ब्रह्म के कौन से दो रूप हैं? जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज विरचित 'भक्ति-शतक' ग्रन्थ से जानिये क्या है इसका रहस्य?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 326
★ भूमिका - आज के अंक में प्रकाशित दोहा तथा उसकी व्याख्या जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित ग्रन्थ 'भक्ति-शतक' से उद्धृत है। इस ग्रन्थ में आचार्यश्री ने 100-दोहों की रचना की है, जिनमें 'भक्ति' तत्व के सभी गूढ़ रहस्यों को बड़ी सरलता से प्रकट किया है। पुनः उनके भावार्थ तथा व्याख्या के द्वारा विषय को और अधिक स्पष्ट किया है, जिसका पठन और मनन करने पर निश्चय ही आत्मिक लाभ प्राप्त होता है। आइये उसी ग्रन्थ के 52-वें दोहे पर विचार करें, जिसमें आचार्यश्री ने यह बताया है कि ब्रह्म के 2 रूप कौन से हैं? ब्रह्म का रस और रसिक रूप क्या है? आइये निम्न दोहे और उसकी व्याख्या से इसका रहस्य जानें...!!
ब्रह्म एक मधु रूप है, एक भ्रमर उनमान।
एक रूप रस देत है, एक आपु कर पान।।52।।
भावार्थ - ब्रह्म के 2 स्वरूप होते हैं। एक रस रूप। दूसरा रसिक रूप। अर्थात् एक मधु के समान। दूसरा भौरे के समान। एक रूप से स्वयं रस पान करते हैं। दूसरे रूप से जीवों को भी वही रस पान कराते हैं।
व्याख्या - वेद कहता है । यथा - रसो वै सः .......। यह रस रूप ब्रह्म 2 अर्थ वाला है; (1) रस्यते इति रसः (2) रसयति इति रसः।
(1) जिसका आस्वादन किया जाय। जैसे मधु।
(2) जो रस का आस्वादन करता है। जैसे भ्रमर।
रस शास्त्र में विशेष उत्कर्ष ज्ञापक अर्थ में ही रस शब्द का प्रयोग हुआ है। विशेष विलक्षण चमत्कारित्व को ही रस का प्राण माना है। चमत्कारित्व का स्वरूप यह है कि रस के आस्वादन करने में बहिरंग (हाथ पैर आदि) एवं अंतरंग (मनबुद्धि) इंद्रियां दोनों का कार्य स्तंभित हो जाय। दूसरे विषय में ज्ञान - रहित हो जाय। वही रस है। अतः जिस वस्तु में नित नवायमान रस का अनुभव हो। तथा जिसके अनुभव में प्रतिक्षण ऐसा लगे कि ऐसा अपूर्व माधुर्य इसके पूर्व कभी अनुभव में नहीं आया। तथा उस रस से कभी मन न भरे। प्रतिक्षण प्यास बढ़ती जाय। यह आस्वाद्य रस है यथा - 'आली रस की रीति निराली प्याली भरे न खाली होय'। यह ब्रह्म रस रूप में आस्वाद्य एवं आस्वादक दोनों है। पूर्व में बता चुके हैं कि ब्रह्म में अनंत स्वाभाविक शक्तियाँ होती हैं। अतः स्वाभाविक शक्तियों से युक्त आनंद ही ब्रह्म है। आनंद विशेष्य है एवं शक्ति विशेषण है। विशेषण अपने विशेष्य को वैशिष्ट्य प्रदान करता है। अर्थात् शक्ति रूपी विशेषण, आनंद रूप विशेष्य को विशिष्टता प्रदान करने वाला है। ब्रह्म का आनंद चेतन है। जगत् के आनंद के समान जड़ एवं क्षणिक नहीं है। जिस रस का आस्वादन स्वयं श्री कृष्ण करते हैं उसे स्वरूपानंद कहा जाता है। सारांश यह कि श्री कृष्ण, अपनी स्वरूप शक्ति के द्वारा अपने माधुर्य रस का भोग करते हैं। जिसमें भक्तों द्वारा विशेष माधुर्य का आस्वादन करते हैं। उसे स्वरूप शक्त्यानंद कहा जाता है। स्वरूप शक्त्यानंद (भक्तों द्वारा प्राप्त माधुर्य रस) भी दो प्रकार का होता है। यथा;
(1) ऐश्वर्यानंद - इसमें ऐश्वर्य रस प्रधान है । माधुर्य गौण है।
(2) मानसानंद - इसमें माधुर्य ही माधुर्य ओतप्रोत है । इनमें स्वरूपानंद से सरस ऐश्वर्यानंद (भक्तों द्वारा प्राप्त) एवं उससे भी सरस मानसानंद है। यही ब्रजरस कहा जाता है। यही सर्वश्रेष्ठ है।
ऐश्वर्य शिथिल प्रेमे नहे मोर प्रीत।
(चैतन्य चरितामृत)
ब्रजरस में ऐश्वर्य गुप्त रूप से ही सेवा करता है। प्रत्यक्ष नहीं आता है। यह ब्रजलीला नर लीला कहलाती है।
०० व्याख्याकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'भक्ति-शतक' (दोहा संख्या - 52)
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
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