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  संसार में मृत्युलोक से लेकर स्वर्ग और उससे आगे ब्रम्हलोक तक भी सुख नहीं है! जानें, वास्तविक सुख कहाँ है, कैसे मिलेगा?
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 340

(भूमिका - प्रस्तुत अंश जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा लिखित 'प्रेम रस सिद्धान्त' पुस्तक से लिया गया है। इस पुस्तक में आचार्यश्री ने अध्यात्म-जगत के प्रत्येक विषय का अनेक अध्यायों यथा; जीव का चरम लक्ष्य, ईश्वर का स्वरूप, भगवत्कृपा, शरणागति, संसार और वैराग्य का स्वरूप, महापुरुष, ईश्वर-प्राप्ति के उपाय, कर्म, ज्ञान, भक्ति, भगवान के अवतार रहस्य, भक्तियोग, कर्मयोग की क्रियात्मक साधना तथा कुसंग का स्वरूप आदि में विशद रूप से और बड़ी ही सरल भाषाशैली में वर्णन किया है। भगवत्प्रेमपिपासु जीव के लिये यह ग्रंथ अनमोल है। आइये इसी ग्रन्थ के अध्याय - 5, 'संसार के स्वरूप' के एक अंश पर विचार करें....)

...समस्त ब्रह्मलोक पर्यन्त के आनन्द में सर्वत्र एक सी अशान्ति, अतृप्ति एवं अपूर्णता रहती है। वास्तविक आनन्द इन सबसे करोड़ों कोस दूर है, जिसे पाने के पश्चात् व्यक्ति पूर्णकाम हो जाता है, सदा के लिये आनन्दमय हो जाता है, तृप्त हो जाता है, अमृत हो जाता है। गीता कहती है:

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।

अर्थात् हे अर्जुन, ब्रह्मलोक तक वास्तविक सुख नहीं है। वहाँ भी जाकर पुनः भवाटवी का चक्कर लगाना पड़ेगा। पुनः;

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।
(गीता)

केवल मुझको एवं मेरे लोक को प्राप्त करके ही जीव मुक्त हो सकता है, परमानन्द प्राप्त कर सकता है। अब सोचिये, जब ब्रह्मलोक के ऐश्वर्य में भी आनन्द नहीं तो करोड़पति बन कर आनन्द चाहते हैं, कितना बड़ा आश्चर्य है! कैसा भोलापन है। वेदव्यास जी कहते हैं;

यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।
न दुह्यन्ति मनः प्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते॥
(भागवत 9-19-13)

अर्थात् सम्पूर्ण विश्व के सम्पूर्ण पदार्थ स्त्री आदि, यदि एक व्यक्ति को दे दिये जायें तो भी उसकी कामना उसी प्रकार बनी रहेगी, जैसे प्रारम्भ में थी। वेदव्यास जी पुनः कहते हैं;

गिरिर्महान् गिरेरब्धिर्महानब्धेर्नभो महत्।
नभसोऽपि परं ब्रह्म ततोऽप्याशा दुरत्यया॥

अर्थात् पहाड़ बड़ा होता है। उससे बड़ा समुद्र होता है। उससे बड़ा आकाश होता है। उससे बड़ा भगवान् होता है, जिसे अनन्त कहा जाता है किन्तु उससे भी बड़ी एक वस्तु है, उसका नाम है, वासना। भावार्थ यह कि अज्ञेय भगवान् को जाना जा सकता है, अचिंत्य भगवान् का चिन्तन किया जा सकता है, अदृष्ट भगवान् को देखा जा सकता है, अव्यवहार्य भगवान् को व्यवहार में लाया जा सकता है किन्तु, अनादि काल से अब तक के इतिहास में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं हुआ, न आगे होगा, जो इन्द्रियों के विषयों के सामान को पाकर पूर्णकाम हो जाय, वे सामान भले ही ब्रह्मलोक की कक्षा के हों। आप लोग सुनते होंगे, शास्त्रों में लिखा है कि कहीं स्वर्ग है, वहाँ बड़ा सुख है। कुछ लोग तदर्थ प्रयत्न करते हैं। किन्तु, वेद कहता है-

अविद्यायां बहुधा वर्तमाना वयं कृतार्था इत्यभिमन्यन्ति बालाः।
यत्कर्मिणो न प्रवेदयन्ति रागात् तेनातुराः क्षीणलोकाश्च्यवन्ते॥
(मु० 1-2-3)

अर्थात् घोर मूर्ख लोग स्वर्ग लोक के हेतु प्रयत्न करते हैं, क्योंकि वहाँ भी अज्ञान है, अशान्ति है, अतृप्ति है। वे स्वर्गादिक लोक शोक से परिपूर्ण हैं, सीमित हैं। कुछ दिन के पश्चात् स्वगलोक से नीचे गिरा दिया जायगा और मानवदेह भी छिन सकती है। परिणामस्वरूप कूकर, शूकर, कीट, पतंग आदि योनियों में दुःख भोगना पड़ेगा। इसी आशय से वेदव्यासजी ने कहा कि;

आद्यन्तवन्त एवैषां लोकाः कर्मविनिर्मिताः।
दुःखोदर्कास्तमोनिष्ठाः क्षुद्रानन्दाः शुचार्पिताः।। (भा.)

गीता में बताया कि-

ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।

रामायण ने बताया कि;

स्वर्गहु स्वल्प अन्त दुखदायी।

भावार्थ यह कि स्वर्गादिक लोक भी हमारे लोक की भाँति प्राकृत हैं। वहाँ माया का आधिपत्य है। अतएव हमारा आध्यात्मिक सुख वहाँ भी सर्वथा अप्राप्य है। आश्चर्य यह है कि शास्त्र वेद के माननेवाले भी इस उपर्युक्त बात पर विश्वास नहीं करते। तभी तो जगत् के पदार्थों द्वारा आनन्द की आशा में प्रयत्नशील हैं। यह मानव देह देव-दुर्लभ बतायी गयी है। वेदव्यासोक्ति अनुसार;

नृदेहमाद्यं सुलभं सुदुर्लभं प्लवं सुकल्पं गुरुकर्णधारम्।
मयानुकूलेन नभस्वतेरितं पुमान् भवाब्धिं न तरेत् स आत्महा॥

रामायण कहती है 'सुर दुर्लभ सद्ग्रन्थनि गावा।' अस्तु, जब देवता लोग मानवदेह चाहते हैं, तब मानव यदि स्वर्ग की जनता बनना चाहे तो कितना भोलापन होगा। आप कहेंगे, बात तो ठीक है, किन्तु आश्चर्य होता है कि स्वर्ग के लोग मानवदेह क्यों चाहते हैं? वहाँ उच्चकोटि के सुख प्राप्त हैं। मानव के मृत्युलोक के सुख उनके समक्ष नगण्य हैं। किन्तु, यदि आप यह रहस्य समझ लें तो आश्चर्य न होगा। स्वर्ग केवल भोग-योनि ही है। वहाँ केवल कर्म को भोगवाया जाता है, आप आगे कुछ नहीं कर सकते। किन्तु मानवदेह में भोग भोगने के साथ-साथ उन्नति करके अपने कर्मबन्धनों से छुटकारा पाने का भी सौभाग्य प्राप्त है। मानव साधना द्वारा सदा के लिये माया से उतीर्ण होकर आनन्दमय बन सकता है किन्तु स्वर्ग कर्मयोनि न होने के कारण इससे वंचित है। अतएव स्वर्ग-सम्बन्धी कामना की भावना से प्रयत्न करना घोर नासमझी है। आप लोग अपने पिता आदि पूज्यों के मरने पर कहा करते हैं कि हमारे पूज्य का स्वर्गवास हो गया किन्तु यह रहस्य समझ लेने पर आप ऐसा न कहेंगे, क्योंकि वेदानुसार स्वर्ग जानेवाला जब घोर मूर्ख है तो आप अपने पूज्य को घोर मूर्ख क्यों बनायेंगे।

भावार्थ यह कि स्वर्ग या ब्रह्मलोक में आनन्द नहीं है। फिर हम मृत्युलोक के आंशिक ऐश्वर्य से आनन्द प्राप्ति की कामना करें, यह महान पागलपन है। हमें गम्भीरतापूर्वक सोचना चाहिये कि ईश्वर को छोड़कर जीव का वास्तविक आनन्द अन्यत्र कुत्रापि नहीं हो सकता क्योंकि शेष सब प्रकृति के आधीन हैं एवं प्रकृति के राज्य में आत्मा का सुख सर्वथा असम्भव है।

०० प्रवचनकर्ता ::: जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
०० सन्दर्भ ::: 'प्रेम रस सिद्धान्त', अध्याय - संसार का स्वरूप
०० सर्वाधिकार सुरक्षित ::: राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली के आधीन।

+++ ध्यानाकर्षण/नोट ::: जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज द्वारा प्रगटित सम्पूर्ण साहित्यों की जानकारी/अध्ययन करने, साहित्य PDF में प्राप्त करने अथवा उनके श्रीमुखारविन्द से निःसृत सनातन वैदिक सिद्धान्त का श्रवण करने के लिये निम्न स्त्रोत पर जायें -
(1) www.jkpliterature.org.in (website)
(2) JKBT Application (App for 'E-Books')
(3) Sanatan Vedik Dharm - Jagadguru Kripalu Parishat (App)
(4) Kripalu Nidhi (App)
(उपरोक्त तीनों एप्लीकेशन गूगल प्ले स्टोर पर Android तथा iOS के लिये उपलब्ध हैं.)

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