-ए-साज, गज़़लिस्तान, शेरिस्तान, शबनमिस्तान, रूप, धरती की करवट, गुलबाग, रम्ज व कायनात, चिरागां, शोअला व साज, हजार दास्तान, बज्मे जिन्दगी रंगे शायरी के साथ हिंडोला, जुगनू, नकूश, आधीरात, परछाइयाँ और तरान-ए-इश्क जैसी खूबसूरत नज्में और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् जैसी रुबाइयों की रचना फिराक साहब ने की है। उन्होंने एक उपन्यास साधु और कुटिया और कई कहानियाँ भी लिखी हैं। उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी भाषा में दस गद्य कृतियां भी प्रकाशित हुई हैं। 
 फिराक ने अपने साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश गजल से किया था। अपने साहित्यिक जीवन में आरंभिक समय में 6 दिसंबर, 1926 को ब्रिटिश सरकार के राजनैतिक बंदी बनाए गए। उर्दू शायरी का बड़ा हिस्सा रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता से बंधा रहा है जिसमें लोकजीवन और प्रकृति के पक्ष बहुत कम उभर पाए हैं। नजीर अकबराबादी, इल्ताफ हुसैन हाली जैसे जिन कुछ शायरों ने इस रिवायत को तोड़ा है, उनमें एक प्रमुख नाम फिराक गोरखपुरी का भी है। फिराक ने परंपरागत भावबोध और शब्द-भंडार का उपयोग करते हुए उसे नयी भाषा और नए विषयों से जोड़ा। उनके यहाँ सामाजिक दुख-दर्द व्यक्तिगत अनुभूति बनकर शायरी में ढला है। दैनिक जीवन के कड़वे सच और आने वाले कल के प्रति उम्मीद, दोनों को भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर फिराक ने अपनी शायरी का अनूठा महल खड़ा किया। फारसी, हिंदी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ के कारण उनकी शायरी में भारत की मूल पहचान रच-बस गई है।

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