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 गाने की रिकॉर्डिंग के दिन उपवास रखते थे मुकेश....
 मुंबई। जाने माने गायक मुकेश के गानों को सुनकर आज भी एक अजीब सा सुकून मिलता है। उन्होंने खासतौर पर राज कपूर के लिए काफी गीत गाए। एक वक्त था जब मुकेश को उनकी आवाज कहा जाने लगा था. ‘सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी’ और ‘आवारा हूं’ जैसे बेहतरीन गाने गाकर दुनियाभर में मशहूर हो गए। वहीं, राज कपूर कहते थे कि मुकेश उनकी सिर्फ आवाज ही नहीं, बल्कि उनकी आत्मा हैं। जब मुकेश का जब निधन तब राज कपूर ने रुंधे गले से कहा था, 'मेरी तो आवाज ही चली गई।'
पाश्र्व गायक मुकेश की बात कर रहे हैं. मुकेश की गायिकी की एक खास बात रही है कि उन्होंने संगीत की बहुत ज्यादा ट्रेनिंग नहीं ली, लेकिन मुश्किल से मुश्किल गानों को अपनी मधुर आवाज में बहुत सहजता से पेश किया। उनके गाने सीधे दिल को छू जाते थे और आज भी लोगों की जुबां पर चढ़े रहते हैं।
 22 जुलाई 1923 को लाला जोरावर चंद माथुर और चांद रानी के घर जन्में जाने माने गायक मुकेश अपने माता-पिता की 10 संतानों में से 7वें बेटे थे। कहते हैं कि मुकेश ने अपनी बड़ी बहन और कुछ दिग्गजों के गीतों को सुन-सुनकर ही संगीत सीख लिया था। बचपन से ही उन्हें गाने का शौक था, वहीं, मुकेश की सुरीली आवाज ने उनके इस शौक को करियर में बदल दिया।   
 कहा जाता है कि संगीत की दुनिया में नाम कमाने के रास्ते मुकेश के लिए उनकी बहन की शादी से खुले। दरअसल, मुकेश की बहन का विवाह था और ससुराल पक्ष के रिश्तेदार होने के नाते अभिनेता मोतीलाल अपने एक निर्माता दोस्त और अभिनेता तारा हरीश के साथ इस शादी में शरीक होने के लिए पहुंचे थे।   यहां बारातियों का मनोरंजन करने के लिए मुकेश को गीत सुनाने को खड़ा किया गया।   
 मुकेश ने अपनी सुरीली आवाज का ऐसा जादू चलाया कि मोतीलाल और तारा हरीश देखते ही रह गए।  इसके कुछ वक्त बाद एक दिन मुकेश को मोतीलाल का खत मिला कि मुंबई आ जाओ। पिताजी को बेशक यह सब पसंद नहीं आया, लेकिन किसी तरह मुकेश ने उन्हे भी मना लिया और नौकरी छोडक़र मुंबई पहुंच गए।   
 कहते हैं कि मोतीलाल ने ही मुकेश को मुंबई में अपने घर पर जगह दी।    साथ ही उन्होंने संगीत की शिक्षा हासिल करने में भी उनकी मदद की. हालांकि, मुकेश का सपना था कि वह फिल्मों में अभिनेता के तौर पर काम करें।    इसके बाद उन्होंने 1941 में रिलीज हुई फिल्म 'निर्दोष' से बतौर अभिनेता अपने करियर की शुरुआत भी की, लेकिन फिल्म को पसंद नहीं किया गया।  इसी के साथ मुकेश का अभिनेता बनने का सपना भी टूट गया।    ।
 1945 में आई फिल्म 'नजर' में उन्होंने प्लेबैक सिंगर के तौर पर काम किया। उन्होंने पहला गाना 'दिल जलता है तो जलने दो' गाया था, जिसे इतना पसंद किया गया कि देशभर में सिर्फ मुकेश के इस गाने की गूंज सुनाई देने लगी और देखते ही देखते वह दुनियाभर में छा गए।
 मुकेश के संगीत को जीतना पसंद किया जाता है, एक्टर खुद भी अपने संगीत को उतना ही प्यार करते थे। कहते हैं कि वह संगीत को भगवान की तरह पूजते थे। जब भी उनके किसी गाने की रिकॉर्डिंग होती, उस दिन वह उपवास रख लिया करते थे और पूरा दिन सिर्फ पानी और गर्म दूध पर बिता देते थे। उनका मानना था कि संगीत के साथ पूरा न्याय होना चाहिए, सुरों के साथ किसी भी वजह से कोई गड़बड़ न हो।
  साल 1974 में फ़िल्म रजनीगंधा के गाने के लिए मुकेश को राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार दिया गया। विनोद मेहरा और फ़िरोज़ ख़ान जैसे नये अभिनेताओं के लिए भी इन्होंने गाने गाये। 70 के दशक में भी इन्होंने अनेक सुपरहिट गाने दिये जैसे— फ़िल्म धरम करम का एक दिन बिक जाएगा। फ़िल्म आनंद और अमर अकबर एंथनी की वो बेहतरीन नगमें। साल 1976 में यश चोपड़ा की फ़िल्म कभी कभी के इस शीर्षक गीत के लिए मुकेश को अपने करियर का चौथा फ़िल्मफेयर पुरस्कार मिला और इस गाने ने उनके करियर में फिर से एक नयी जान फूँक दी। मुकेश ने अपने करियर का आखिरी गाना अपने दोस्त राज कपूर की फ़िल्म के लिए ही गाया था। लेकिन 1978 में इस फ़िल्म के जारी होने से दो साल पहले ही 27 अगस्त को मुकेश का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। 
 
 

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