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डोंगरगढ़ में विराजती हैं मां बम्लेश्वरी

आलेख - मंजूषा शर्मा
छत्तीसगढ़ में देवी मंदिरों की श्रृंखला में डोंगरगढ़ का प्रसिद्ध बम्लेश्वरी  मंदिर भी  बरसों से लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है। प्राचीन काल में यह स्थान कामावती नगर के नाम से विख्यात था। समय के साथ राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन द्वारा मंदिर और उसके आस-पास के क्षेत्रों में  भक्तों के लिए अनेक सुविधाओं का विस्तार किया गया है, जिससे यहां अब और भी भक्त पहुंचने लगे हैं। वैसे तो साल भर यहां पर भक्तों का आना लगा ही रहता है, लेकिन शारदीय और चैत्र नवरात्र में दूर-दूर से भक्त माता के दरबार में मत्था टेकने के लिए पहुंचते हैं। इस मौके पर पहाड़ी के नीचे भव्य मेला भी लगता है, जो स्थानीय के साथ -साथ अनेक लोगों के लिए रोजगार का साधन भी उपलब्ध कराता है।  
ऊंचे पर्वत पर विराजमान मां बम्लेश्वरी देवी  के दर्शन के लिए श्रद्घालुओं को करीब एक हजार एक सौ एक सीढिय़ां चढऩी पड़ती है।  रोप- वे की सुविधा शुरू हो जाने से भक्तों का माता के दरबार तक पहुंचना और आसान हो गया है।  अतीत के अनेक तथ्यों को अपने गर्भ में समेटे ये पहाड़ी अनादिकाल से जगत जननी मां बमलेश्वरी देवी की सर्वोच्च शाश्वत शक्ति का साक्षी हैं। कहा जाता है कि मां बम्लेश्वरी के आशीर्वाद से भक्तों को शत्रुओं को परास्त करने की शक्ति मिलती है साथ ही विजय का वरदान मिलता है। 1,600 फीट ऊंची पहाड़ी की चोटी पर स्थित मां बमलेश्वरी देवी मंदिर  आध्यात्मिक महत्व के साथ - साथ  कई किंवदंतियों को भी अपने में समाहित किए हुए है।
 दो- पहर आरती का  महत्व
 मां बम्लेश्वरी के दरबार में दो- पहर होने वाली आरती का भी काफी महत्व है।  घंटी-घडियालों के बीच आरती की लौ के साथ मंदिर में भक्ति का अलौकिक नजारा देखने वालों को बांध लेता है, भक्ति के रस में डुबो देता है।  मां बम्लेश्वरी बगलामुखी का रूप हैं , जो  हिमाचल के कांगड़ा में सुंदर पहाडिय़ों के बीच साक्षात विराजमान हैं। मान्यता है कि 10 महाविद्याओं में से एक मां बगलामुखी के  दरबार में भगवान राम ने तपस्या कर रावण पर विजय प्राप्त करने का आशीर्वाद प्राप्त किया था।
 अद्भुत है माता की महिमा
चारों तरफ पहाड़ों से घिरे डोंगरगढ़ का इतिहास अद्भुत है। राजा विक्रमादित्य से लेकर खैरागढ़ रियासत तक के कालपृष्ठों में मां बम्लेश्वरी की महिमा गाथा मिलती है।   दंतकथा है कि आज के करीब ढाई हजार साल पहले इस नगर का नाम कामावतीपुरी था। यहां राजा वीरसेन का शासन था। उनकी कोई संतान नहीं थी। राजा को यह जानकारी मिली कि नर्मदा नदी के तट पर एक तीर्थ है, महिष्मती, जहां भगवान शिव की आराधना करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।  राजा-रानी ने शुभ मुहुर्त में नर्मदा नदी के तट पर भगवान शंकर और पार्वती की आराधना की। इस प्रार्थना के एक वर्ष बाद उन्हें सुंदर पुत्र की प्राप्ति हुई। इस चमत्कार से अभिभूत होकर राजा वीरसेन ने पहाड़ी की चोटी पर मां पार्वती के मंदिर की स्थापना की। भगवान शिव अर्थात महेश्वर की पत्नी होने के कारण पार्वती जी का नाम महेश्वरी भी है। कालान्तर में महेश्वरी देवी ही बम्लेश्वरी कहलाने लगी। तब से ऐसी मान्यता है कि मां बम्लेश्वरी की जो सच्चे मन से पूजा करता है, उसके सब दुख-दर्द दूर हो जाते हैं।
वैसे भी डोंगरगढ़ की पर्वतवासिनी, मां बम्लेश्वरी के मंदिर की प्राचीनता संदेह की परिधि से सर्वथा बाहर है क्योंकि आस्था का आंकलन कभी नहीं किया जाता। यहां पर मां शक्ति बम्लेश्वरी रूप में विराजमान हैं जो करीब ढाई हजार से अधिक वर्षों से करोड़ों श्रद्घालुओं की श्रद्घा एवं उपासना का केंद्र बनी हुई है।
डोंगरगढ़ तहसील
बात करें डोंगरगढ़ की तो यह राजनांदगांव जिले की सबसे बड़ी तहसील है।  राजसी पहाड़ों और तालाबों के साथ, डोंगगढ़ शब्द से लिया गया है- डोंगर का मतलब पहाड़ और गढ़ का अर्थ  किला है।  पहले डोंगरगढ़ रियासत में शामिल था और खैरागढ़ नरेश कमल नारायण सिंह की वजह से इसकी ख्याति दूर-दूर तक पहुंची।   उन्होंने ही पहाड़ी की तलहटी पर छोटी बम्लई माता मंदिर का निर्माण करवाया।  सन् 1964 में मंदिर के संचालन के लिए राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह ने एक समिति बनाई जो श्री बम्लेश्वरी मंदिर ट्रस्ट समिति के नाम से जानी जाती है। इस समिति ने बम्लेश्वरी मंदिर के विकास में अहम भूमिका निभाई।  
 करीब एक हजार सीढिय़ों की चढ़ाई करने के बाद जब भक्त ऊंची पहाड़ी पर माता के दरबार में पहुंचते हैं, तो उनकी सारी थकान छूमंतर हो जाती है। मां का प्रताप ही कुछ ऐसा है। ऊपर से डोंगरगढ़ शहर को देखना अपने आप में रोमांचक अनुभव है। नवरात्र के दौरान रात्रि में पूरी पहाड़ी रौशनी से जगमगा उठती है। दिन के समय यहां पहुंचे तो पहाड़ों  और जंगलों की नैसर्गिक सुषमा यात्रियों के मन को शांति प्रदान करने के साथ ही अलौकिक सुख का अनुभव कराती है।
अन्य आकर्षण-
तपस्वी तालाब से जुड़ी हैं कई मान्यताएं
पहाड़ी की तलहटी पर तपस्वी तालाब भी है जिसके बारे में कई मान्यताएं और किवदंतियां हैं।  कहा जाता है कि ऋषि-मुनि इसके आसपास की गुफाओं में तप करने  आते थे इसलिए इसका नाम तपस्वी तालाब हो गया।
टोनही बम्लाई का मंदिर
डोंगरगढ़ में मां रणचण्डी देवी का मंदिर भी भक्तों की आस्था का केंद्र है जिसे  टोनही बम्लाई भी कहा जाता है। मान्यता है कि इस मंदिर में पहले इस बात की जांच पड़ताल की जाती थी कि संबंधित व्यक्ति जादू-टोने का शिकार तो नहीं है। मंदिर में भक्त दीपक या अगरबत्ती जलाने के लिए अगर माचिस जलाता है और उसकी माचिस नहीं जलती है तो यह माना जाता है कि उस पर जादू-टोना किया गया है। माचिस अगर जल जाती है तो तंत्र-मंत्र की बात निर्मूल साबित होती है।
मंदिर मार्ग में रणचण्डी मंदिर के अलावा नागदेवता का मंदिर भी है। भीम पैर के संदर्भ में भी कई दंत कथाएं हैं। कहा जाता है कि पाण्डव और भगवान राम ने भी इस नगरी में कुछ वक्त व्यतीत किया था।
सभी सम्प्रदाय की इबादतगाह
मां बम्लेश्वरी मंदिर के लिए विख्यात डोंगरगढ़ में हिन्दू- मुस्लिम-सिख-ईसाई सभी सम्प्रदाय की इबादतगाह भी है। मुस्लिम समाज यहां टेकरी वाले बाबा और कश्मीर वाले बाबा की दरगाह में सजदा करते हैं, तो सिख ऐतिहासिक गुरूद्वारे में कीर्तन। ईसाइयों का ब्रिटिश कालीन चर्च भी मौजूद है। बौद्घ धर्मावलंबियों ने यहां प्रज्ञागिरी में भगवान बुद्घ की विशाल प्रतिमा स्थापित की है, जो दूर से स्पष्ट नजर आ जाती है।   
आदिवासियों के अराध्य बूढ़ादेव के मंदिर की अपनी अलग दंत कथा है तो दंतेश्वरी मैया भी यहां विराजमान है। मूंछ वाले राजसी वैभव के हनुमान जी की छह फीट ऊंची मूर्ति के अलावा खुदाई में निकली जैन तीर्थंकर चंद्रप्रभु की प्रतिमा भव्य एवं विशाल है।

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