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श श कोई है

- कहानी
- लेखिका-डॉ. दीक्षा चौबे
दुर्ग ( वरिष्ठ साहित्यकार और शिक्षाविद)
प्रशांत के फोन आते ही रवि की नजर घड़ी पर चली गई । रात के एक बजे उसे क्या काम आ गया । रवि समझ नहीं पा रहा था कि प्रशांत ने उसे तुरंत अपने घर आने के लिए क्यों कहा । शायद उसकी तबीयत ठीक नहीं,  ऐसा  लगता है । वैसे भी वह मम्मास बॉय ही रहा शुरू से , वो तो नौकरी के कारण उसे  घर से दूर रायपुर आना पड़ा.. नहीं तो वह मम्मी पापा को छोड़कर कभी नहीं आता । शुक्र है यहाँ उसके बचपन का दोस्त रवि था, उसके घर कुछ दिन रहकर वह एक किराये के घर में शिफ़्ट हो गया था । रवि और उसकी पत्नी तो यही चाहते थे कि वह उनके साथ रहे, पर कितने दिन कोई किसी के साथ रहे .. दो- चार दिन की बात तो थी नहीं ।
       उन दोनों ने न जाने कितने सारे घर देखे पर कोई पसन्द ही नहीं आ रहा था । रवि का एक दोस्त था सुमित जो न्यूयार्क में रहता था । उसका बंगला खाली पड़ा था और उसने रवि को यह जिम्मेदारी दी थी कि वह उसके लिए किरायेदार ढूँढे ताकि बंगले की उचित देखभाल होती रहे । हालांकि प्रशांत का बजट इतने बड़े बंगले के लायक नहीं था , लेकिन रवि के कहने पर बंगले के आधे हिस्से को बंद करके आधे हिस्से में  प्रशांत को रहने की अनुमति सुमित ने दे दी थी । 
            रवि तुरंत प्रशांत के घर जाने के लिए निकल पड़ा । रात्रि की नीरवता और अंधेरे में  पूरा शहर किसी बच्चे की भाँति निश्चिंत  सो रहा था । प्रशांत घर के बाहर ही रवि की प्रतीक्षा कर रहा था । वह बहुत घबराया सा दिख रहा था, इस कड़ाके की ठंड में भी वह पसीने से तरबतर था । हाथ - पैर कांप रहे थे और वह कुछ बोलने की स्थिति में नहीं था । रवि प्रशांत को  साथ लेकर अपने  घर आ गया था और  उसे  दवा देकर सुला दिया था ।
           दूसरे दिन सुबह प्रशांत की हालत सामान्य हुई तब रवि ने उससे रात की घटना पर प्रश्न किया  - "आखिर वह कौन सी घटना हुई जिसने तुम्हें स्तब्ध कर दिया प्रशांत ?
प्रशांत ने बताया  -  जब से मैं वहाँ रहने गया था मुझे  कुछ न कुछ अजीबोगरीब घटनाएँ होते दिखाई दी पर मैंने  उन्हें उतनी गम्भीरता से नहीं लिया । रात को अजीब सी आवाजें सुनाई देतीं पर कल पहली बार मैंने बंगले के बन्द वाले हिस्से की खिड़की में किसी को बैठे देखा । वह एक औरत थी जिसका चेहरा बहुत डरावना था, उसके बाल लंबे व बिखरे हुए थे ।आँखें बड़ी - बड़ी और लाल दिखाई दे रही थी मानो उनमें अंगारे भरे हों । मैं वह सब देखकर बहुत डर गया था, बड़ी मुश्किल से तुझे फोन कर पाया । आगे का हाल तो तू जानता ही है ।
         मुझे तो  बहुत अचरज हो रहा है ऐसा सुनकर क्योंकि मैंने उस बंगले के बारे में कोई बात नहीं सुनी । हो सकता है यह तुम्हारा  भरम हो । उस घर को जब सुमित ने लिया तब भी उसके बारे में हमें कुछ गलत नहीं कहा किसी ने । सुमित के विदेश जाने के बाद उसकी मम्मी वहाँ अकेली बहुत वर्षों तक रही । उनके निधन के बाद कई लोग वहाँ रहे तो भी किसी ने कुछ नहीं कहा । यदि तुम्हारे मन में कोई शंका है तो तुम अब वहाँ मत जाओ । अभी यहीं हमारे साथ रहो, फिर कोई दूसरा मकान देख लेते हैं । 
  अरे नहीं यार ! ऐसी भी कोई बात नहीं, रहकर देखते हैं.. वैसे कोई भूत हो तो भी रह लेंगे... एक से भले दो - प्रशांत ने हँसते हुए कहा । अच्छा बच्चू , कल की हालत भूल गया क्या, अभी  इतनी हिम्मत आ गई कि भूत के साथ रहने की इच्छा हो रही है । चल देख लेते हैं , यह किसी की बदमाशी भी हो सकती है, ध्यान रखना । उस घर पर बहुत लोगों की नजर थी खरीदने के लिए , पर सुमित की ढेर सारी यादें जुड़ी हैं उस घर से इसलिए वह बेचना नहीं चाहता । परदेश में आखिर कब तक रहेगा हो सकता है कभी लौट भी आये ।
      उस दिन के बाद प्रशांत पुनः अपनी दिनचर्या में सामान्य हो गया । पर कभी - कभी कई घटनाएं उसे चौंका देती थीं, मानो कोई उसका बहुत ध्यान रख रहा हो । प्रशांत को कई बार माँ की याद आ जाती थी और वह वीडियो कॉल करके उनसे मिलने की अपनी इच्छा पूरी कर लेता । पिताजी का स्वास्थ्य खराब होने के कारण वह उसके साथ नहीं आ सकती थी । प्रशांत  सुबह कुछ नाश्ता कर ड्यूटी चला जाता और वहीं कुछ खा लेता , शाम को फल , दूध लेकर घर आता और रात का खाना स्वयं बना लेता । अकेले टी वी देखकर कितना टाईम पास करता तो इसी बहाने थोड़ा व्यस्त भी रहता , वैसे वह मम्मी का लाडला था तो किचन में चक्कर लगाता रहता । कभी - कभी मम्मी की मदद भी कर देता । यहाँ घर की सफाई व अन्य कार्यों के लिए उसे एक नौकर  शिव भी मिल गया था । कई बार रात का खाना बनाते हुए उसका आधा -अधूरा छोड़ा हुआ काम उसे सुबह खत्म हुआ मिलता , उसे घर में किसी की उपस्थिति महसूस होती थी एक छाया सी ,....पर उसने प्रशांत को कभी कोई चोट नहीं पहुंचाई ।  कुछ दिन पहले शिव काम पर नहीं आया था तो उस दिन ऑफिस जाने में प्रशांत को देर हो गई और हड़बड़ी में वह दूध गैस पर चढ़ाकर  बन्द करना भूल गया । ऑफिस में अचानक याद आने पर दौड़ा -  भागा वापस आया तब तक तीन  - चार घण्टे बीत चुके थे । दूध के जलने से अधिक उसे गैस के खुले रहने का डर था कि कहीं कोई अनहोनी न हो जाये , पर जब वह घर पहुँचा तो उसने गैस बंद पाया मानो किसी ने बंद किया हो । एक - दो बार ऐसी कई दुर्घटनाएं होते - होते बचीं । भूत प्रेत तो नहीं पर यहाँ उसकी सहायक कोई दिव्य - शक्ति जरूर है , उसने  सोचा ।
                  उस रात की तरह  खिड़की पर उस औरत की परछाई उसे कई बार दिखी पर अब उसे डर नहीं लगता था  हाँ वह सच  जरूर जानना चाहता था  । वह परछाई अक्सर उसे रात के वक्त दिखती थी खिड़की पर कोहनी टिकाये मानो उसे किसी के आने का इंतजार हो । एक दिन शिव को सफाई करते हुए एक डायरी मिली जिसे वह प्रशांत  को देकर गया । यह प्रशांत की डायरी नहीं थी पर उसे पढ़ने का मोह वह छोड़ नहीं पाया ।
          दिव्याभा ...हाँ यही नाम लिखा था उस पर । पढ़ना शुरू किया तो पढता ही चला गया ।  उसने अपनी पूरी जिंदगी उन पन्नों में उतार दी थी । एक स्त्री जीवन के विभन्न पक्षों का सजीव चित्रण  था ।  उसके मन की गहराइयों में डूबी पीड़ा शब्दों में उभर आई थी । उन पन्नों से लगाव हो गया था प्रशांत को , इतना अधिक कि उसे न खाने की सुध रही न पीने की । वीकेंड कैसे बीता पता ही नहीं चला । वह एक प्यारी व अपने माता - पिता की चिंता करती बेटी थी तो एक आज्ञाकारी  जिम्मेदार पत्नी भी  । फिर बेटे के जन्म के बाद डायरी के पन्ने खाली छूट गए थे जो उसका अपने बच्चे की देखभाल की व्यस्तता बता रहा था । कुछ वर्षों के बाद पुनः डायरी लिखना प्रारंभ हुआ शायद बेटे के बड़े होने के बाद उसने फिर से लिखा  हो । उसके बाद बेटे के विदेश जाने के बाद के पन्ने  एक माँ के दर्द से लिखे हुए थे । कितनी करुणा थी उन शब्दों में , मानो वे स्याही से नहीं  आँसुओं से लिखे गए हों । इंतजार का हर पल कितना लम्बा होता है, दिव्याभा  ने हर पल अपने बेटे  का इंतजार किया था, उसकी शादी, बच्चे के जन्म पर मिलने की इच्छा बड़ी शिद्दत से  व्यक्त की थी । बेटा बहाने ही बनाते रहा, काम की व्यस्तता  क्या मनुष्य को अपने प्रियजनों से अधिक प्रिय हो सकता है । लोग क्यों भूल जाते हैं कि सुख - सुविधाएं इंसान के लिए है पर इंसान उसके लिए अपना सब कुछ भूल जाता है । जिंदगी क्या इंतजार करती है मनुष्य के सफल होने का, वह तो अपना कार्य करती रहती है । कहाँ कितनी देर रुकना है... यह तो मनुष्य को ही तय करना रहता है।
प्राथमिकता किसे देनी है यह तो उसके हाथ में है, मनुष्य अपनी मुट्ठी में वक्त को भर कर रख लेना चाहता है और कल के लिए अपनी खुशियों को स्थगित करते रहता है जो कभी आता ही नहीं । अपने बेटे और उसके परिवार का इंतजार करते एक माँ की आँखें पथरा गई, काया हड्डी के ढाँचे में बदल गई और वह उन अस्थियों के विसर्जन के लिए भी नहीं आ पाया । माँ का शरीर तो चला गया पर आत्मा यहीं रह गई ।
     प्रशांत की आँखों से आँसू अनवरत बह रहे थे ...तो वह एक माँ है । माँ तो माँ होती है चाहे वह सदेह हो, भूत - प्रेत हो या उसकी रूह ..वात्सल्य से भरी । प्रशांत की नजरें उस खिड़की पर लगी थी...आँसुओं के धुंधलके के पार आज वह उस माँ को देखना व नमन करना चाहता था ।

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