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प्रकृति की बराबरी नहीं कर सकतीं मानव विकसित सर्वोत्तम प्रौद्योगिकियां: डा. सोनकर

नयी दिल्ली/ समुद्री जीवविज्ञानी और पद्मश्री से सम्मानित डा. अजय कुमार सोनकर का कहना है कि मानव द्वारा विकसित सर्वोत्तम प्रौद्योगिकियां भी प्रकृति की बराबरी नहीं कर सकतीं। उनके प्रयोगों से पता चलता है कि वैज्ञानिक रूप से उन्नत, लेकिन नियंत्रित वातावरण में उगाए गए सीपों को, प्राकृतिक वातावरण में उगाए गए सीपों की तुलना में जीवित रहने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
डॉ. सोनकर ने इस शोध के दौरान दो समूहों में समुद्री मोती उत्पादक सीपों को प्रयोगशाला में दो प्रकार के वातावरण में पाल कर यह सिद्ध कर दिखाया कि जब एक समूह को अत्याधुनिक मानव निर्मित तकनीकों से सुसज्जित किया गया और दूसरे को केवल समुद्र की प्राकृतिक गोद का वातावरण दिया गया-तो इसमें जीत प्रकृति की हुई। उन्होंने बताया कि सीपों की दो प्रजातियों: ‘पिंकटाडा मार्गेरिटीफेरा' और ‘टीरिया पेंग्विन' को अंडमान द्वीपों से लिया गया था। समुद्री जीवविज्ञानी ने मत्स्य पालन पत्रिका 'इन्फोफिश इंटरनेशनल' के मई अंक में प्रकाशित एक लेख में बताया कि एक समूह को नियंत्रित, कृत्रिम वातावरण में - वैज्ञानिक प्रौद्योगिकियों का उपयोग करके विकसित किया गया - तथा दूसरे समूह को प्राकृतिक समुद्री वातावरण में पाला गया। पहले समूह का वातावरण पूरी तरह से नियंत्रित वातावरण था जिसमें सटीक बायोफिल्ट्रेशन, यांत्रिक जल प्रवाह, वालन माध्यम में उगाई गई माइक्रोएल्गी (सीप का भोजन), नियंत्रित क्षारीय तत्वों की उपलब्धता और नियंत्रित तापमान तथा सीमित सूक्ष्मजीव संपर्क जैसे वातावरण को सृजित किया गया। दूसरे समूह को एक प्रारंभिक सर्जरी के उपरांत देखभाल के बाद, पूरी तरह से प्राकृतिक समुद्री लय के हवाले कर दिया गया। इस टैंक में गहराई से लिया गया अपरिष्कृत समुद्री जल निरंतर प्रवाहित किया गया। न कोई कृत्रिम फ़िल्टर, न कोई रासायनिक पोषण था। यहां केवल प्रकृति थी, जैसी वह है। पद्मश्री पुरस्कार विजेता डा. सोनकर ने बताया कि नतीजे चौंकाने वाले थे। उन्होंने पाया कि जहाँ सर्वोत्तम वैज्ञानिक देखरेख दी गई, उसमें केवल 55 प्रतिशत जीवित रहने की दर दर्ज की गई, और तैयार मोतियों में से अधिकतर विकृत, धब्बेदार और कमजोर संरचना वाले थे। वहीं प्राकृतिक समुद्र की जटिल पारिस्थितिकी में विकसित हुए सीपों का दूसरा समूह उस वातावरण में मोतियों की संरचना कर रहा था, जहाँ मूल निवासी सूक्ष्मजीव और लाभकारी फेज़ (बैक्टेरियोफेज)विद्यमान थे, उसमें 98 प्रतिशत जीवन प्रत्याशा और 119 मोती प्राप्त हुए। इनमें से लगभग 60 प्रतिशत मोती उच्चतम गुणवत्ता के थे। डॉ. सोनकर ने स्पष्ट किया कि यह मात्र परिणामों का अंतर नहीं था, यह एक विचारशील उद्घाटन था। उन्होंने इसके बारे में एक ही टिप्पणी की, “कोई प्रयोगशाला, कोई कृत्रिम वातावरण, चाहे वह कितना भी उन्नत क्यों न हो, प्रकृति की समग्र बुद्धिमत्ता की बराबरी नहीं कर सकता।” सूक्ष्मजीवों और कोशकीय जीवविज्ञान के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डा. अजय कुमार सोनकर ने कहा कि प्राकृतिक समुद्र ने एक स्व-संतुलित, रोग-प्रतिरोधक और जैविक रूप से बुद्धिमान पारिस्थितिकी प्रदान की जिसमें सूक्ष्मजीव विविधता, जीवंत शैवाल और सूक्ष्म भौतिक-रासायनिक संतुलन शामिल था। उन्होंने कहा, “जहाँ हमने फ़िल्टर किया, वहाँ प्रकृति ने विविधता जोड़ी। जहाँ हमने नियंत्रित किया, वहाँ प्रकृति ने अनुकूलित व्यवहार किया। जहाँ हमने सब कुछ साफ किया, वहाँ प्रकृति ने प्रतिरक्षा शक्ति बढ़ाई।” 58 वर्षीय वैज्ञानिक सोनकर ने बताया कि प्राकृतिक समुद्री जल ने एक स्व-नियमन, प्रतिरक्षा-वर्धक और जैविक रूप से बुद्धिमान पारिस्थितिकी तंत्र प्रदान किया, जिसमें सूक्ष्मजीव विविधता, अदृश्य फेज, जीवित फाइटोप्लांकटन और सूक्ष्म जैव-रासायनिक संतुलन शामिल है। सोनकर ने कहा कि प्रयोगों से मिली सीख सिर्फ़ मोती उत्पादन तक ही सीमित नहीं है - ये वैश्विक वैज्ञानिक दृष्टिकोण को ही चुनौती देती है। जीवविज्ञानी ने कहा, "(यह खोज) हमें इस बात पर पुनर्विचार करने पर मजबूर करती है कि हम प्रकृति से कितनी दूर चले गए हैं, चाहे वह मिट्टी रहित कृषि हो, प्राकृतिक संकेतों से कटे शहर हों, या स्वच्छ डिजिटल बुलबुले में पले-बढ़े बच्चे हों।" सोनकर ने 1990-91 में वारंगल स्थित काकतीय विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने अमेरिका के राइस विश्वविद्यालय और हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के अलावा जापान और नीदरलैंड के अन्य संस्थानों से आनुवंशिकी, पोषण और कैंसर सहित वैज्ञानिक क्षेत्रों में ऑनलाइन ज्ञान प्राप्त किया। वह आशा करते हैं कि इस अध्ययन को केवल एक तकनीकी सफलता के रूप में नहीं बल्कि एक "दार्शनिक जागृति" के रूप में देखा जाएगा - जो हमें प्रकृति के अद्वितीय ज्ञान का सम्मान करने की याद दिलाती है, जो आज की सबसे ज़रूरी वैज्ञानिक ज़रूरत है। सोनकर ने कहा, "क्योंकि जब प्रकृति पर कोई बंधन नहीं होता, तो वह अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करती है - और हम सभी से आगे निकल जाती है।

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