गायिका उमा देवी को ऐसे मिला टुनटुन नाम....
जन्मदिन पर विशेष
फिल्मी परदे पर सबको हंसाने वाली प्यारी टुनटुन (जन्म11 जुलाई 1923 - निधन 23 नवम्बर 2003) की आज बर्थ एनिवर्सिरी है। वे लोगों के दिलों में ऐसे छाई कि आज भी यदि कोई मोटी महिला दिख जाती है, तो लोग मजाक में उसे टुनटुन कह देते हैं। टुनटुन ने अपना कॅरिअर पाश्र्वगायिका के रूप में अपने मूल नाम उमा देवी खत्री से शुरू किया था। अफसाना लिख रही रही हूं... गीत उन्होंने ही गाया है।
नूरजहां के प्रति दीवानगी और गायिकी के जुनून ने उन्हें मथुरा से मुंबई पहुंचाया। चाचा के घर में पली-बढ़ी उमा देवी की हैसियत परिवार में एक नौकर के समान थी। घरेलू काम के सिलसिले में उमादेवी का दिल्ली के दरियागंज इलाके में रहने वाले एक रिश्तेदार के घर अक्सर आना-जाना लगा रहता था। वहीं उनकी मुलाक़ात अख्तर अब्बास क़ाज़ी से हुई, जो दिल्ली में आबकारी विभाग में निरीक्षक थे। काज़ी साहब उमा देवी का सहारा बने, लेकिन वे लाहौर चले गए।
इस बीच उमा देवी ने भी गायिका बनने का ख्वाब पूरा करने के लिए मुंबई जाने की योजना बना ली। दिल्ली में जॉब करने वाली उनकी एक सहेली की मुंबई में फि़ल्म इंडस्ट्रीज के कुछ लोगों से पहचान थी। एक बार जब वो गांव आई, तो उसने उमा देवी को निर्देशक नितिन बोस के सहायक जव्वाद हुसैन का पता दिया। वर्ष 1946 था और उमादेवी 23 बरस की थी। वे किसी तरह हिम्मत जुटाकर गांव से भागकर मुंबई आ गई। जव्वाद हुसैन ने उन्हें अपने घर पनाह दी। मुंबई में उमा देवी की दोस्ती अभिनेता और निर्देशक अरूण आहूजा और उनकी पत्नी गायिका निर्मला देवी से हुई, जो मशहूर अभिनेता गोविंदा के माता-पिता थे। इस दंपत्ति ने उमा देवी का परिचय कई प्रोड्यूसर और डायरेक्टर से करवाया। उस समय तक अख्तर अब्बास काज़ी साहब भी मुंबई आ गए थे। 1947 में उमा देवी और काज़ी साहब ने शादी कर ली।
उसके बाद उमा देवी काम की तलाश करने लगी। उन्हें कहीं से पता चला कि डायरेक्टर अब्दुल रशीद करदार फि़ल्म दर्द बना रहे हैं. वे उनके स्टूडियो पहुंचकर उनके सामने खड़े हो गई। उन्होंने पहले कभी करदार साहब को नहीं देखा था। बेबाक तो वो बचपन से ही थी, उनसे ही सीधे पूछ बैठी, करदार साहब कहां मिलेंगे? मुझे उनकी फि़ल्म में गाना गाना है। शायद उनका ये बेबाक अंदाज़ करदार साहब को पसंद आ गया, इसलिए बिना देर किये उन्होंने संगीतकार नौशाद के सहायक गुलाम मोहम्मद को बुलाकर उमा देवी का टेस्ट लेने को कह दिया। उस टेस्ट में उमादेवी ने फिल्म जीनत में नूरजहां द्वारा गाया गीत आँधियां गम की यूं चली गाया। हालांकि उमा देवी एक प्रशिक्षित गायिका नहीं थी, लेकिन रेडियो पर गाने सुनकर और उन्हें दोहराकर वे अच्छा गाने लगी थी। बरहलाल, उनका गया गाना सबको पसंद आया और वो 500 रुपये की पगार पर नौकरी पर रख ली गई।
जब उमा देवी की मुलाक़ात नौशाद से हुई, तो उनसे भी बेबकीपूर्ण अंदाज़ में उन्होंने कह दिया कि उन्हें अपनी फि़ल्म में गाना गाने का मौका दें, नहीं तो वे उनके घर के सामने समुद्र में डूबकर अपनी जान दे देंगी। नौशाद साहब भी उनकी बेबाकी पर हैरान थे। खैर, उन्होंने उमा देवी को गाने मौका दिया और दर्द फिल्म का गीत अफ़साना लिख रही हूं ...उनसे गवाया। यह गीत बहुत हिट हुआ और आज तक लोगों की ज़ेहन में बसा हुआ है। उस फि़ल्म के अन्य गीत आज मची है धूम, ये कौन चला, बेताब है दिल .. भी लोगों को बहुत पसंद आये।
फिर क्या था , उमा देवी की गायिका के रूप में गाड़ी चल पड़ी। कई फि़ल्मी गीतों को उन्होंने अपनी सुरीली आवाज़ से सजाया। 1947 में ही बनी फि़ल्म नाटक में उन्हें गाने का मौका मिला और उन्होंने गीत दिलवाले जल कर मर ही जाना गाया। फिर 1948 की फि़ल्म अनोखी अदा में दो सोलो गीत काहे जिया डोले हो कहा नहीं जाए, दिल को लगा के हमने कुछ भी न पाया और फि़ल्म चांदनी रात में शीर्षक गीत'चांदनी रात है, हाय क्या बात है, में भी उन्होंने अपनी आवाज़ दी। उमादेवी को गाने के मौके मिलते रहे और वो गाती रहीं। उन्होंने कई फि़ल्मों में गाने गए। उनके द्वारा गाये गए गीत लगभग 45 के आस-पास हैं।
बच्चों के जन्म के साथ उनकी पारिवारिक जि़म्मेदारियां बढ़ रही थी। साथ ही लता मंगेशकर , आशा भोंसले जैसी संगीत की विधिवत् शिक्षा प्राप्त गायिकाओं का भी बॉलीवुड फि़ल्म इंडस्ट्रीज में पदार्पण हो चुका था। उमादेवी ने गायन का प्रशिक्षण नहीं लिया था। इसलिए धीरे-धीरे उनका गायन का काम सिमटता गया और एक दिन वह अपना गायन करिअर छोड़कर पूरी तरह अपने परिवार में रम गई। परिवार चलाना मुश्किल हुआ तो उमादेवी ने फिर से फि़ल्मों में काम करने का मन बनाया।
वे अपने गुरू नौशाद साहब से मिली। उमादेवी फिर से फि़ल्मों में गाना चाहती थीं, लेकिन समय आगे निकल चुका था। स्थिति को देखते हुए नौशाद साहब ने उन्हें कहा, तुम अभिनय में हाथ क्यों नहीं आजमाती? उमादेवी ने अपने बेबाक अंदाज़ में उन्होंने कह दिया, मैं एक्टिंग करूंगी, लेकिन दिलीप कुमार के साथ। दिलीप कुमार उस समय के सुपरस्टार थे। इसलिए उमादेवी की बात सुनकर नौशाद साहब हंस पड़े, लेकिन इसे किस्मत ही कहा जाए कि अपने अभिनय करिअर की शुरूआत उमादेवी ने दिलीप कुमार के साथ ही की। फिल्म थी - बाबुल जिसमें हिरोइन थीं - नर्गिस। उस वक्त उमा देवी का वजन काफी बढ़ गया था। दिलीप कुमार ने ही मोटी उमा को देखकर टुनटुन नाम दिया और यह नाम हमेशा के लिए उनके साथ जुड़ गया। फि़ल्म रिलीज़ हुई और छोटे से रोल में भी उनका अभिनय काफ़ी सराहा गय। उसके बाद आई मशहूर निर्माता-निर्देशक और अभिनेता गुरु दत्त की फि़ल्म मिस्टर एंड मिस 55 में उन्होंने अपने अभिनय के वे जौहर दिखाए कि हर कोई उनका कायल हो गया.
बाद में टुनटुन की ख्याति इतनी बढ़ गई थी कि फि़ल्मकार उनके लिए अपनी फि़ल्म में विशेष रूप से रोल लिखवाया करते थे और टुनटुन भी हर रोल को अपने शानदार अभिनय से यादगार बना देती थीं। 70 के दशक के बाद उन्होंने फि़ल्मों में काम करना कम कर दिया और अधिकांश समय अपने परिवार के साथ गुजारने लगी। उनकी अंतिम फिल्म 1990 में आई कसम धंधे की थी। 24 नवंबर 2003 में उन्होंने इस दुनिया से विदा ली, लेकिन आज भी वे हिन्दी फिल्मों की पहली और सबसे सफ़ल महिला कॉमेडियन के रूप में याद की जाती हैं।
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