पवित्र रिश्ता
-लघुकथा
-लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे, दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
उदय उस बहुमंजिला इमारत के चौथे माले पर रहता था , भागदौड़ भरी जिंदगी में कसरत , व्यायाम के लिए समय कहाँ. बस वह अपने फ्लैट लिफ्ट से न जाकर सीढ़ियों से जाया करता । चढ़ना - उतरना ही उसका व्यायाम था । सुबह ऑफिस जाते वक्त और शाम को लौटते वक्त तीसरे माले के एक फ्लैट में अक्सर उसे एक बुजुर्ग दिखतीं जो उदय को देखकर मुस्कुरा उठतीं और उदय उन्हें नमस्ते कर लेता , बस इतना ही रिश्ता था उनके बीच - मुस्कान और सलाम का । एक दिन शाम को उदय को वो आंटी जी नहीं दिखी तो उसे कुछ कमी सी महसूस हुई और हाथ - मुँह धोकर वह उनके फ्लैट की घण्टी बजा रहा था । अंकल जी ने दरवाजा खोला - ऑन्टी जी दिखाई नहीं दी आज , उनकी तबीयत तो ठीक है ना " उदय ने कुछ झिझकते हुए पूछा ।" नहीं बेटे रमा की तबीयत ठीक नहीं है , आओ अंदर बैठो । " अंकल ने उसे बड़े स्नेह से भीतर बुलाया । उदय के बराबर उनका बेटा विदेश में रहता था । उनकी पत्नी रमा उदय को देखकर इसलिए खुश हो जाती । उदय का यूँ घर आकर उसके स्वास्थ्य के बारे में पूछना दोनों को भावाभिभूत कर गया था । उदय ने उनसे कहा -"अंकल जी कुछ सामान लाना हो या कोई भी काम हो , आप मुझे बोल दिया कीजिए । आपको बार - बार नीचे उतरने की जरूरत नहीं । " बुजुर्ग दम्पत्ति की आँखें खुशी से भर आईं थीं । रमा जी तो अपनी बीमारी भूलकर उसे खिलाने - पिलाने में व्यस्त हो गई थी । पराये शहर में उदय को परिवार मिल गया था और उन बुजुर्गों को जीने का सहारा । एक प्यारा सा रिश्ता बन गया था उनके बीच जिसने उनके जीवन के खालीपन को स्नेह से भर दिया था ।
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