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 तीर्थयात्रा में जाकर भी कैसे हम बिना लाभ पाये लौट आते हैं? तीर्थयात्रा का वास्तविक स्वरूप क्या है?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 338

★ भूमिका - प्रस्तुत गद्य में जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुखारविन्द से निःसृत प्रवचन है, जिसमें उन्होंने तीर्थयात्रा के महत्व और उसके वास्तविक स्वरूप/लक्ष्य को प्रकाशित किया है। उन्होंने समझाया है कि कैसे तीर्थयात्रा करके भी हम असावधानी के कारण उसके लाभ से वंचित रह जाते हैं। आइये उनके द्वारा विरचित दोहा व उसकी व्याख्या से हम लाभ प्राप्त करें....

चारों धाम गया आया गोविन्द राधे।
ऐसी तीर्थयात्रा और अहं को बढ़ा दे।।
(स्वरचित दोहा)

हमारे देश में चारों धाम का बड़ा महत्त्व है। कर्मकाण्ड में भी यद्यपि ये चारों धाम लगभग ढाई हजार वर्ष पहले आदि जगदगुरु शंकराचार्य ने स्थापित किये थे। इन सब धामों में मन्दिर बनवाये थे और अपने चार शिष्य चारों मठों में स्थापित किये थे। अब तो सब व्यापार है। तो आजकल बड़ा महत्त्व पण्डितों ने, कर्मकांडियों ने, स्वार्थियों ने गा-गाकर भोले भाले संसारियों को प्रेरित करते हैं कि चारों धाम कर आओ फिर बैकुण्ठ चले जाओगे।

बड़े-बड़े पढ़े लिखे आई.ए.एस. सब जाते हैं लेकिन उनसे पूछो कि कोई भी धर्म कर्म क्यों किया जाता है, एक क्वेश्चन? इसलिये कि अन्तःकरण शुद्ध हो, हमारी सांसारिक वासनायें कम हों, न खतम हों, कम तो हों। हमारे काम, हमारा क्रोध, हमारे लोभ, हमारे मोह - ये सब कम हों, यही हर धर्म का परिणाम होना चाहिये। लेकिन होता क्या है, यहाँ से तो हमने बड़ा त्याग किया, बीबी बच्चों का भी त्याग किया, व्यापार का भी, सर्विस से भी छुट्टी ली कि हाँ जायेंगे चारों धाम, पैसा भी खर्च किया, शारीरिक कष्ट भी किया।

अरे! प्रवास में क्या होता है? वहाँ पहुँचकर दर्शन किया, मन्दिर के भगवान का और दर्शन करने का परिणाम क्या हुआ? अरे! नौ दिन हो गया, बच्चा बीमार था और वहाँ व्यापार में मुनीम ने गड़बड़ न कर दिया हो, अब चलना चाहिये। क्या मतलब? क्या मतलब? मतलब दर्शन के बाद और संसार घुस गया वहीं मन्दिर ही में, उसका चिन्तन होने लगा। खैर वहाँ से लौट आये बड़ी शान से, चारों धाम कर आये।

अब बिना पूछे लोगों को बता रहा है। अरे भाई! तुम कहाँ गये थे, दिखाई नहीं पड़े कई दिनों से? हम चारों धाम करने गये थे। भीतर से भी अहंकार और बाहर से भी अपना प्रचार कर रहा है। ये मिला। अन्तःकरण शुद्धि के बजाय उलटा फल मिला। मन तो संसार में था तो चारों धाम, आठों धाम, करोड़ों धाम करो इससे क्या होगा? अगर वहाँ जाकर भगवान का चिन्तन करते, संसार को भुला देते और उसी भावना से लौटते और कुछ प्रचार न करके उसको छिपाकर रखते टी अन्तःकरण की थोड़ी बहुत तो शुद्धि होती और शुद्धि होने की पहचान यही कि संसार का अटैचमेन्ट माइनस हुआ। अरे! टेन परसेन्ट भी हो तो चलो कुछ तो मिला। कुछ नहीं। ये अहंकार और बढ़ गया, प्लस हो गया, माइनस कुछ नहीं हुआ। हमारे संसार में ऐसे लोग तीर्थ यात्रादि, धर्म-कर्म करते हैं।

०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'जय गंगा मैया' प्रवचन पुस्तक
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.)

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