अष्टमंगल
अष्टमांगालिक चिहों के समुदाय को अष्टमंगल कहा गया है। आठ प्रकार के मंगल द्रव्य और शुभकारक वस्तुओं को अष्टमंगल के रूप में जाना जाता है । सांची के स्तूप के तोरणास्तंभ पर उत्कीर्ण शिल्प में मांगलिक चिहों से बनी हुई दो मालाएं अंकित हैं। एक में 11 चिह्न हैं - सूर्य, चक्र, पद्यसर, अंकुश, वैजयंती, कमल, दर्पण, परशु, श्रीवत्स, मीनमिथुन और श्रीवृक्ष। दूसरी माला में कमल, अंकुश, कल्पवृक्ष, दर्पण, श्रीवत्स, वैजयंती, मीनयुगल, परशु पुष्पदाम, तालवृक्ष तथा श्रीवृक्ष हैं। इनसे ज्ञात होता है कि लोक में अनेक प्रकार के मांगालिक चिहों की मान्यता थी।
विक्रम संवत् के आरंभ के लगभग मथुरा की जैन कला में अष्टमांगलिक चिहों की संख्या और स्वरूप निश्चित हो गए। कुषाणकालीन आयागपटों पर अंकित ये चिहृ इस प्रकार है-मीनमिथुन, देवविमानगृह, श्रीवत्स, वर्धमान या शराव, संपुट, त्रिरत्न, पुप्पदाम, इंद्रयष्टि या वैजयंती ओर पूर्णघट। इन आठ मांगलिक चिह्नों की आकृति के ठीकरों से बना आभूषण अष्टमांगलिक माला कहलाता था। कुषाणकालीन जैन ग्रंथ अंगाविज्जा, गुप्तकालीन बौद्धग्रंथ महाव्युत्पति ओर बाणकृत हर्षचरित में अष्टमांगलिक माला आभूषण का उल्लेख हुआ है। बाद के साहित्य और लोकजीवन में भी इन चिहों की मान्यता और पूजा सुरक्षित रही, किंतु इनके नामों में परिवर्तन भी देखा जाता है। शब्दकल्पद्रु में उद्धृत एक प्रमाण के अनुसार सिंह, वृषभ, गज, कलश, व्यजन, वैजयंती दीपक और दुंदुभी, ये अष्टमंगल थे।
नन्दिकेश्वर पुराणोक्त दुर्गोत्सव पद्धति, में कहा गया है-म्रुगराजो वृषो नाग: कलशो व्यंजन यथा, वैजयन्ती तथा भेरी दीप इत्यष्टमंगलम।
(अर्थात - सिंह, बैल, हाथी, कलश, पंखा, वैजन्ती, ढोल और दीपक यह आठ प्रकार के मंगल कहे गये हैं।)
शुद्धित्व में इस प्रकार से कहा गया है-लोकेस्मिन मन्ग्लान्यष्टो ब्राह्मïणों गौर्हुताशन, हिरण्यं सर्पिरादित्य आपो राजा तथाष्टम।
( यानी इस लोक में ब्राह्मण, गाय, अग्नि, सोना, घी, सूर्य, जल, तथा राजा यह आठ मंगल कहे गये हैं।)
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