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  भावभक्ति के विभिन्न लक्षण कौन-कौन से हैं? भगवान की माया को भक्त किस प्रकार चुनौती देते हैं?
 जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 436

महत्वपूर्ण बिन्दु :
• भाव भक्ति के 7 लक्षण
• भक्ति मार्ग की सर्वोत्कृष्टता
• सम्पूर्ण शरणागति का स्वरूप
....आदि प्रश्नों पर जगदगुरु श्री कृपालु महाप्रभु जी द्वारा मार्गदर्शन!!

भाव भक्ति का पहला लक्षण है - सहनशीलता। अर्थात क्रोध का कारण हो पर क्रोध न आये। कोई हमारा अपमान की और हमारे ऊपर कोई प्रभाव न हो, तो समझना चाहिये कि हम भाव भक्ति में प्रवेश कर रहे हैं। भाव भक्ति का दूसरा लक्षण है - एक क्षण को भी संसारी विषयों में रुचि न उत्पन्न हो, एक क्षण भी व्यर्थ न हो, भगवान और गुरु का ही चिंतन रहे। एक क्षण को भी मन भगवान के क्षेत्र से बाहर न जाये। संसार में अपना कर्तव्य करो, पर मन का लगाव केवल भगवान और गुरु में रहना चाहिये। समय का मूल्य हृदय से मानना चाहिये।

भाव भक्ति का तीसरा गुण है - विरक्ति। अर्थात संसार के समस्त विषयों की रुचि समाप्त हो जाये। उद्धव परमहंस भगवान श्रीकृष्ण से कहते हैं कि आपका प्रसाद रूप, सब कुछ सेवन करके मैं आपकी माया को चुनौती दूँगा, वो मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। अर्थात संसार के पदार्थों का उपभोग करने पर भी उनमें मन की आसक्ति न हो। भक्तों में भी सर्वश्रेष्ठ भक्त वो है जो संसार के विषयों का भगवान का प्रसाद रूप मानकर ग्रहण करे और मन में उन संसारी विषयों के प्रति रुचि या आनंद की भावना न हो। शरीर को भोजन देना अनिवार्य है, अन्यथा साधना में विघ्न उत्पन्न होगा। विरक्ति अर्थात संसार के विषयों में मन की आसक्ति न हो।

भाव भक्ति का चौथा गुण है - मानशून्यता। अर्थात सम्मान में विभोर न हो, अपमान में विभोर हो जाओ, जब ये अवस्था आ जाये तब समझो हम भाव भक्ति में गये। हमारा अपमान हो, ये भीतर से शौक पैदा हो और जब अपमान मिले तो विभोर हो जाओ। पाँचवाँ गुण है - आशाबन्ध; अन्तःकरण में निराशा न आने पाये, पूर्ण विश्वास होना चाहिये कि सफलता अवश्य मिलेगी। भाव भक्ति का छठा गुण है - समुत्कण्ठा, अर्थात हमारी आशा आगे की ओर बलवती होनी चाहिये और सातवाँ गुण है - नामगानेसदारुचि:। अर्थात भगवान के नाम में इतना माधुर्य का अनुभव हो कि लगातार उसको पीने पर भी तृप्ति न हो। इसी प्रकार भगवान के गुण में आसक्ति, उनके धाम में अनुराग अर्थात भगवान, उनका नाम, उनका रूप, उनका गुण, उनकी लीला, उनके धाम और उनके संत हमारा मन इतना अनुरक्त हो कि यदि निराशा का कारण भी हो तो निराशा न आने पाये। ये सब जब स्वतः होने लगे तो समझो कि भाव भक्ति पर हम पहुँच रहे हैं, पहुँच गये नहीं, अभी प्रवेश हो रहा है। अब अन्तःकरण शुद्ध होने लगा इसलिये ये सब बातें हो रही हैं।

इस प्रकार आगे बढ़ते हुये जब अन्तःकरण पूर्ण शुद्ध हो जायेगा, तब इन सब भाव भक्ति के अनुभावों में इतनी दृढ़ता आ जाती है कि फिर कोई इनको टस से मस नहीं करा सकता। जब भाव भक्ति की वो परिपक्व अवस्था आ जायेगी, तब उसी समय अन्तःकरण की शुध्दि हो जायेगी, उसी को कहते हैं सम्पूर्ण शरणागति। उस अवस्था में को अलौकिक प्रेम, दिव्य प्रेम मिलेगा जो ह्लादिनी शक्ति का सारभूत तत्व है, जिसके अधीन भगवान रहते हैं। मायाधीन जीव कर्म के बंधन में होता है, कर्म से परे ज्ञान, ज्ञान से परे मोक्ष, मोक्ष से परे भगवान, भगवान से परे प्रेम। प्रेम के अधीन भगवान, भगवान के अधीन मोक्ष, मोक्ष के अधीन ज्ञान, ज्ञान के अधीन कर्म, कर्म के अधीन जीव। सर्वोच्च कक्षा है, वो प्रेम की जो भगवान की भगवत्ता को समाप्त कर देती है।

• सन्दर्भ ::: जगदगुरु कृपालु परिषत द्वारा प्रकाशित मासिक सूचना पत्र, जुलाई 2012 अंक.

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- सर्वाधिकार सुरक्षित ::: © राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली।
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(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vaidik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(5) www.youtube.com/JKPIndia
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