ऐ दिल है मुश्किल जीना यहां.... जॉनी वाकर जो हमेशा रहा प्यासा
- 29 जुलाई पुण्यतिथि पर विशेष
- आलेख -मंजूषा शर्मा
हिंदी फिल्मों में जब भी अच्छे कॉमेडियन की बात चलती है तो उनमें जॉनी वॉकर का नाम प्रमुखता से शामिल किया जाता है। उनको इस दुनिया से विदा हुए 17 साल हो गए हैं, लेकिन अपनी फिल्मों के जरिए वे आज भी हमें हंसाते और गुदगुदाते रहते हैं।
जॉनी वाकर वास्तव में हिंदी फिल्म जगत के हास्य सम्राट थे। जॉनी को फिल्म में लाने का श्रेय बलराज साहनी को जाता है। जब वे फिल्म बाजी की कहानी लिख रहे थे, तब एक ऐसे हास्य कलाकार की जरूरत महसूस हुई, जो एक विशेष चरित्र में पटकथा के साथ सही मायनों में न्याय कर सके। एक दिन उनकी नजर एक बस कंडक्टर बदरुद्दीन पर पड़ी, जो यात्रियों को हंसाने में लगा था। बस फिर क्या था, वे उसे लेकर गुरु दत्त के पास पहुंचे। गुरु दत्त ने उन्हें तुरंत अपनी फिल्म के लिए फाइनल कर लिया। बाजी फिल्म से ही गुरुदत्त और जॉनी वाकर की जोड़ी हिट हुई थी और दोनों ने इस दोस्ती को आखिरी दम तक बनाए रखा। जॉनी कहा करते थे कि अगर गुरु दत्त नहीं होते, तो मैं बस कंडक्टर ही रह जाता।
जॉनी वाकर का जन्म 1925 में इंदौर में हुआ था और उनका वास्तविक पूरा नाम बदरुद्दीन काजी था। वे 1942 में इंदौर से मुंबई आ गए थे और बतौर बस कंडक्टर काम करने लगे। हिंदी फिल्म उद्योग में बाजी फिल्म से स्थापित होने के बाद उन्होंने मधुमती, प्यासा, नया दौर, सीआईडी और मेरे महबूब में अपने अभिनय का लोहा मनवाया था। उन्हें फिल्म शिकार के लिए 1968 में फिल्मफेयर का बेस्ट कॉमेडियन अवार्ड भी मिला था। उनकी अभिनय क्षमता के सभी कायल थे और उस समय के निर्माताओं और निर्देशकों में उन्हें अपनी फिल्म में लेने की जैसे होड़ मची रहती थी। जॉनी वाकर की सफलता और लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्हें फिल्म में लेने के लिए विशेष तौर पर उन पर फिल्माए जाने वाले गीत बनाए जाते थे। उन पर फिल्माए गए वे दो गीत- सर जो मेरा चकराए या दिल डूबा जाए और ये है मुंबई मेरी जान आज भी लोगों की जुबान पर है।
जॉनी वाकर के आदर्श थे चार्ली चैपलिन और नूर मोहम्मद। वे हास्य में अश्लीलता लाने के विरोधी थे और दूसरे संप्रदाय के लोगों की भावनाओं को आहत कर वे हास्य पैदा करने के खिलाफ थे। वे कहते थे कि ये सब लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने वाली ओछी हरकते हैं। असली कॉमेडी तो कठिन परिश्रम से ही आती है। फिल्मों से दूर होने के बाद वे 14 साल के अंतराल के बाद कमल हासन की फिल्म चाची-420 में एक ऐसे मेकअप आर्टिस्ट के रूप में नजर आए थे, जो युवा नायक को उम्र का पांचवा दशक पार कर चुकी महिला बनाता है।
खलती थी अच्छे कॉमेडियन की कमी
जॉनी वाकर को ओशीवाड़ा स्थित अपने घर के गार्डन से बहुत प्यार था। खासकर खुद के द्वारा लगाए गए जैतून और आम के पेड़ों से उन्हें बहुत लगाव था। जीवन के अंतिम दिनों में सफेद कुर्ता-पैजामा पहनने वाले जॉनी वाकर इन पेड़ों की सेवा में लगे रहते थे। इसके अलावा उन्हें एक और चिंता सताती रहती थी। वह चिंता थी बॉलीवुड के प्रतिभाविहीन होने की। बदरुद्दीन काजी उर्फ जॉनी वाकर से किसी भी व्यक्ति को मिलने का मौका मिलता, तो निश्चित रूप से वह व्यक्ति मजाक, चुटकुले और ठहाकों के लिए तैयार हो जाता, लेकिन वास्तविक जीवन में जॉनी साहब बहुत संजीदा थे। जॉनी साहब को यह सवाल अक्सर परेशान करता था कि अब बॉलीवुड में पहले की तरह कॉमेडियन पैदा क्यों नहीं होते। फिल्म इंडस्ट्री में कॉमेडियन की कमी के बारे में जब भी उनसे सवाल किया जाता, वे रोष से भर जाते थे। पलटकर पूछते थे, बताइए असली कॉमेडियन अब हंै कहां? यदि वे वास्तविक कलाकार हैं, तो उन्हें अपने आपको जिंदा रखना चाहिए, अपने दम पर अपना अस्तित्व और नाम बचाए रखने की ताकत विकसित करनी चाहिए।
कुछ बातें कुछ यादें
जॉनी वाकर फिल्मों में काम करते-करते एकाएक फिल्मों से दूर हो गए थे, मगर लंबे अरसे बाद उन्हें कमल हसन निर्देशित चाची-420 में देखा गया था। फिल्म के प्रदर्शन के पहले उन्होंने एक पत्रिका को इंटरव्यू दिया था, पेश है उसके कुछ अंश-
उनके मुताबिक मैं अपने समय में सभी फिल्में साइन नहीं करता था, बल्कि जिस भूमिका में मुझे अपनापन दिखता था, मैं उसे झट से साइन कर लेता था। हमारे समय में फिल्मों में काम करना आसान नहीं था। माहौल आज की तरह नहीं था, बल्कि बहुत मेहनत करनी होती थी। यदि आपका रोल सिर्फ दो दिनों के लिए है, तो पांच दिनों के लिए साइन किया जाता था और पांचों दिन मैकअप करके सेट पर बैठे रहना होता था। फिल्मों से एकाएक दूर होने के बारे में उन्होंने बताया- एक तो फिल्मों में अश्लीलता आ गई है। दूसरा मैं अपने परिवार से दूर होता जा रहा था। एक बार तो हद हो गई जब मैं शूटिंग से लौटा तो बच्चों ने पहचानने से इनकार कर दिया। तब अहसास हुआ कि फिल्मों ने मुझे परिवार से दूर कर दिया है। फिर क्या था फिल्मों से मैंने अपना किट पैक किया और फिल्मों को टाटा-बाय-बाय कह कर घर में सुकून की जिंदगी जीने का फैसला किया। फिल्मों के चक्कर में मैंने अपने बच्चों को बड़े होते नहीं देखा, मगर अब अपने नाती-पोती को बड़ा होते देखने का मोह नहीं छोड़ सकता। उन्होंने बताया कि युवावस्था में पैसा कमाने के अलावा उनका और कोई सपना नहीं था। जॉनी वाकर के अनुसार फिल्मों में मसखरे और चालबाज जैसे काम करते-करते लोग उन्हें चाचा 420 कहने लगे थे। उनके मुताबिक उन्हें दोस्तों के बीच हंसी मजाक पसंद था और फुर्सत के समय में बीते दिनों को याद करना उनका शौक था। उनके प्रिय गीतों में राजकपूर द्वारा निर्देशित फिल्म मेरा नाम जोकर का गाना जीना यहां मरना यहां.. सबसे पसंदीदा था।
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