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मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे...

 गुलजार- जन्मदिन विशेष 

आलेख-मंजूषा शर्मा
जाने-माने शायर, गीतकार, लेखक और निर्देशक गुलजार साहब का आज जन्मदिन है। आज भी समझ नहीं आता कि वे ऐसे-ऐसे शब्द कहां से उठा लाते हैं और इतने सलीके से उसे गीतों के रूप में खूबसूरत मोतियों की माला तरह पिरो देते हैं, कि सुनने वाला बस सुनता ही रह जाता है। उनके गाने सुनो तो लगता है जैसे शब्द किसी झरने से झर रहे हैं बिना किसी अतिरिक्त शोर के अविरल। बस आप उसकी प्राकृतिक आवाज को सुनते रहिए , आवाज दिल तक ही उतरेगी। गुलजार साहब पुराने जमाने को याद करते हुए लिखते हैं- उस वक्त तस्वीरें दिल से बनती थी, कैमरों से नहीं। 
यू ट्यूब पर उनकी शायरी उन्हीं की आवाज में सुनी,  खासकर जगजीत सिंह के साथ उनकी जुगलबंदी , लगा ही नहीं, कि कोई शायर या गीतकार अपनी रचनाएं पढ़ रहा है, बल्कि ऐसे लगा  जैसे कोई हमारी देखी सुनी कहानी ही सुना रहा है । उन्हें सुनने वाला नि:शब्द  डूबता चला जाता है, आंखों के सामने तब गुलजार साहब नहीं, बल्कि एक जीती जागती तस्वीर किसी फिल्म की तरह सेल्युलाइट पर चलने लगती है। यह उनके शब्दों, आवाज के माड्यूलेशन और सहजता का जादू ही है। 
सफ़ेद पैरहन के भीतर धड़कता एक शायर दिल जिसकी ज़ुबान में शीरे की महक आती हैं। जो नज़्मों की ऊंगलियां पकड़ कभी बादलों पर सैर करता है तो कभी गज़़लों के साथ दिल बहलाने के लिए चांद-तारों को निहारता है। एक लेख़क जिसकी कलम शब्दों के साथ ऐसे ख़ेलती है कि देखने और पढऩे वाले दोनों का दिल बहल जाए। जो हिन्दी की किताबों में उर्दू की जिल्द चढ़ाते हैं वो ग़ुलज़ार हैं।  
 जायकेदार हवा, मासूम पानी, गुनगुनाती निगाहें, रंगीली सांसें... चांद, तारे, आकाश, नदियों और इंसानी अहसास, दिल का पड़ोसी होना, और कभी दिल की तरह बीड़ी जलाइले, जैसे शब्द वे ही गढ़ सकते हैं। वे बच्चों के लिए लिखते समय चड्डी पहनकर फूल भी खिला सकते हैं । कहते हैं कि किसी  शायर के मन की थाह लेना वैसे भी मुश्किल है , लेकिन     गुलजार के शब्दों और आवाज की गहराई का भी कोई सिरा ही नहीं नजर आता है। आप कितनी भी कोशिश करें उनके शब्दों के जादू से दूर नहीं भाग सकते।  शायर, लेखक, निर्देशक गुलजार ने करीब छह दशकों के अपने कॅरिअर में कविता, गीत, शेर, टीवी सीरियल, फिल्में समेत उर्दू और हिंदी साहित्य की कई विधाओं के लिए कलम चला रहे हैं। 
उर्दू के प्रति उनका प्रेम आज भी उनके हिन्दी गीतों में झलकता है। बहुत कम लोगों को मालूम है कि वे आज भी गीतों  को उर्दू  शब्दावली में ही लिखना पसंद करते हैं, फिर उसे हिन्दी में लिखा जाता है। 
आज 86 साल की उम्र में भी उनका रिश्ता लेखनी के साथ पूरे दम खम के साथ जारी है और हर गुजरते वक्त के साथ नए -नए मोती गढ़ रहा है। गंभीर अहसास और रूमानियत भरे गीतों के साथ ही कजरारे कजरारे और बीड़ी जलइले जैसे गीत भी उनकी कलम ने लिखे हैं।   हिंदी फिल्मों के वो अकेले शायर हैं जिनके हिस्से में भारत के सारे बड़े फिल्मी पुरस्कारों के अलावा अंतरराष्ट्रीय जगत का ऑस्कर और ग्रैमी पुरस्कार भी हासिल है। पद्म भूषण दादा साहेब फाल्के जैसे सम्मान के भी वे हकदार बने हैं। 
उन्होंने जाने-माने डायरेक्टर बिमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी के सहायक के रूप में अपना कॅरिअर शुरु किया था। शायद इसीलिए उनमें सहजता के साथ अपनी बात कहने वाला अंदाज और परपिक्व होता गया।  बिमल रॉय ने उनकी किताब रावी पार पढ़ी और उन्होंने अपनी फिल्म बंदिनी में गीत लिखने के लिए कहा। गुलजार साहब ने लिखा- मोरा गोरा अंग लइ ले, मोहे शाम रंग देइ दे, छुप जाऊंगी रात ही में , मोहे पी का रंग दइदे।  सचिन देव बर्मन ने इस गाने को बहुत ही खूबसूरती के साथ सुरों में ढाला।  लता मंगेशकर की प्यारी आवाज और ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों का जादू, नूतन की सहजता, गाने को और भी खूबसूरती बना गई। यह सबसे हिट गाना साबित हुआ।  हालांकि फिल्म के गाने उस दौर के मशहूर गीतकार शैलेन्द्र लिख रहे थे। उन्होंने भी गुलजार को गाने लिखने के लिए प्रोत्साहित किया।  इस गाने ने लता मंगेशकर और सचिन देव बर्मन के बीच का झगड़ा भी खत्म कराया था। गुलजार साहब के 74 वें जन्मदिन पर लता मंगेशकर ने इस वाकये को याद किया था। 
लता ने बताया बर्मन दादा के साथ मेरा झगड़ा चल रहा था। इस बीच एक दिन उनका फ़ोन आया कि एक नया लड़का आया है उसने फि़ल्म  बंदिनी के लिए ये गाना लिखा है मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे।  मुझे ये गाना इतना पसंद आया कि मैं गाने के लिए मान गई। यही गाना गुलज़ार के फि़ल्मी कॅरिअर का पहला गाना था। 
 
 
  लता मंगेशकर के मुताबिक गुलज़ार की शायरी बाकी शायरों से बिलकुल अलग होती है। उनके सोचने का ढंग बिलकुल जुदा होता है। वो कहती हैं  कई बार मैं उनसे पूछती कि आपने ये शब्द क्यों लिखा है या ये लाइन क्यों लिखी है, तो वो सिफऱ् हंस देते और कहते मुझे अच्छा लगा तो मैंने लिख दिया। वो उसकी कोई वजह नहीं बताते। उन्हें जो अच्छा लगता है वो वही लिखते हैं।  गुलज़ार के लिखे लता के पसंदीदा गाने हैं -नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जाएगा, यारा सीली-सीली और पानी-पानी रे। वो कहती हैं  मैं भगवान की शुक्रगुज़ार हूं कि मुझे गुलज़ार के लिखे ढेर सारे गाने गाने का मौका मिला।  उन्होंने आरडी बर्मन से लेकर विशाल भारद्वाज और आज की पीढ़ी के संगीतकारों के लिए भी  गाने लिखे और खूब लिखे। 
गोरा गोरा अंग लई ले ....गाना लोकप्रिय हुआ था और इसके लिए गुलजार को प्रशंसा भी मिली, लेकिन उस दौर में गुलजार फिल्मों में गाने लिखने के लिए उत्सुक नहीं थे। गुलजार साहब ने खुद एक साक्षात्कार में बताया था कि जब उन्होंने अपने कॅरिअर का पहला फि़ल्मी गीत  मोरा गोरा अंग लई ले.. लिखा तो वो फि़ल्मों के लिए गाने लिखने को लेकर बहुत ज़्यादा उत्सुक नहीं थे, लेकिन फिर एक के बाद एक गाने लिखने का मौका मिलता गया और वो गाने लिखते चले गए।
गुलजार जाने-माने शायर गालिब के मुरीद रहे हैं। इसलिए शेरो शायरी के प्रति उनका झुकाव शुरू से रहा है। गालिब के लिए उनके मन में इतनी इज्जत है कि वो खुद को गालिब का एक नौकर ही मानते हैं। वो गालिब से इतने प्रभावित थे कि उनकी जिंदगी पर एक फिल्म बनाना चाहते थे। इस फिल्म में पहले वो संजीव कुमार को लेना चाहते थे। लेकिन किसी ना किसी वजह से ये प्रोजेक्ट टलता गया और आखिर में इस प्रोजेक्ट में गालिब बनने का मौका नसीरुद्दीन शाह को मिला। वो तब तक जमाना था जब दूरदर्शन बढ़ रहा था। ज्यादा से ज्यादा दर्शकों तक पहुंचने के लिए फिल्म मेकर्स दूरदर्शन की तरफ बढऩे लगे थे। ऐसे में गुलजार ने भी अपने इस ड्रीम प्रोजेक्ट के लिए दूरदर्शन को चुना और फिल्म की जगह एक टीवी सीरियल की शुरुआत की। इस वक्त तक नसीर इंडस्ट्री में अच्छी पहचान बना चुके थे। इस रोल के लिए गुलजार ने नसीर को चुना था। इसके साथ ही गुलजार और नसीर दोनों का एक पुराना सपना सच हुआ। जब पहले गुलजार ने गालिब के रोल के लिए संजीव को चुना था तो नसीर ने उनके इस फैसले पर सवाल उठाते हुए एक  चिट्ठी लिखी थी। वो चिट्ठी तो गुलजार साहब तक नहीं पहुंची थी। लेकिन कुदरती कुछ ऐसे हालात बनते गए कि यह फिल्म एक सीरियल के रूप में सामने आई।  नसीर को उनका पसंदीदा कैरेक्टर मिला और गुलजार के लिए उनका सपना सच हो गया था। गालिब की गक़ालों को जगजीत सिंह और चित्रा सिंह ने आवाज दी। 
गालिब के प्रति गुलजार साहब की दीवानगी उनके लिखे गानों में नजर आ ही जाती है। जैसे कि गालिब ने लिखा...  दिल ढूंढ़ता है फिर वही फुर्सत के रात-दिन,  बैठे रहें तसव्वर-ए-जानां किए हुए
 इसी शेर पर गुलज़ार ने यह नज़्म लिखी जिसे फिल्म मौसम में शामिल किया गया। 
दिल ढूँढ़ता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिन
 बैठे रहें तसव्वर-ए-जानां किए हुए

जाड़ों की नर्म धूप और आँगन में लेट कर
आँखों पे खींचकर तेरे आँचल के साये को
औंधे पड़े रहें, कभी करवट लिये हुए ..

या गर्मियों की रात जो पुरवाइयाँ चलें
ठंडे सफ़ेद बिस्तर पर जागें देर तक
तारों को देखते रहें छत पर पड़े हुए

बफऱ्ीली सर्दियों में किसी रात में कभी
वादी में गूँजती हुई ख़ामोशियाँ सुनें
आँखों में भीगे भीगे से लम्हे लिये हुए
दिल ढूँढ़ता है फिर वही फ़ुरसत के रात दिन
इस गाने को मदनमोहन साहब ने ऐसे सुरों में ढाला कि 45 साल के बाद भी इसकी रुमानियत दिल धड़का जाती है। जाते-जाते गुलजार साहब की रिश्तों के ताने-बाने पर लिखी एक प्यारी की नज्म, तो मुझे बहुत पसंद है-
 मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआ
फिर से बाँध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो
तेरे इस ताने में लेकिन
इक भी गाँठ गिरह बुनतर की
देख नहीं सकता है कोई
मैंने तो इक बार बुना था एक ही रिश्ता
लेकिन उसकी सारी गिरहें
साफ़ नजऱ आती हैं मेरे यार जुलाहे

 

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