आग के पास जाने से जैसे ठंडक मिट जाती है, ऐसे ही श्रीकृष्ण शरण में जाने से उनकी कृपा प्राप्त हो जाती है!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 413
★ भूमिका - आज के अंक में प्रकाशित दोहा तथा उसकी व्याख्या जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित ग्रन्थ 'भक्ति-शतक' से उद्धृत है। इस ग्रन्थ में आचार्यश्री ने 100-दोहों की रचना की है, जिनमें 'भक्ति' तत्व के सभी गूढ़ रहस्यों को बड़ी सरलता से प्रकट किया है। पुनः उनके भावार्थ तथा व्याख्या के द्वारा विषय को और अधिक स्पष्ट किया है, जिसका पठन और मनन करने पर निश्चय ही आत्मिक लाभ प्राप्त होता है। आइये उसी ग्रन्थ के 30-वें दोहे पर विचार करें, जिसमें आचार्यश्री ने यह बताया है कि श्रीकृष्ण स्मरण की महिमा क्या है? किस प्रकार माया के प्रभाव से ग्रस्त और तप्त हृदय श्रीकृष्ण की शरण में जाने से सुखमय हो जाता है...
जिमि हो शीत निवृत्त तिन, जिन ढिग अगिनि सिधार।
तिमि हो कृपा तिनहिं जिन, मन जाये हरि द्वार।।30।।
भावार्थ - जिस प्रकार आग के पास जाने से ठंड चली जाती है, उसी प्रकार जिसका मन श्री कृष्ण की शरण में चला जाता है, उस पर श्री कृष्ण की कृपा हो जाती है।
व्याख्या - कुछ भोले लोग यह आक्षेप करते हैं कि श्री कृष्ण को अकारण कृपालु क्यों कहते हैं, जबकि संसार बना हुआ है कुछ पर कृपा हो चुकी , कुछ पर नहीं हुई। यह समदर्शिता कैसी? इस का उत्तर यह है कि किसी ठंड से ठिठुरते हुये व्यक्ति से अग्नि, बिना कुछ मूल्य लिये केवल पास जाने से गर्मी प्रदान कर देती है। वैसे ही बिना साधना रूपी मूल्य लिये ही मन की शरणागति से श्री कृष्ण कृपा कर देते हैं। जो इस कृपा से दूर रहते हैं। उन पर माया की कृपा होती रहती है। मन जब माया के पास रहेगा तो माया का फल मिलेगा। जब श्री कृष्ण के पास जायगा तो श्री कृष्ण का फल मिलेगा। सीधी सी बात तो है । उपासना शब्द;
उप् + आस् + ल्युच् प्रत्यय
का अर्थ ही है पास जाना। कोई निर्धन केवल धनवान् के पास जाकर धन माँगे तो यह दान कृपा ही तो कहा जायगा। फिर श्री कृष्ण के यहाँ माँगना भी नहीं पड़ता यथा वेदव्यास;
तदप्यप्रार्थितोध्यातो ........।
अर्थात् मन जैसे ही मनमोहन के पास गया, बस - वैसे ही श्री कृष्ण ने उसे प्रेमधन से मालामाल कर दिया।
• सन्दर्भ ::: 'भक्ति-शतक', दोहा संख्या - 30
★★★
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