जगद्गुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी के ब्रज-साहित्यों में गिरिराज गोवर्धन पर्वत की स्तुति..
जगद्गुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 115
आज 'श्री गोवर्धन-पूजा' है। आप सभी सुधि पाठक-जनों को इस महापर्व की बारम्बार शुभकामनायें। समस्त ब्रज-महारसिकों ने अपनी वाणी में, अपने ग्रन्थों में गिरिराज पर्वत अर्थात श्री गोवर्धन की अगनित बार वन्दना की है। रसिक शिरोमणि जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी ने भी अपनी 'प्रेम रस मदिरा' आदि ग्रन्थों में गिरिराज जी की स्तुति की है। आज 'श्री गोवर्धन-पूजा' के अवसर पर आइये उन्हीं के द्वारा रचित ग्रन्थ के माध्यम से हम सभी श्री गोवर्धन जी की मानसिक पूजा करते हुये उनके माहात्म्य के सम्बन्ध में कुछ पठन करें :::::::
आओ गिरिराज (गोवर्धन) की वंदना करें..
(जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी विरचित 'प्रेम रस मदिरा' ग्रंथ से)
00 जगदगुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी 'गोवर्धन पर्वत' के माहात्म्य में कहते हैं :
..प्रेम-रस के रसिकों का जीवनधन-स्वरुप गोवर्धनधाम बार-बार धन्य है, जिसने सच्चिदानंद-ब्रम्ह-श्रीकृष्ण को भी अपने वश में कर लिया है।
..जिन अनंतकोटि ब्रम्हांडनायक पूर्णतम-पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण के आश्रित अगणित ब्रम्हा, विष्णु, शंकर रहते हैं, उन श्रीकृष्ण ने भी (जब इंद्र ने अभिमानवश ब्रज को डुबाने के लिए एक सप्ताह तक अविच्छिन्न वर्षा की थी) इसी गोवर्धन का आश्रय लिया था। जिन त्रिपाद-विभूषित भगवान के चरणों को महालक्ष्मी स्वयं अपने हाथों से पूजती हैं, उन्हीं पूर्णतम पुरुषोत्तम ब्रम्ह श्रीकृष्ण ने अपने समस्त ब्रजवासियों के साथ इस गोवर्धन की पूजा की थी।
..वेद ब्रम्ह-श्रीकृष्ण की उपासना करते हैं एवं ब्रम्ह-श्रीकृष्ण लीला प्रेम माधुरी में श्रीवृषभानुनन्दिनी की उपासना करते हैं। यद्यपि सिद्धांत से तो इन दोनों के दो शरीर होते हुए भी प्राण एक ही है। यह दोनों राधा-कृष्ण इस गोवर्धन की सुन्दर लताकुंजों में निरंतर दिव्य रास-विहार किया करते हैं, जिसे देखकर महालक्ष्मी भी इस रस का पान करने के लिए ललचाती हैं।
..संसार में कोई मुक्ति के लिए वन में जाकर अष्टांग योग की साधना करता है एवं कोई काशी में देह त्याग करता है। इन दोनों ही अल्पज्ञों को देखकर मुझे हँसी आती है। ये लोग मूर्तिमान गोवर्धन नाग को छोड़कर चारों ओर नागों के रहने के घर (बाँबी) के लिए भटकते फिरते हैं।
..जिस गोवर्धनधाम में चारों वेद भी झाड़ू लगाते हैं एवं जहाँ भगवान शंकर भी गोपी शरीर धारण करके दिव्य रास के लिए दौड़े आते हैं एवं जिस गोवर्धन धाम में मुक्ति भी अपनी मुक्ति के लिए दासी बनकर सेवा करती है।
..जो गोवर्धन-धाम मरकत मणियों से जटित है एवं परम प्रकाश करने वाला है तथा जो करोड़ों चंद्रमा की रुप-माधुरी को लज्जित करता है एवं जिसके माधुर्य को देखकर बैकुंठाधीश महाविष्णु भी अपने लोक के सुख को फीका समझकर संकुचित होते हैं। वह गोवर्धन-धाम ब्रजवासियों का आभूषण एवं रसिकों को आनंद देने वाला तथा सुरपति इंद्र के भी मद (अहंकार) को चूर्ण कर देने वाला है।
..जिस गोवर्धन-धाम की सुंदर लता-कुंजों की सुन्दरता को देखकर ब्रम्ह की कारीगरी भी लज्जित होती है एवं जिस गोवर्धन-धाम के मध्य मानसी गंगा तथा राधाकुण्ड, कृष्णकुण्ड आदि सुशोभित हो रहे हैं। जिनके माहात्म्य को वर्णन करने में वाणी अथवा सरस्वती भी लज्जित होती है।
..जिस रस को वेदों ने अप्राप्य बताया है, वही रस इस गोवर्धन की गली-गली में श्रीराधाकृष्ण द्वारा बहाया गया है, किन्तु रसिकों की कृपा के बिना उस रस को आज तक कोई नहीं पा सका। हम तो उस दिव्य चिन्मय गोवर्धन-धाम की शरणागति के सहारे सदा ही निर्भय रहते हैं..
(ऊपर की समस्त वंदना जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित 'धन-धन रसिकन-धन गोवर्धन' पद का हिन्दी भावार्थ है, यह पद उनकी 'प्रेम रस मदिरा' ग्रंथ की रसिया माधुरी में वर्णित (पद संख्या 9) है।)
जय हो गोवर्धन धाम की !! जय गिरिराज !! जय गिरिधर गोपाल की !!!
शुभकामनाओं सहित...
00 सन्दर्भ ::: प्रेम रस मदिरा ग्रन्थ, रसिया माधुरी, पद संख्या - 9
00 सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
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