भगवान के नाम, रूप, गुण तथा उनके संत जन सभी भगवान से अभिन्न हैं और सबमें सबका नित्य वास रहता है!!
जगदगुरु कृपालु भक्तियोग तत्वदर्शन - भाग 438
★ भूमिका - आज के अंक में प्रकाशित दोहा तथा उसकी व्याख्या जगदगुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज द्वारा विरचित ग्रन्थ 'भक्ति-शतक' से उद्धृत है। इस ग्रन्थ में आचार्यश्री ने 100-दोहों की रचना की है, जिनमें 'भक्ति' तत्व के सभी गूढ़ रहस्यों को बड़ी सरलता से प्रकट किया है। पुनः उनके भावार्थ तथा व्याख्या के द्वारा विषय को और अधिक स्पष्ट किया है, जिसका पठन और मनन करने पर निश्चय ही आत्मिक लाभ प्राप्त होता है। आइये उसी ग्रन्थ के 17-वें दोहे पर विचार करें, जिसमें आचार्यश्री ने यह बताया है कि भगवान के नाम, रूप, लीला, गुण, धाम एवं उनके संत सभी भगवान के ही स्वरूप हैं और सबमें सबका नित्य वास रहा करता है...
हरि को नाम रूप गुन, हरिजन नित्य निवास।
सबै एक हरि रूप हैं, सब में सब को वास।।17।।
भावार्थ - श्री कृष्ण एवं उनके नाम, रूप, गुण एवं धाम तथा भक्त सब एक ही हैं। क्योंकि सब में सब का नित्य निवास है।
व्याख्या - श्री कृष्ण स्वयं सच्चिदानंद ब्रह्म हैं। उनकी सभी वस्तुओं का स्वरूप भी तद्रूप है। साधारण लोग समझते हैं कि संसार की भाँति उनके धामादि जड़ हैं किंतु ऐसा नहीं है। उनकी लकुटी , मुरली आदि सभी चेतन एवं श्रीकृष्ण स्वरूप हैं। जो कार्य श्रीकृष्ण कर सकते हैं , वही कार्य उनकी लकुटी एवं मुरली आदि भी करने में समर्थ हैं। अत: इनमें कोई छोटा - बड़ा नहीं है। जब दो ही नहीं है तो छोटे बड़े का प्रश्न ही कहाँ? विनोद में तो कोई श्री कृष्ण को, कोई उनके नाम को , कोई उनके भक्त को बड़ा कह देता है। किंतु वास्तव में भेदभाव मानना नामापराध है। आप कहेंगे कि यदि सब एक हैं तो उनके नामादि से हमारा काम क्यों नहीं बनता? इसका कारण हमारी इंद्रिय मन बुद्धि का मायिक होना है। हम विश्वास ही नहीं कर पाते। सभी जीवों के भीतर भी श्री कृष्ण सदा हैं। एवं अवतार काल में भी सब ने साकार रूप से भी अनंत बार देखा है। किंतु कभी विश्वास नहीं किया।
कवनिउ सिद्धि कि बिनु विश्वासा।
यदि सही गुरु मिल जाय और हम उस पर विश्वास कर लें, तभी हमारा लक्ष्य प्राप्त होगा। अन्यथा असंभव है।
• सन्दर्भ ::: 'भक्ति शतक' ग्रन्थ, दोहा संख्या 17
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