दीक्षा के गीत
लेखिका- डॉ. दीक्षा चौबे*
घर के आँगन-द्वार सजे हैं,
सिंदूरी रंगोली से ।
साँझ उतरती धीरे-धीरे,
आसमान की डोली से ।।
पुरवाई शीतलता लाती,क्लांत-शांत है जग सारा।
शीघ्र पहुँच विश्राम चाहता , दिनकर पथिक थका हारा।
नीड़ों पर हलचल आवाजें, बाट जोहते दाने की ।
प्रातकाल से माँ निकली है, जुगत लगाने खाने की।
मुस्कानें खिलतीं आने पर,
निकले क्या-क्या झोली से।।
साँझ उतरती धीरे-धीरे,
आसमान की डोली से ।।
दिन भर का सब हाल सुनाते,खुली पोटली अनुभव की।
मित्रों से अनबन सुलझ गई, बात तोतली शैशव की ।
सदा अभावों से उलझी माँ, ढकती कमियों की पेटी ।
मात-पिता के हालातों को, समझ रहे बेटा-बेटी ।
सुख का सांध्य-दीप जल जाता,
सबकी हँसी-ठिठोली से।
साँझ उतरती धीरे-धीरे,
आसमान की डोली से ।।
संध्या के परिदृश्य कई हैं,खुशी कहीं पसरा मातम।
कहीं विरह में आँसू बहते,कहीं हो रहा है संगम।
मुश्किल पल में आगे बढ़ते,पलते नैनों में सपने ।
अपना-अपना युद्ध लड़ें सब,संग चले हैं जो अपने ।
सुख की तितली जहाँ थिरकती,
खुशी छलकती बोली से।।
साँझ उतरती धीरे-धीरे,
आसमान की डोली से ।।
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