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 लता मंगेशकर और दिलीप कुमार ने जब 13 साल एक दूसरे से बात नहीं की
आलेख-मंजूषा शर्मा
यूसुफ़ ख़ान यानी दिलीप कुमार,एक अभिनेता के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्होंने भी कभी गायकी में हाथ आजमाना चाहा था। उन्हें सुरों का ज्ञान भी काफी है। 
  ज्यादातर लोग दिलीप साहब को एक अभिनेता के रूप में ही जानते हैं, पुराने फि़ल्म संगीत में रुचि रखने वाले रसिकों को मालूम होगा दिलीप साहब के गाये कम से कम एक गीत के बारे में, जो है फि़ल्म  मुसाफिऱ  का,  लागी नाही छूटे रामा चाहे जिया जाये । लता मंगेशकर के साथ गाया यह एक युगल गीत है, जिसका संगीत तैयार किया था सलिल चौधरी नें। 
फि़ल्म-ग्रुप के बैनर तले निर्मित इसी फि़ल्म से ऋषिकेश मुखर्जी ने अपनी निर्देशन की पारी शुरु की थी। 1957 में प्रदर्शित इस फि़ल्म के मुख्य कलाकार थे दिलीप कुमार, उषा किरण और सुचित्रा सेन। पूर्णत: शास्त्रीय संगीत पर आधारित बिना ताल के इस गीत को सुन कर दिलीप साहब को सलाम करने का दिल करता है। एक तो कोई साज़ नहीं, कोई ताल वाद्य नहीं, उस पर शास्त्रीय संगीत, और उससे भी बड़ी बात कि लता जी के साथ गाना, यह हर किसी अभिनेता के बस की बात नहीं थी। वाक़ई इस गीत को सुनने के बाद मन में यह सवाल उठता है कि दिलीप साहब बेहतर अभिनेता हैं या बेहतर गायक। 
यह गीत  6: 30 मिनट लंबा है और यह एक पारम्परिक ठुमरी है राग पीलू पर आधारित, जिसका सलिल दा ने एक अनूठा प्रयोग किया इसे लता और दिलीप कुमार से गवा कर। लता जी पर राजू भारतन की चर्चित किताब  लता मंगेशकर - ए बायोग्राफ़ी  में इस गीत के साथ जुड़ी कुछ दिलचस्प बातों का जि़क्र हुआ है।  इस गीत की रिकॉर्डिंग से पहले दिलीप साहब को एक के बाद एक तीन ब्रांडी के ग्लास पिलाये गये थे? ताकि वे बिना किसी झिझक के लता जैसी बड़ी गायिका के सामने गाने की हिम्मत जुटा सकें।  
एक मुलाक़ात में लता जी ने दिलीप साहब से कहा था,  दिलीप साहब, याद है आपको, 1947 में, मैं, आप और मास्टर कम्पोजऱ अनिल बिस्वास, हम तीनों लोकल ट्रेन में जा रहे थे। अनिल दा ने मुझे आप से मिलवाया एक महाराष्ट्रियन लड़की की हैसियत से और कहा कि ये आने वाले कल की गायिका बनेगी। आपको याद है दिलीप साहब कि आप ने उस वक्त क्या कहा था? आप ने कहा था,  एक महाराष्ट्रियन, इसकी उर्दू ज़बान कभी साफ़ नहीं हो सकती!  इतना ही नहीं, आप नें यह भी कहा था कि इन महाराष्ट्रियनों के साथ एक प्राब्लम होती है, इनके गाने में दाल-भात की बू आती है।  आपके ये शब्द मुझे चुभे थे। इतने चुभे कि अगले ही सुबह से मैंने गंभीरता से उर्दू सीखना शुरु कर दिया सिफऱ् इसलिए कि मैं दिलीप कुमार को ग़लत साबित कर सकूं। और दिलीप साहब ने 1967 में लता जी के गायन कॅरिअर के सिल्वर जुबिली कनसर्ट में इस बात का जि़क्र किया और अपनी हार स्वीकार की थी। 
 राजू भारतन ने सलिल दा से एक बार पूछा कि फि़ल्म  मुसाफिऱ  के इस गीत के लिए दिलीप साहब को किसने सिलेक्ट किया था। उस पर सलिल दा का जवाब था, दिलीप ने खुद ही इस धुन को उठा ली; वो इस ठुमरी का घंटों तक सितार पर रियाज़ करते और इस गीत में मैंने कम से कम मुरकियां रखी थीं।  मैंने देखा कि जैसे जैसे रिकॉर्डिंग पास आ रही थी, दिलीप कुछ नर्वस से हो रहे थे। और हालात ऐसी हुई कि दिलीप आखिरी वक्त रिकॉर्डिंग से भाग खड़े होना भी चाहा। ऐसे में हमें उन्हें ब्रांडी के पेग पिलाने पड़े उन्हें लता के साथ खड़ा करवाने के लिए। 
इस रिकॉर्डिंग के बाद दिलीप कुमार और लता मंगेशकर में बातचीत करीब 13 साल तक बंद रही। कहा जाता है कि दिलीप साहब को पता नहीं क्यों ऐसा लगा था कि इस गीत में लता जी जानबूझ कर उन्हें गायकी में नीचा दिखाने की कोशिश कर रही हैं, हालांकि ऐसा सोचने की कोई ठोस वजह नहीं थी। फिर दोनों कलाकारों ने सुलह की और आज भी उनके बीच के संबंध काफी मधुर हैं। दिलीप साहब आज भी लता मंगेशकर को लता दीदी कहते हैं और अपनी बहन मानते हैं। 
 
 
 

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