मन में संसार के प्रति न लगाव हो और न द्वेष हो, वैराग्य का यही सच्चा स्वरूप है! जानें, वैराग्य की सही अवधारणा क्या है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 328
(भूमिका - प्रस्तुत अंश जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा लिखित 'प्रेम रस सिद्धान्त' पुस्तक से लिया गया है। इस पुस्तक में आचार्यश्री ने अध्यात्म-जगत के प्रत्येक विषय का अनेक अध्यायों यथा; जीव का चरम लक्ष्य, ईश्वर का स्वरूप, भगवत्कृपा, शरणागति, संसार और वैराग्य का स्वरूप, महापुरुष, ईश्वर-प्राप्ति के उपाय, कर्म, ज्ञान, भक्ति, भगवान के अवतार रहस्य, भक्तियोग, कर्मयोग की क्रियात्मक साधना तथा कुसंग का स्वरूप आदि में विशद रूप से और बड़ी ही सरल भाषाशैली में वर्णन किया है। भगवत्प्रेमपिपासु जीव के लिये यह ग्रंथ अनमोल है। आइये इसी ग्रन्थ के अध्याय - 5, वैराग्य का स्वरूप के एक अंश पर विचार करें....)
...प्रायः लोग राग शब्द का अर्थ प्यार ही करते हैं, पर ऐसा नहीं है, राग का अर्थ है मन का लगाव, वह मन का लगाव प्यार से हो या खार से हो। अर्थात अनुकूल भाव या प्रतिकूल भाव, किसी भी भाव से मन की आसक्ति, आसक्ति ही कहलाएगी और जब न अनुकूल भाव से आसक्ति हो और न प्रतिकूल भाव से आसक्ति हो तभी वैराग्य कहलायेगा।
स्थूल बुद्धि से यों समझिये कि जब आप किसी प्रिय का चिन्तन करते हैं तो सर्वत्र उसी में मन व्यस्त रहता है, 'यह कब मिलेगा, कैसे मिलेगा, कहाँ मिलेगा, बड़ा अच्छा आदमी है, हमारा हितैषी है, हमारा प्रेमी है' इत्यादि। ठीक इसी प्रकार, जिससे आपका द्वेष हो जाये, वहाँ भी सदा सर्वत्र मन व्यस्त रहता है कि 'वह कहाँ मिलेगा, कब मिलेगा, कैसे मिलेगा, वह हमारा शत्रु है, अनिष्टकारी है, उसे मारना है' इत्यादि।
उपर्युक्त रीति से प्यार एवं खार दोनों ही में एक सी स्थिति मन की रहती है। यही प्रमुख कारण है कि अनुकूलभाव से मनको श्यामसुन्दर से एक कर देने वाली गोपियाँ भी भगवत-स्वरूपा बन गयीं एवं प्रतिकूल भाव से मन को श्यामसुन्दर में एक कर देने वाले कंसादिक भी भगवत्स्वरूप बन गये। वेदव्यास की उक्ति के अनुसार;
कामं क्रोधं भयं स्नेहमैक्यं सौहृदमेव च।
नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि ते।।
(भागवत 10-29-15)
अर्थात काम से, क्रोध से, भय से, स्नेह से, जैसे-कैसे भी मन का लगाव भगवान में हो जाय, बस उसे भगवान की प्राप्ति होती है। अब आप समझ गये होंगे कि संसार से वैराग्य करने में मन को राग-द्वेष रहित करना होगा अर्थात मन संसार से उदासीन हो जायेगा, यथा;
कबिरा खड़ा बजार में, सबकी माँगे खैर।
ना काहू सों दोस्ती, ना काहू सों बैर।।
बस, यही अवस्था वैराग्य की है। जैसे, एक माँ अपने खोये हुए पुत्र को मेले में ढूँढती है। वह रोती हुई अपने बच्चे को खोज रही है। उसे एक बच्चा पीछे से दिखाई पड़ा जिसके कपड़े, आयु, कद, जूते आदि उसी के बच्चे के समान थे। वह उसी बच्चे को अपना बच्चा समझ बैठी और 'बेटा-बेटा' कहकर दौड़ी। जब उसका मुख देखा तो वह उसका बेटा न था। बस, उसे उस बेटे से वैराग्य हो गया, अर्थात वह माँ न तो उस बेटे को प्यार ही करती है कि हमारा बेटा न मिला न सही, चलो इसी से प्यार करें और न तो शत्रुता ही करती है कि 'क्यों रे, मैंने तो सोचा था कि तू मेरा बेटा है, तू पराया क्यों हुआ?' इत्यादि। बस, इसी अवस्था का नाम वैराग्य है।
जैसे, किसी शराबी को शराब के लिये मदिरालय जाना पड़ता है किंतु मदिरालय के पूर्व कई दुकानें अन्य सामानों की पड़ती हैं। वह उन दुकानों के सामने से तो जाता है, देखता भी जाता है, किन्तु विरक्त है। अर्थात न तो किसी दुकान पर खड़ा होता है कि चलो मदिरा न सही, इस दुकान पर रसगुल्ला ही खा लें और न तो झगड़ा ही करता है कि 'मुझे तो मदिरा चाहिये, तू रसगुल्ला की दुकान क्यों बीच में लगाये बैठा है', इत्यादि। वह सबसे विरक्त होकर अपने मदिरालय के लक्ष्य पर जा रहा है। बस, यही वैराग्य है। इस संसार में सब दुकानों से गुजरता हुआ अपने परमानन्द के केन्द्र भगवान की दुकान पर ही सीधा जाय, अन्यत्र कहीं भी न राग हो न द्वेष हो।
यह ध्यान रहे कि जब तक ईश्वर के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी राग या द्वेष युक्त (आसक्त) रहेगा, तब तक ईश्वर-शरणागति असम्भव है और कब तक संसार में, 'न तो यहाँ हमारा आध्यात्मिक सुख है और न यहाँ हमें बरबस अशान्त करने वाला दुःख ही है', ऐसा ज्ञान परिपक्व न होगा, तब तक वैराग्य भी असम्भव है।
०० व्याख्याकार ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'प्रेम रस सिद्धान्त' पुस्तक
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।
+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
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