क्या है नौ प्रकार की भक्ति? जानें कौन सी भक्ति है सर्वश्रेष्ठ
बालोद से पं. प्रकाश उपाध्याय
हिन्दू धर्म में भक्ति को सर्वोत्तम स्थान दिया गया है। भक्त की भक्ति के कारण तो भगवान भी दौड़े चले आते हैं। भक्ति की व्याख्या अलग-अलग ग्रंथों में अलग प्रकार से की गयी है। विभिन्न मत और समुदाय भक्ति को अपने तरीके से परिभाषित करते हैं किन्तु हमारे ग्रंथों में नौ प्रकार की भक्ति को बड़ा महत्व दिया गया है जिसे "नवधा भक्ति" कहा जाता है।
नवधा भक्ति का उल्लेख हमारे ग्रंथों में 2 बार किया गया है। इसका पहला वर्णन विष्णु पुराण में आता है जो सतयुग में भगवान के नरसिंह अवतार से सम्बंधित है। इसमें हिरण्यकशिपु और प्रह्लाद का एक वार्तालाप है जिसमें प्रह्लाद ने अपने पिता को प्रभु की नौ प्रकार की भक्ति के विषय में बताया है। जिसके विधिवत पालन से भगवान का साक्षात्कार किया जा सकता है। प्रह्लाद कहते हैं -
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
अर्थात: श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन ये नौ प्रकार की भक्ति कहलाती है।
श्रवण: भगवान की कथा और महत्व को पूरी श्रद्धा से सुनना।
कीर्तन: भगवान के अनंत गुणों का अपने मुख से उच्चारण करते हुए कीर्तन करना।
स्मरण: सदैव प्रभु का स्मरण करना।
पाद-सेवन: प्रभु के चरणों में स्वयं को अर्पण कर देना।
अर्चन: शास्त्रों में वर्णित पवित्र सामग्री से प्रभु का पूजन करना।
वंदन: आठ प्रहर ईश्वर की वंदना करना।
दास्य: भगवान को स्वामी और स्वयं को उनका दास समझना।
सख्य: ईश्वर को ही अपना सर्वोच्च और प्रिय मित्र समझना।
आत्मनिवेदन: अपनी स्वतंत्रता त्याग कर स्वयं को पूरी तरह ईश्वर को समर्पित कर देना।
इन नौ में भी प्रह्लाद ने श्रवण, कीर्तन और समरण को श्रेष्ठ बताया है और इन तीनों में भी श्रवण को उन्होंने सर्वश्रेष्ठ कहा है।
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