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जब धर्मेन्द्र ने मीलों पैदल चलकर सुरैया की फिल्म दिल्लगी देखी वह भी 40 बार

    15 जून-जन्म दिवस--सुरैया

आलेख- मंजूषा शर्मा
15 जून 1929 को लाहौर में मल्लिका बेगम ने एक बेटी को जन्म दिया और बड़े प्यार से उसका नाम रखा-सुरैया। मल्लिका बेगम को गायकी का शौक था लिहाजा नन्हीं सुरैया पर भी संगीत का खासा असर पड़ा।  सुरैया के बचपन पर सात सुरों का रंग ऐसा चढ़ा कि उनकी रुचि खुद ब खुद फिल्मों में होने लगी। बचपन में कानन बाला, खुर्शीद और सहगल के गीतों को गा-गाकर सुरैया की आवाज गायकी में इतनी पुख्ता हो गई कि लगता ही नहीं था कि उन्होंने संगीत की विधिवत शिक्षा नहीं ली है।
उस वक्त सुरैया के सामने अभिनेत्री बनने की राह में कड़ी चुनौतियां थीं।  1941 में सुरैया को बतौर अभिनेत्री पहली फिल्म मिली  मुमताज महल । मोहन स्टुडियो की इस फिल्म में सुरैया की अभिनेत्री बनने की चाहत तो पूरी हो गई, लेकिन दिल के किसी कोने में गायिका बनने की अभिलाषा बार-बार मचल रही थी।  उनकी यह साध भी जल्द की निर्माता-निर्देशक कारदार की फिल्म शारदा में पूरी हीे गई जिसमें सुरैया को पहली बार पाश्र्वगायन  का मौका मिला वह भी नौशाद के संगीत निर्देशन में।  
उन दिनों बंबई टॉकीज में देविका रानी की तूती बोला करती थी। सुरैया की प्रतिभा ने इसे भी चुनौती दी और वे जल्द ही बंबई टॉकीज की एक सदस्य बन गई । पांच सौ रुपए वेतन पर सुरैया ने बंबई टॉकीज की फिल्म  हमारी बात  से काम शुरू किया। मेहबूब खान की 1946 में बनी सुपर हिट फिल्म  अनमोल घड़ी में भी सुरैया ने अपने अभिनय का ऐसा जादू बिखेरा कि नूरजहां जैसी अभिनेत्री के सामने उनका सेकंड लीड रोल भी कमतर साबित नहीं हुआ। हालांकि नूरजहां के हिस्से में जहां चार गाने आए , वहीं सुरैया ने केवल एक गाना गाया - सोचा न था क्या, क्या हो गया.. ।  गुजरे जमाने की अभिनेत्री नादिरा हमेशा याद किया करती थीं कि उनके पिता कैसे सुरैया को देखने और उनका केवल यही गाना सुनने के लिए थियेटर जाया करते थे और गाना खत्म होते ही थियेटर से बाहर निकल आते थे।
 
 
सहगल , धर्मेन्द्र भी हो गए थे दीवाने
सुरैया की आवाज में एक कशिश थी जिसे जो कोई भी सुनता उनका दीवाना हो जाता था। उनकी मादक आवाज के स्वयं सहगल भी दीवाने थे। एक बार उन्होंने सुरैया को एक रिहर्सल के दौरान सुना और फौरन ही निर्माताओं से सिफारिश कर दी कि उनकी अगली फिल्म  तदबीर  (1945) में सुरैया को ही नायिका बनाया जाए।  इस  जोड़ी को लोगों ने पसंद किया और सुरैया को सहगल के साथ दो और फिल्में मिल गईं- उमर खय्याम  (1946) और  परवाना (1947)। इसके बाद के दो साल भी सुरैया के कॅरिअर के लिए सफल साबित हुए। इन दो बरसों में सुरैया ने तीन हिट फिल्में दीं-  प्यार की जीत , बड़ी बहन और  दिल्लगी । इन फिल्मों की सफलता ने सुरैया को उस जमाने की सबसे महंगी नायिका बना दिया था।  फिल्म दिल्लगी  में सुरैया को देखकर धर्मेन्द्र तो उनके दीवाने ही हो गए थे। वे आज भी याद करते हैं कि कैसे सुरैया की यह फिल्म देखने के लिए वे मीलों चलकर थियेटर पहुंचे थे और उन्हें यह फिल्म इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने चालीस बार यह फिल्म देख डाली थी, लेकिन उसके बाद भी उनका मन नहीं भरा था। 
सुरैया के अभिनय और पुरनूर आवाज ने लोगों पर ऐसा जादू बिखेरा कि उनकी एक झलक पाने के लिए उनके घर के सामने लोगों की रोजाना भीड़ लगी रहती थी।  गाने की विधिवत तालीम भले ही सुरैया ने नहीं ली , लेकिन वे घर पर रियाज जरूर किया करती थीं।  उनकी सुमधुर खनकती हुई आवाज जब राह चलते लोगों तक पहुंचती थीं तो उनके पैर बरबस ठिठक जाते थे। 
प्यार की जीत में संगीतकार हुश्नलाल भगतराम के संगीत में सुरैया ने कई हिट गाने गाए- वो पास रहे या दूर रहे , ओ दूर जाने वाले  । नौशाद ने फिल्म  दिल्लगी में जहां सुरैया की आवाज का गजब इस्तेमाल किया है- मुरली वाले मुरली बजा  वाले गीत में । वहीं , सचिन देव बर्मन ने भी सुरैया को  फिल्म अफसर में शास्त्रीय राग पर आधारित गाना गवाया-  मनमोर हुआ मतवाला , किसने जादू डाला रे.. ।  यह गीत सुनकर लगता ही नहीं कि यह ऐसी गायिका ने गाया है, जिसे शास्त्रीय संगीत का कोई ज्ञान नहीं है।
 
 
देवआनंद - सुरैया की प्रेम कहानी का दुखद अंत
1950 में सुरैया ने अपने बचपन के मित्र राजकपूर के साथ भी एक फिल्म की जिसका नाम था-  दास्तान । सुरैया ने सबसे ज्यादा देवआनंद के साथ छह फिल्में की  विद्या  (1948), जीत  (1949 ),  शायर  (1949 ), अफसर (1950), नीली (1950) और  दो सितारे (1951)। हालांकि कोई भी फिल्म खास सफलता प्राप्त नहीं कर पाई, लेकिन दोनों की जोड़ी चर्चित जरूर रही। सुरैया और देवसाहब की जोड़ी लेकिन वास्तविक जीवन में एक रिश्ते में बदलने से पहले ही टूट गई। कहते हैं सुरैया की नानी बादशाह बेगम चाहती थीं कि देवआनंद धर्म बदल लें। और देव साहब चाहते थे कि शादी के बाद सुरैया फिल्में न करें। बादशाह बेगम को समझौता गवारा न था और आखिरकार एक दिन उन्होंने सुरैया की दी हुई देवआनंद की अंगूठी को समुद्र में फेंक दिया।  इस तरह सुरैया और देवआनंद की प्रेम कहानी का दुखद अंत हो गया। देवआनंद ने तो कल्पना कार्तिक से विवाह कर लिया पर सुरैया ने जीवन के अंतिम दिनों तक अकेलेपन को ही अपना साथी बनाए रखा।
राष्ट्रपति पुरस्कार हासिल किया
सुरैया ने 1950 में बनी फिल्म  मिर्जा गालिब  ने लिए राष्ट्रïपति पुरस्कार हासिल किया। जब तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान कर रहे थे, तब उनके सुरैया के लिए यही शब्द थे-  तुमने  मिर्जा गालिब की रूह को जिंदा कर दिया। 
 
 
मुकेश की भी नायिका बनी
सुरैया ने जहां गायक तलत महमूद के साथ भी नायिका के बतौर  वारिस (1954) फिल्म की । वहीं उन्हें एक और गायक मुकेश की नायिका भी बनने का मौका मिला फिल्म माशूका (1953) में । लेकिन इसके बाद वे एक प्रकार से फिल्मों से अलग सी हो गईं। 1963 में बनी फिल्म रुस्तम सोहराब के बाद सुरैया ने रुपहले पर्दे को हमेशा के लिए विदा कह दिया।  सुरैया को भड़कीली पोशाकों और भारी गहनों का बहुत शौक था। जीवन के अंतिम दिनों तक उनका यह शौक बराबर बना रहा।
 
 

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