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- कोसल एक महाजनपद था। कोसल उत्तरी भारत का प्रसिद्ध जनपद था जिसकी राजधानी विश्वविश्रुत नगरी अयोध्या थी। उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जि़ला, गोंडा और बहराइच के क्षेत्र शामिल थे। वाल्मीकि रामायण में इसका उल्लेख है।यह जनपद सरयू (गंगा नदी की सहायक नदी) के तटवर्ती प्रदेश में बसा हुआ था। सरयू के किनारे बसी हुई बस्ती का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में हो सकता है यही बस्ती आगे चलकर अयोध्या के रूप में विकसित हो गयी। इस उद्धरण में चित्ररथ को इस बस्ती का प्रमुख बताया गया है। शायद इसी व्यक्ति का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में भी है।रामायण-काल में कोसल राज्य की दक्षिणी सीमा पर वेदश्रुति नदी बहती थी। श्री रामचंद्रजी ने अयोध्या से वन के लिए जाते समय गोमती नदी को पार करने के पहले ही कोसल की सीमा को पार कर लिया था । वेदश्रुति तथा गोमती पार करने का उल्लेख अयोध्याकाण्ड में है और तत्पश्चात स्यंदिका या सई नदी को पार करने के पश्चात श्री राम ने पीछे छूटे हुए अनेक जनपदों वाले तथा मनु द्वारा इक्ष्वाकु को दिए गए समृद्धिशाली (कोसल) राज्य की भूमि सीता को दिखाई।माना जाता है कि राजा दशरथ की रानी कौशल्य दक्षिण कोसल (रायपुर-बिलासपुर के जि़ले, छत्तीसगढ़) की राजकन्या थी। कालिदास ने रघुवंश में अयोध्या को उत्तर कोसल की राजधानी कहा है। रामायण-काल में अयोध्या बहुत ही समृद्धिशाली नगरी थी।महाभारत में भीमसेन की दिग्विजय-यात्रा में कोसल-नरेश बृहद्बल की पराजय का उल्लेख है। अंगुत्तरनिकाय के अनुसार बुद्धकाल से पहले कोसल की गणना उत्तर भारत के सोलह जनपदों में थी। इस समय विदेह और कोसल की सीमा पर सदानीरा (गंडकी) नदी बहती थी। बुद्ध के समय कोसल का राजा प्रसेनजित् था जिसने अपनी पुत्री कोसला का विवाह मगध-नरेश बिंबिसार के साथ किया था। काशी का राज्य जो इस समय कोसल के अंतर्गत था, राजकुमारी को दहेज में उसकी प्रसाधन सामग्री के व्यय के लिए दिया गया था। इस समय कोसल की राजधानी श्रावस्ती में थी। अयोध्या का निकटवर्ती उपनगर साकेत बौद्धकाल का प्रसिद्ध नगर था। जातकों में कोसल के एक अन्य नगर सेतव्या का भी उल्लेख है। छठी और पांचवीं शती ईर्पू में कोसल मगध के समान ही शक्तिशाली राज्य था किन्तु धीरे-धीरे मगध का महत्व बढ़ता गया और मौर्य-साम्राज्य की स्थापना के साथ कोसल मगध-साम्राज्य ही का एक भाग बन गया। इसके पश्चात इतिहास में कोसल की जनपद के रूप में अधिक महत्ता नहीं दिखाई देती हालांकि इसका नाम गुप्तकाल तक साहित्य में प्रचलित था।विष्णु पुराण के इस उद्धरण में सम्भवत: गुप्तकाल के पूर्ववर्ती काल में कोसल का अन्य जनपदों के साथ ही देवरक्षित नामक राजा द्वारा शासित होने का वर्णन है। यह दक्षिण कोसल भी हो सकता है। गुप्तसम्राट समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में 'कोसलक महेंद्रÓ या कोसल (दक्षिण कोसल) के महेन्द्र का उल्लेख है जिस पर समुद्रगुप्त ने विजय प्राप्त की थी। कुछ विदेशी विद्वानों (सिलवेन लेवी, जीन प्रेज्रीलुस्की) के मत में कोसल आस्ट्रिक भाषा का शब्द है। आस्ट्रिक लोग भारत में द्रविड़ों से भी पूर्व आकर बसे थे ।----
- यष्टिमधु या मुलहठी (लैटिन में Glycyrrhiza glabra) एक प्रसिद्ध और सर्व-सुलभ जड़ी है। स्वाद में मीठी होने के कारण इसे यष्टिमधु कहा जाता है । हिंदी में इसे - मुलहठी , संस्कृत में यष्टीमधु, बंगाली में यष्टिमधु, गुजराती में जेठोमधु, अंग्रेजी में लाहकोरिस रुट, पंजाबी में मुलहठी, अरबी में असलुस्सूस, तेलगु में यष्टिमधुकम, मराठी में जेष्टिमध, फारसी में बिखेमहक।मुलहठी खांसी, जुकाम, उल्टी व पित्त को बंद करती हैं। मुलहठी की अम्लता (लवण) में कभी व क्षतिग्रस्त व्रणों(जख्मों) में सुधार लाता हैं। अम्लोत्तेजक पदार्थ को खाने पर होने वाली पेट की जलन, और दर्द को ठीक करता हैं। पेप्टिक अल्सर तथा इससे होने वाली खून की उल्टी में मुलहठी अच्छा प्रभाव छोड़ती हैं। मुलहठी का कड़वी औषधियों का स्वाद बदलने के लिये काम में लिया जाता हैं। मुलहठी अंखों के लाभदायक, वीर्यवर्धक, बालों, आवाज सुरीला बनाने वाली, सूजन में लाभकारी हैं। मुलहठी विष, खून की बीमारियों, प्यास और क्षय (टी.बी.) को समाप्त करती हैं।सामान्यतया मुलहठी ऊंचाई वाले स्थानों पर ही होती है । भारत में जम्मू-कश्मीर, देहरादून, सहारनपुर तक इसे लगाने में सफलता मिली है । वैसे बाजार में अरब, तुर्किस्तान, अफगानिस्तान से आई मुलहठी ही सामान्यतया पाई जाती है । पर ऊंचे स्थानों पर इसकी सफलता ने वनस्पति विज्ञानियों का ध्यान इसे हिमालय की तराई वाले खुश्क स्थानों पर पैदा करने की ओर आकर्षित किया है । बोटानिकल सर्वे ऑफ इण्डिया इस दिशा में मसूरी, देहरादून फ्लोरा में इसे खोजने और उत्पन्न करने की ओर गतिशील है । इसी कारण अब यह विदेशी औषधि नहीं रही ।मुलहठी में मिलावट बहुत पाई जाती है । मुख्य मिलावट वेल्थ ऑफ इण्डिया के वैज्ञानिकों के अनुसार मचूरियन मुलहठी की होती है। एक अन्य जड़ जो काफी मात्रा में इस सूखी औषधि के साथ मिलाई जाती है, व्यापारियों की भाषा में एवस प्रिकेटोरियम (रत्ती, घुमची या गुंजा के मूल व पत्र) कहलाती है ।असली मुलहठी अन्दर से पीली, रेशेदार और हल्की गंध वाली होती है । ताजा मुलहठी में 50 प्रतिशत जल होता है जो सुखाने पर मात्र दस प्रतिशत रह जाता है । इसका प्रधान घटक जिसके कारण यह मीठे स्वाद की होती है, ग्लिसराइजिन होता है जो ग्लिसराइजिक एसिड के रूप में विद्यमान होता है । यह साधारण शक्कर से भी 50 गुना अधिक मीठा होता है । यह संघटक पौधे के उन भागों में नहीं होता जो जमीन के ऊपर होते हैं । विभिन्न प्रजातियों में 2 से 14 प्रतिशत तक की मात्रा इसकी होती है । ग्लिसराइजिन के अतिरिक्त इसमें आएसो लिक्विरिटन (एक प्रकार का ग्लाइकोसाइड स्टेराइड इस्ट्रोजन) (गर्भाशयोत्तेजक हारमोन), ग्लूकोज (लगभग 3.5 प्रतिशत), सुक्रोज (लगभग 3 से 7 प्रतिशत), रेसिन (2 से 4 प्रतिशत), स्टार्च (लगभग 40 प्रतिशत), उडऩशील तेल (0.03 से 0.35 प्रतिशत) आदि रसायन घटक भी होते हैं ।मुलहठी का पीला रंग ग्लाइकोसाइड-आइसोलिक्विरिटन के कारण है । यह 2.2 प्रतिशत की मात्रा में होता है एवं मुख में विद्यमान लार ग्रंथियों को उत्तेजित कर भोज्य पदार्थों के पाचन में सहायक सिद्ध होता है। मुलहठी का उत्पत्ति स्थान अफगान प्रदेश होने के कारण सामान्यतया वहीं की भाषा में इसे रब्बुस्सू नाम से पुकारते हैं ।---
- मजीठ (RUNIA CARDIFOLIA) (मंजिष्ठा) भारत के पर्वतीय प्रदेशों में पाई जाती है। मजीठ के फूलों का रंग सफेद और फल का रंग काला होता है। मजीठ का रस मधुर (मीठा), तीखा और कषैला होता है। मजीठ बेल के पत्ते झाड़ीनुमा होते हैं, जिसकी जड़ें जमीन में दूर-दूर तक फैली होती हैं। इसकी टहनियां कई फुट लंबी, नर्म, खुरदरी और जड़ की तरफ कठोर होती हैं। टहनियों का आंतरिक रंग तोडऩे पर जड़ की तरह ही लाल ही लाल निकलता है। इसकी बेलें अक्सर दूसरे पेड़ों पर सहारा लेकर चढ़ जाती हैं। मजीठ की पत्तियां चारों तरफ लगती हैं, जिसकी 2 छोटी और 2 बड़ी पत्तियां होती हैं। इसके फूल गुच्छों में छोटे-छोटे होते हैं। इसके फल चने के आकार के होते हैं। मजीठ की जड़ लंबी होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार मजीठ की रासायनिक संरचना का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि मजीठ की जड़ में राल, शर्करा, गोन्द, चूने के योग, और रंजक पदार्थ पाए जाते हैं। रंजक पदार्थों में मुख्य रूप से गेरेनसिन, पर्पुरिन, मंजिष्ठिन, अलाजरिन और जेन्थीन मिलते हैं।मजीठ की तासीर गर्म होती है। मजीठ भारी, कडुवी, विष, कफ और सूजननाशक होती है। यह पीलिया (कामला), प्रमेह, खून की खराबी (रक्तविकार), आंख और कान के रोग, कुष्ठ (कोढ़), खूनी दस्त (रक्तातिसार), पेशाब की रुकावट, वात रोग, सफेद दाग, मासिक-धर्म के दोष, चेहरे की झांई, त्वचा के रोग, पथरी, आग से जले घाव में अत्यन्त गुणकारी है।विभिन्न भाषाओं में नाम - हिन्दी, मजीठ, संस्कृत, मंजिष्ठा, मराठी, मंजिष्ठा, गुजराती, मजीठ, बंगाली, मंजिष्ठा, अंग्रेजी-मेडर रूट, लैटिन-रूबिआ कोर्डिफोलिया---
- कुरु, भारत के पौराणिक 16 महाजनपदों में से एक था। आधुनिक हरियाणा तथा दिल्ली का यमुना नदी के पश्चिम वाला अंश इसमें शामिल था । इसकी राजधानी आधुनिक दिल्ली (इन्द्रप्रस्थ) थी ।प्राचीन देश कुरु का हिमालय के उत्तर का भाग उत्तर कुरु और हिमालय के दक्षिण का भाग दक्षिण कुरु के नाम से विख्यात था। भागवत के अनुसार युधिष्ठर का राजसूय यज्ञ और श्रीकृष्ण का रुक्मिणी के साथ विवाह यहीं हुआ था।महाभारतकाल में हस्तिनापुर कुरु-जनपद की राजधानी थी। महाभारत से ज्ञात होता है कि कुरु की प्राचीन राजधानी खांडवप्रस्थ थी। कुरु-श्रवण नामक व्यक्ति का उल्लेख ऋग्वेद में है। अथर्ववेद संहिता 20,127,8 में कौरव्य या कुरु देश के राजा का उल्लेख है। वहीं वैदिक साहित्य के अनुसार कुरु प्रसिद्ध चंद्रवंशी राजा था। कुरु के पिता का नाम संवरण तथा माता का नाम तपती था। शुभांगी तथा वाहिनी नामक इनकी दो पत्नियां थीं। वाहिनी के पांच पुत्र हुए जिनमें कनिष्ठ का नाम जनमेजय था जिसके वंशज धृतराष्ट्र और पांडु हुए। सामान्यत: धृतराष्ट्र की संतान को ही कौरव संज्ञा दी जाती है, पर कुरु के वंशज कौरव-पांडवों दोनों ही थे। अग्नीध के एक पुत्र का नाम कुरु था जिनकी स्त्री मेरूकन्या प्रसिद्ध है।महाभारत के अनेक वर्णनों से विदित होता है कि कुरुजांगल, कुरु और कुरुक्षेत्र इस विशाल जनपद के तीन मुख्य भाग थे। कुरुजांगल इस प्रदेश के वन्यभाग का नाम था जिसका विस्तार सरस्वती तट पर स्थित काम्यकवन तक था। खांडव वन भी जिसे पांडवों ने जला कर उसके स्थान पर इन्द्रप्रस्थ नगर बसाया था, इसी जंगली भाग में सम्मिलित था और यह वर्तमान नई दिल्ली के पुराने किले और कुतुब के आसपास रहा होगा।मुख्य कुरु जनपद हस्तिनापुर (जि़ला मेरठ, उप्र) के निकट था। कुरुक्षेत्र की सीमा तैत्तरीय आरण्यक में इस प्रकार है- इसके दक्षिण में खांडव, उत्तर में तूध्र्न और पश्चिम में परिणाह स्थित था। संभव है ये सब विभिन्न वनों के नाम थे। कुरु जनपद में वर्तमान थानेसर, दिल्ली और उत्तरी गंगा द्वाबा (मेरठ-बिजनौर जि़लों के भाग) शामिल थे।पपंचसूदनी नामक ग्रंथ में वर्णित अनुश्रुति के अनुसार इलावंशीय कौरव, मूल रूप से हिमालय के उत्तर में स्थित प्रदेश (या उत्तरकुरु) के रहने वाले थे। कालांतर में उनके भारत में आकर बस जाने के कारण उनका नया निवासस्थान भी कुरु देश ही कहलाने लगा। इसे उनके मूल निवास से भिन्न नाम न देकर कुरु ही कहा गया। केवल उत्तर और दक्षिण शब्द कुरु के पहले जोड़ कर उनकी भिन्नता का निर्देश किया गया।महाभारत में भारतीय कुरु-जनपदों को दक्षिण कुरु कहा गया है और उत्तर-कुरुओं के साथ ही उनका उल्लेेख भी है। अंगुत्तर-निकाय में सोलह महाजनपदों की सूची में कुरु का भी नाम है जिससे इस जनपद की महत्ता का काल बुद्ध तथा उसके पूर्ववर्ती समय तक प्रमाणित होता है।महासुत-सोम-जातक के अनुसार कुरु जनपद का विस्तार तीन सौ कोस था। जातकों में कुरु की राजधानी इन्द्रप्रस्थ में बताई गई है। हत्थिनापुर या हस्तिनापुर का उल्लेख भी जातकों में है। ऐसा जान पड़ता है कि इस काल के पश्चात और मगध की बढ़ती हुई शक्ति के फलस्वरूप जिसका पूर्ण विकास मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ हुआ, कुरु, जिसकी राजधानी इस्तिनापुर राजा निचक्षु के समय में गंगा में बह गई थी और जिसे छोड़कर इस राजा ने वत्स जनपद में जाकर अपनी राजधानी कौशांबी में बनाई थी, धीरे-धीरे विस्मृति के गर्त में विलीन हो गया। इस तथ्य का ज्ञान जैन उत्तराध्यायन सूत्र से होता है ।----
- "हिमालयन वियाग्रा" के नाम से विख्यात एक बहुमूल्य कैटरपिलर फफूंद जो बड़ी आसानी से मिल जाती थी अब जलवायु परिवर्तन के कारण दुर्लभ होती जा रही है। नपुंसकता से लेकर कैंसर तक के इलाज के लिए इसे बेचा जाता है।इसकी कीमत सोने से तीन गुना ज्यादा है। चीन और नेपाल के लोग फफूंद के लिए होने वाली लड़ाइयों में जान भी गंवाते रहे हैं। वहां इसे "यारचागुंबा" कहा जाता है, हालांकि आधिकारिक रूप से इसका नाम ओफियोकॉर्डेसेप्स सिनेन्सिस है। वैज्ञानिक रूप से इसके फायदों की पुष्टि अभी नहीं हुई है, लेकिन लोग इसे पानी में उबाल कर चाय बनाते हैं या फिर सूप और स्ट्यू में मिलाते हैं। इस्तेमाल करने वालों का मानना है कि इससे नपुंसकता से लेकर कैंसर तक का इलाज हो सकता है। एक अमेरिकी जर्नल में छपी रिपोर्ट प्रोसिडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में कहा गया है, "यह दुनिया के सबसे कीमती जैविक उत्पादों में से एक है। यह इसे जमा करने वाले सैकड़ों हजारों लोगों के लिए कमाई का एक बड़ा जरिया मुहैया कराती है। "रिसर्चरों के मुताबिक हाल के दशकों में इसकी लोकप्रियता बड़ी तेजी से बढ़ी है और इसके साथ ही इसकी कीमतें भी आसमान पर पहुंच गई हैं। फिलहाल इसकी कीमत सोने के मुकाबले तीन गुना ज्यादा है। बहुत से लोग यह भी संदेह जताते हैं कि कहीं बहुत ज्यादा उगाने के चक्कर में तो इसकी कमी नहीं हो गई है। रिसर्चरों ने इस बारे में जानकारी जुटाने के लिए बहुत से किसानों, संग्राहकों और व्यापारियों से इस बारे में बातचीत की। उन्होंने पुराने साइंस जर्नलों को भी खंगाला और नेपाल, भूटान, भारत और चीन के 800 से ज्यादा लोगों से बात की ताकि समझ सकें कि आखिर इसकी कमी की क्या वजह है।मौसमी बदलाव, भौगोलिक कारक और पर्यावरण की परिस्थितियों का भी विश्लेषण किया गया। रिपोर्ट में कहा गया है, "चार देशों से पिछले दो दशकों के आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि पूरे इलाके में इस फफूंद में कमी आई है। "शंकु के आकार वाली यह फफूंद केवल 11 हजार 500 फीट या उससे ऊपर के इलाकों में मिलती है। परजीवी फफूंद कैटरपिलर पर खुद को स्थापित करने के बाद इसे धीरे-धीरे मार देती है और खुद फैल जाती है। विकसित होने के लिए इसे एक खास जलवायु की जरूरत होती है जो बेहद ठंडा होना चाहिए यानी तापमान शून्य डिग्री से नीचे। इसके साथ ही मिट्टी स्थायी रूप से जमी नहीं होनी चाहिए।रिसर्चरों ने यह भी देखा कि तिब्बती पठारों में मौसम गर्म होने की स्थिति में इस फफूंद का फैलाव ऊपर के ठंडे इलाकों की तरफ नहीं हुआ। रिसर्चरों का कहना है कि इसका मतलब साफ है कि अगर हिमालयी क्षेत्र में मौसम गर्म होता रहा तो यह ऊपर के इलाकों की तरफ नहीं जाएगी। ऐसे में उन लोगों की रोजी रोटी पर बुरा असर पड़ेगा जो इसी फफूंद से होने वाली कमाई पर निर्भर हैं।----
- कुम्भलगढ़ का दुर्ग राजस्थान ही नहीं भारत के सभी दुर्गों में विशिष्ठ स्थान रखता है। उदयपुर से 70 किमी दूर समुद्र तल से 1,087 मीटर ऊंचा और 30 किमी व्यास में फैला यह दुर्ग मेवाड़ के महाराणा कुम्भा की सूझबूझ और प्रतिभा का अनुपम स्मारक है। इस दुर्ग का निर्माण सम्राट अशोक के द्वितीय पुत्र संप्रति के बनाये दुर्ग के अवशेषों पर 1443 से शुरू होकर 15 वर्षों बाद 1458 में पूरा हुआ था। दुर्ग का निर्माण कार्य पूर्ण होने पर महाराणा कुम्भा ने सिक्के ढलवाये जिन पर दुर्ग और उसका नाम अंकित था। वास्तुशास्त्र के नियमानुसार बने इस दुर्ग में प्रवेश द्वार, प्राचीर, जलाशय, बाहर जाने के लिए संकटकालीन द्वार, महल, मंदिर, आवासीय इमारतें, यज्ञ वेदी, स्तम्भ, छत्रियां आदि बने है।यह किला राजस्थान के राजसमन्द जिले में स्थित है। इस किले को अजेयगढ़ कहा जाता था क्योंकि इस किले पर विजय प्राप्त करना दुष्कर कार्य था। इसके चारों ओर एक बड़ी दीवार बनी हुई है जो चीन की दीवार के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी दीवार है। यह दुर्ग कई घाटियों व पहाडिय़ों को मिला कर बनाया गया है जिससे यह प्राकृतिक सुरक्षात्मक आधार पाकर अजेय रहा। इस दुर्ग में ऊंचे स्थानों पर महल, मंदिर व आवासीय इमारते बनाईं गर्इं और समतल भूमि का उपयोग कृषि कार्य के लिए किया गया। वहीं ढलान वाले भागों का उपयोग जलाशयों के लिए कर इस दुर्ग को यथासंभव स्वाबलंबी बनाया गया। इस दुर्ग के भीतर एक और गढ़ है जिसे कटारगढ़ के नाम से जाना जाता है। यह गढ़ सात विशाल द्वारों व सुद्रढ़ प्राचीरों से सुरक्षित है। इस गढ़ के शीर्ष भाग में बादल महल है और कुम्भा महल सबसे ऊपर है।महाराणा प्रताप की जन्म स्थली कुम्भलगढ़ एक तरह से मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी रहा है। महाराणा कुम्भा से लेकर महाराणा राज सिंह के समय तक मेवाड़ पर हुए आक्रमणों के समय राजपरिवार इसी दुर्ग में रहा। यहीं पर पृथ्वीराज और महाराणा सांगा का बचपन बीता था। महाराणा उदय सिंह को भी पन्ना धाय ने इसी दुर्ग में छिपा कर पालन पोषण किया था। हल्दी घाटी के युद्ध में हार के बाद महाराणा प्रताप भी काफी समय तक इसी दुर्ग में रहे।इस दुर्ग के अंदर 360 से ज्यादा मंदिर हैं जिनमे से 300 प्राचीन जैन मंदिर तथा बाकि हिन्दू मंदिर हैं। दुर्ग के भीतर एक और गढ़ है जिसे कटारगढ़ के नाम से जाना जाता है यह गढ़ सात विशाल द्वारों व सुदृढ़ प्राचीरों से सुरक्षित है। इस गढ़ के शीर्ष भाग में बादल महल है व कुम्भा महल सबसे ऊपर है।इसकी निर्माण की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। 1443 में राणा कुम्भा ने इसका निर्माण शुरू करवाया पर निर्माण कार्य आगे नहीं बढ़ पाया, निर्माण कार्य में बहुत अड़चने आने लगी। राजा इस बात पर चिंतित हो गए और एक संत को बुलाया। संत ने बताया यह काम तभी आगे बढ़ेगा जब स्वेच्छा से कोई मानव बलि के लिए खुद को प्रस्तुत करे। राजा इस बात से चिंतित होकर सोचने लगे कि आखिर कौन इसके लिए आगे आएगा। तभी संत ने कहा कि वह खुद बलिदान के लिए तैयार है और इसके लिए राजा से आज्ञा मांगी। संत ने कहा कि उसे पहाड़ी पर चलने दिया जाए और जहां वो रूके वहीं उसे मार दिया जाए और वहां एक देवी का मंदिर बनाया जाए। ठीक ऐसा ही हुआ और वह 36 किलोमीटर तक चलने के बाद रूक गया और उसका सिर धड़ से अलग कर दिया गया। जहां पर उसका सिर गिरा वहां मुख्य द्वार "हनुमान पोल" है और जहां पर उसका शरीर गिरा वहां दूसरा मुख्य द्वार है। महाराणा कुंभा के रियासत में कुल 84 किले आते थे जिसमें से 32 किलों का नक्शा उनके द्वारा बनवाया गया था। कुंभलगढ़ भी उनमें से एक है। इस किले की दीवार की चौड़ाई इतनी ज्यादा है कि 10 घोड़े एक ही समय में उस पर दौड़ सकते हैं। एक मान्यता यह भी है कि महाराणा कुंभा अपने इस किले में रात में काम करने वाले मजदूरों के लिए 50 किलो घी और 100 किलो रूई का प्रयोग करते थे जिनसे बड़े-बड़ेे लैम्प जलाकर प्रकाश किया जाता था।
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गिरगिट अपने रंग बदलने की प्रकृति के वजह से काफी लोकप्रिय हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि केवल गिरगिट ही रंग बदलते हैं। दुनिया में एक ऐसी मछली भी है, जो गिरगिट की तरह ही रंग बदल सकती है। हालांकि यह मछली दुर्लभ है। आपको जानकर हैरानी होगी कि इस मछली की खोज भारत में पहली बार की गई है। सेंट्रल मरीन फिशरीज इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने इसे मन्नार की खाड़ी में खोजा है।
इस दुर्लभ मछली का नाम है स्कॉर्पियन फिश, जिसका वैज्ञानिक नाम स्कॉर्पिनोस्पिसिस नेगलेक्टा है। सेंट्रल मरीन फिशरीज इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक डॉ. जेयाबास्करन ने बताया, जब हमने पहली बार इसे देखा तो वह घास में छिपी हुई थी। पता ही नहीं चल रहा था कि वो कोई मछली है या पत्थर का छोटा टुकड़ा। लेकिन चार सेकंड के बाद ही उसने जब अपने शरीर का रंग बदल कर काला कर लिया, तब समझ में आया कि यह दुर्लभ स्कॉर्पियन फिश है।
स्कॉर्पियन फिश शिकार करते समय या शिकारियों से बचाव के समय ही अपना रंग बदलती है। रंग बदलने में माहिर यह मछली बेहद जहरीली भी है। इसके रीढ़ की हड्डी में जहर भरा हुआ रहता है। इसे पकडऩे के लिए बेहद सावधानी बरतनी पड़ती है, नहीं तो यह पल भर में जहर उड़ेल देती है। इसका जहर न्यूरोटॉक्सिक होता है, जो अगर इंसान के शरीर में चला जाए तो भयानक दर्द होता है।
वैज्ञानिकों के मुताबिक समुद्र की गहराईयों में रहने वाली स्कॉर्पियन फिश रात में शिकार करती है। वह एक जगह दुबक कर पहले शिकार के पास आने का इंतजार करती है और पास आते ही उसपर तेजी से हमला कर देती है और झपट कर उसे खा जाती है। - नई दिल्ली। मानव इतिहास में वर्ष 2020 कोरोना महामारी के लिए याद रखा जाएगा, लेकिन भारतीयों ने गूगल पर 2020 में जिसके बारे में सबसे ज्यादा सर्च किया, वह कोरोना वायरस नहीं है... जानिए क्या रहे 2020 के सबसे बड़े गूगल इंडिया सर्च ट्रेंड्स....1. आईपीएलजिस विषय के बारे में भारत के लोगों ने इस साल गूगल पर सबसे ज्यादा सर्च किया, वह है आईपीएल। इसका मतलब तो यह निकलता है कि कुछ भी हो जाए, भारत के लोगों के लिए क्रिकेट से अहम कुछ नहीं है। 2. कोरोना वायरसइस साल कोरोना महामारी से बड़ा कोई मुद्दा नहीं रहा। पूरी दुनिया में इसकी वजह से हाहाकार है, लेकिन भारत के लोगों की गूगल सर्च लिस्ट में यह टॉपिक दूसरे स्थान पर आता है।3. अमेरिकी चुनाव के नतीजेपूरी दुनिया की तरह भारत के लोगों को भी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजों का इंतजार था। इसीलिए यह टॉपिक भारत के गूगल सर्च ट्रेंड्स में टॉप 3 में शामिल है।4. प्रधानमंत्री किसान योजनानए कृषि कानूनों पर किसानों का विरोध लगातार सरकार के लिए सिरदर्द बना हुआ है। इसलिए लोगों की भी इस मुद्दे पर दिलचस्पी है और इस बारे में वे गूगल से पूछे रहे हैं।5. बिहार चुनाव के नतीजेबिहार के चुनाव भारत के गूगल ट्रेंड्स के टॉप 5 में शामिल हैं। व्यापक चुनाव प्रचार और तीखी बयानबाजी के बाद हुए चुनावों में एनडीए अपनी सत्ता बचाने में कामयाब रहा।6. दिल्ली चुनाव नतीजेदिल्ली के विधानसभा चुनाव इस साल की सबसे अहम राजनीतिक घटनाओं में से एक रही, जहां आम आदमी पार्टी ने बीजेपी को बड़े अंतर से हराते हुए सत्ता पर अपनी पकड़ बनाए रखी।7. दिल बेचारा'दिल बेचारा' अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आखिरी फिल्म है जिन्होंने साल 2020 में आत्महत्या कर ली। उनकी मौत के बाद उनकी आखिरी फिल्म के बारे में लोगों ने गूगल में खूब सर्च किया।8. जो बाइडेनभारतीयों की गूगल सर्च लिस्ट में आठवें पायदान पर हैं अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन, जिन्होंने मौजूदा राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप को हराकर साल 2020 अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव जीता।9. लीप डेहर चार साल बाद लीप ईयर आता है जिसमें फरवरी का महीना 29 दिन का होता है। 2020 भी ऐसा ही साल था. तो लोगों ने लीप डे को भी खूब सर्च किया। इसलिए यह इंडिया गूगल सर्च ट्रेंड में नौवें स्थान पर है।10. अर्नब गोस्वामीभारतीय टीवी पत्रकार अर्नब गोस्वामी इस साल बहुत सुर्खियों में रहे। पहले तो वे फ्लाइट में कॉमेडियन कुनाल कामरा उलझ गए और फिर महाराष्ट्र सरकार के साथ उनका लंबा विवाद चला, जेल भी गए। इसके अलावा भी वे कई बार सुर्खियों में रहे। उनके बारे में भी भारतीयों ने गूगल पर काफी सर्च किया।
- बिल्लियां इंसानों के जज्बात समझती हैं। उन्हें एहसास होता है कि कब उनके मालिक का मूड अच्छा है और कब बुरा। बिल्लियां दिन में 16 घंटे सोती हैं बाकी के वक्त में से एक तिहाई यानि लगभग तीन घंटे वे खुद को साफ करने में लगाती हैं। जिस तरह से इंसानों की पहचान फिंगरप्रिंट्स से होती है, वैसे ही बिल्लियां नाक के प्रिंट से पहचानी जाती है। कुत्तों की तुलना में बिल्लियां का दिमाग इंसानों से ज्यादा मेल खाता है। यहां तक कि वे इंसानों की ही तरह सपने भी देखती हैं।स्तनपायी जीवों में बिल्ली की आंखें अपने शरीर के आकार के अनुसार सबसे बड़ी होती हैं। अधिकतर बिल्लियों की पलकें नहीं होतीं। खाने के मामले में बिल्लियां बेहद नखरीली होती हैं। वे भूखी रह लेंगी लेकिन जो खाना उन्हें पसंद नहीं, उसे जबरन नहीं खाएंगी। बिल्ली के दूध के दांत बेहद नुकीले होते हैं। लेकिन ये ज्यादा दिन नहीं रहते। छह महीने बाद ये गिर जाते हैं और नए दांत आते हैं। बिल्लियां जब पैदा होती हैं, तब आम तौर उनकी आंखें नीली होती हैं। वक्त के साथ साथ उनकी आंखों का रंग बदलता रहता है। टर्किश वैन नाम की नस्ल को पानी में रहना बहुत पसंद है। इसके शरीर पर एक ऐसी कोटिंग होती है जिससे यह भींग ही नहीं पाती।बिल्लियां नौ हफ्ते गर्भवती रहती हैं। डस्टी नाम की बिल्ली ने अपने जीवन में 420 बिल्लियोंं को जन्म दिया था। यह रिकॉर्ड 1952 में बना। बिल्ली के आगे के पैरों पर पांच-पांच और पीछे के पैरों पर चार-चार उंगलियां होती हैं। बिल्लियां छलांग लगाने में माहिर होती हैं। वे अपने शरीर के आकार से पांच गुना दूरी तक छलांग लगा सकती है। बिल्लियां के शरीर में कुल 230 हड्डियां होती हैं, यानि इंसानों से 24 ज्यादा। बिल्ली का दिल इंसानों की तुलना में दोगुना तेजी से धड़कता है, एक मिनट में 110 से 140 बार। काली बिल्ली का दिखना अधिकतर जगहों में अपशगुन माना जाता है लेकिन ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया में मान्यता इसके विपरीत है।
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उगते हुए सूरज का देश जापान अपने संस्कृति, खान-पान से लेकर टेक्नोलॉजी के लिए दुनियाभर में मशहूर है। जापान को एशिया का सबसे विकसित देश माना जाता है। यहां के लोगों की गिनती दुनिया में सबसे अधिक कर्मठी के तौर पर होती है।
---जापान से जुड़े कुछ खास रोचक तथ्यों के बारे में जानिए....
जापान के लोग समय के पाबंद होते हैं। यहां के लोग किसी भी काम को समय पर करने के लिए पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। इतना ही नहीं जापान में चलने वाली ट्रेन भी 30 सेकेंड से ज्यादा लेट नहीं होती हैं।
जापान में ऐसा कानून भी है, जिसके तहत बच्चों को 10 साल की उमर तक किसी भी तरह की कोई परीक्षा नहीं देनी पड़ती है। इन 10 सालों में उन्हें बचपन की जिंदगी का मजा लेने का मौका दिया जाता है।\
जापान में सार्वजनिक स्थानों पर जोर-जोर से बोलना या किसी चीज को सूंघना असभ्यता माना जाता है। इतना ही नहीं यहां दो लोगों का हाथ पकड़कर साथ चलना भी अच्छा नहीं माना जाता है। जापान में लोग नववर्ष की खुशी में सबसे पहले मंदिर में जाकर 108 बार घंटियां बजाते हैं।
जापान एक प्राचीन देश है। यहां के रीति-रिवाज और परंपराएं भी बेहद अनूठे हैं। जैसे हमारे देश में लोग हाथ जोड़कर अभिवादन करते हैं, ठीक वैसे ही जापान में किसी भी व्यक्ति के सम्मान में झुककर अभिवादन का रिवाज है। सबसे खास बात ये है कि जो जितना ज्यादा सम्मानित होता है, उसके प्रति उतना ही ज्यादा झुका जाता है। वहीं व्यक्ति भी चाहे कितना भी बड़ा या प्रतिष्ठित हो, वह भी सामने वाले व्यक्ति के अभिवादन में झुक जाएगा। इनके बीच बस झुकाव की डिग्री में अंतर होता है।
जापान के लोग साफ-सफाई के प्रति बहुत जागरुक हैं। विद्यालयों में छात्र और शिक्षक दोनों मिलकर कक्षाओं की सफाई करते हैं। यहां के लोग दीर्घायु होते हैं। जापान के लोगों की औसत उम्र 82 वर्ष है, जो सभी देशों के औसत से अधिक है। -
26 मई को होगा पहला चंद्रग्रहण चंद्रग्रहण
इंदौर। आने वाले साल 2021 में सूर्य, पृथ्वी और चंद्रमा की चाल दुनियाभर के खगोल प्रेमियों को एक पूर्ण चंद्रग्रहण और एक पूर्ण सूर्यग्रहण समेत ग्रहण के चार रोमांचक दृश्य दिखाएगी। हालांकि, भारत में इनमें से केवल दो खगोलीय घटनाएं निहारी जा सकेंगी। उज्जैन की प्रतिष्ठित शासकीय जीवाजी वेधशाला के अधीक्षक डॉ. राजेंद्र प्रकाश गुप्त ने बताया कि अगले साल की इन खगोलीय घटनाओं का सिलसिला 26 मई को लगने वाले पूर्ण चंद्रग्रहण से शुरू होगा। उन्होंने कहा कि नववर्ष का यह पहला ग्रहण सिक्किम को छोड़कर भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों, पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों और ओडिशा के तटीय क्षेत्रों में दिखाई देगा जहां चंद्रोदय देश के दूसरे इलाकों के मुकाबले जल्दी होता है। इस खगोलीय घटना के वक्त चंद्रमा पृथ्वी की छाया से 101.6 प्रतिशत ढक जाएगा। पूर्ण चंद्रग्रहण तब लगता है, जब सूर्य और चंद्रमा के बीच पृथ्वी आ जाती है और अपने उपग्रह चंद्रमा को अपनी छाया से ढक लेती है। चंद्रमा इस स्थिति में पृथ्वी की ओट में पूरी तरह छिप जाता है और उसपर सूर्य की रोशनी नहीं पड़ पाती है। इस खगोलीय घटना के वक्त पृथ्वीवासियों को चंद्रमा रक्तिम आभा लिए दिखाई देता है। लिहाजा इसे ब्लड मून भी कहा जाता है। गुप्त ने भारतीय संदर्भ में की गई कालगणना के हवाले से बताया कि 10 जून को लगने वाला वलयाकार सूर्यग्रहण देश में दिखाई नहीं देगा। इस खगोलीय घटना के वक्त सूर्य और पृथ्वी के बीच चंद्रमा आ जाएगा। इस कारण पृथ्वीवासियों को सूर्य रिंग ऑफ फायर (आग का चमकदार छल्ला) के रूप में 94.3 प्रतिशत ढका नजर आएगा। उन्होंने बताया कि 19 नवंबर को लगने वाले आंशिक चंद्रग्रहण को अरुणाचल प्रदेश और असम के कुछ भागों में बेहद कम समय के लिए निहारा जा सकेगा। इस खगोलीय घटना के चरम पर चंद्रमा का 97.9 प्रतिशत हिस्सा पृथ्वी की छाया से ढका दिखाई देगा। तकरीबन दो सदी पुरानी वेधशाला के अधीक्षक ने बताया कि चार दिसंबर को लगने वाले पूर्ण सूर्यग्रहण के दौरान सूर्य और पृथ्वी के बीच चंद्रमा कुछ इस तरह आ जाएगा कि सौरमंडल का मुखिया सूर्य 103.6 प्रतिशत ढका नजर आएगा। हालांकि, वर्ष 2021 के इस अंतिम ग्रहण को भारत में नहीं निहारा जा सकेगा। समाप्ति की ओर बढ़ रहे वर्ष 2020 में दो सूर्यग्रहण और चार चंद्रग्रहण समेत ग्रहण के छह रोमांचक दृश्य देखे गए। - जेलीफिश बीते 50 करोड़ साल से महासागरों में तैर रही हैं, वो भी बिना दिमाग के। जेलीफिश में मस्तिष्क के बजाए एक बेहद जबरदस्त तंत्रिका तंत्र होता है जो तुरंत सिग्नलों को एक्शन में बदलता है। इसीलिए जेलीफिश की कई प्रजातियों को दिमाग की जरूरत ही नहीं पड़ती।इसे भले ही जेलीफिश कहा जाता हो, लेकिन असल में यह मछली नहीं है। यह मूंगों और एनीमोन के परिवार की सदस्य हैंै। इन्हें मेडुसोजोआ नाम से भी जाना जाता हैै। जेलीफिश के शरीर में 99 फीसदी पानी होता है। वयस्क इंसान के शरीर में करीब 63 फीसदी जल होता हैै। जेलीफिश के शरीर का सबसे बड़ा हिस्सा छत्रनुमा ऊपरी हिस्सा हैै। इसके जरिये जेलीफिश खुराक लेती हैै। धागे जैसे लटके रेशों की मदद से ये शिकार करती हैै। कुछ जेलीफिश में यह रेशे एक मीटर से भी ज्यादा लंबे भी हो सकते हैंै।आमतौर पर लगता है कि जेलीफिश छोटी ही होती हैं, लेकिन ऐसा सोचना गलत हैै। एशियन नोमुरा जेलीफिश दिखने में भले ही बहुत रंगीन न हो, लेकिन ये काफी बड़ी भी होती हैै। इसके छातानुमा हिस्से का व्यास दो मीटर तक हो सकता है और वजन 200 किलोग्राम से भी ज्यादा। जेलीफिश खुद तैरकर दूसरी जगह नहीं जा पातींै। ये समुद्री लहरों के साथ ही बहती हैंै। लहरों की दिशा में बहते हुए जेलीफिश अपने शरीर को सिकोड़ती और फुलाती है, ऐसा करने से अधिकतम 10 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार हासिल होती हैै। पानी में तैरती जेलीफिश भले ही बहुत खूबसूरत लगे, लेकिन इसकी कुछ प्रजातियां बहुत ही जहरीली होती हैंै। सबसे खतरनाक लायन्स मैन जेलीफिश होती है। इसके रेशे बेहद घातक जहर छोड़ते हैं। छोटे केकेड़े और मछली के लार्वा तो तुरंत मारे जाते हैं। लायंस मैन जेलीफिश का डंक इंसान को भी तिलमिला देता है। इसके डंक से त्वचा में लाल निशान पड़ जाते हैं और तेज जलन होने लगती है। बॉक्स जेलीफिश का डंक तो जान भी ले सकता है। पूर्वी ऑस्ट्रेलिया और पश्चिमी प्रशांत महासागर में पाई जाने वाली बॉक्स जेलीफिश को दुनिया के सबसे जहरीले जीवों में गिना जाता है।जेलीफिश कई काम कर सकती है। शिकार को रिझाने या दूसरे जीवों को डराने के लिए यह चमकने लगती हैै। जेलीफिश के प्रजनन का तरीका बड़ा ही अनोखा है। यह पीढ़ी दर पीढ़ी बदलता भी हैै। जेलीफिश सेक्शुअल कोशिकाएं पैदा करती है और ये कोशिकाएं आपस में मिलकर लार्वा बनाती हैै। बाद से यह लार्वा जेलीफिश में बदलता हैै। कभी कभार समुद्री तटों पर जेलीफिश की बाढ़ आ जाती है। जीवविज्ञानी इसके लिए कछुओं के शिकार को जिम्मेदार ठहराते हैंै। कछुए और कुछ मछलियां जेलीफिश को खाती हैं, लेकिन अगर ये शिकारी ही खत्म हो जाएं तो जेलीफिश की संख्या तेजी से बढऩे लगती हैै।
- वैज्ञानिकों ने कुछ समय पहले मिनिएचर मेंढकों की चार प्रजातियां भारत के सुदूर इलाकों में ढूंढ निकाली हैं। यह मेंढक इतने छोटे हैं कि इंसान के नाखून पर बैठ सकें। रिसर्चरों ने भारत के पश्चिमी घाटी की पहाडिय़ों की जैव संपदा की तलाश में पांच साल बिताए। इनका मानना है कि इस इलाके में छोटे मेंढक काफी बड़ी संख्या में पाए जाते होंगे, लेकिन उनके छोटे आकार के कारण वे लोगों की नजर में नहीं आते। इस बेहद छोटे मिनिएचर मेंढक के अलावा भी रिसर्चरों ने मेंढक की तीन अन्य प्रजातियों का पता लगाया है। यह सभी उभयचर नॉक्टरनल यानि रात्रिचर प्राणी हैं. इस खोज की विस्तृत रिपोर्ट पियरजे मेडिकल साइंसेज में प्रकाशित हुई है।दिल्ली विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों को पश्चिमी घाट के इलाके में साइट फ्रॉग्स (नैक्टिबैटरेकस) की कुल सात प्रजातियां मिली हैं। इनमें से चार मिनिएचर मेंढक हैं, जिनकी लंबाई 12.2 से 15.4 मिलिमीटर के बीच है। यह दुनिया में पाए जाने वाले सबसे छोटे मेंढकों में से एक बन गए हैं। इनके अनुवांशिक पदार्थ डीएनए की जांच, शारीरिक तुलनाओं और बायोएकूस्टिक्स से इस बात की पुष्टि की गई है कि यह सब नई प्रजातियां हैं।भारत में मेंढकों की 240 से भी अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं। इनमें से आधी की खोज पश्चिमी भारत के इसी पहाड़ी इलाके में हुई है, जिसे जैवविविधता का ग्लोबल हॉटस्पॉट माना जाता है.।अब तक नाइट फ्रॉग्स की करीब 35 प्रजातियों का पता लगाया जा चुका है।
- नई दिल्ली में जंतर मंतर के पास बनी अग्रसेन की बावली 14वीं शताब्दी में महाराजा अग्रसेन के आदेश पर बनवायी गयी थी। लोगों का कहना है कि कभी बावली का पानी काला था । देश की सबसे भयावह जगहों की सूची में इसका नाम भी शामिल है। ऊपर-ऊपर से तो यह बावली लाल बलुए पत्थरों से बनी दीवारों के कारण बेहद सुंदर लगती है, लेकिन आप जैसे -जैसे इसकी सीढिय़ों से नीचे उतरते जाते हैं, एक अजीब सी गहरी चुप्पी फैलने लगती और आकाश गायब होने लगता है।इस बावली के तमाम ऐसे अनसुलझे रहस्य हैं, जो आज तक राज ही हैं। हालांकि अब तो लोग यहां के शांत वातावरण में किताबें पढऩे के लिए भी आते हैं। कई लोग इसकी खूबसूरती के कारण भी यहां खींचे चले आते हैं।बावली के शून्य शांत वातावरण में पत्थर की ऊंची-ऊंची दीवारों के बीच जब कबूतरों की गुटरगूँ और चमकादड़ों की चीखें और फडफ़ड़ाहट गूंजती है, तो बावली का माहौल पूरे शरीर में सिहरन पैदा कर देता है। लोगों का कहना है कि कई बार तो यहां आने वालों ने किसी अदृश्य साया को भी महसूस किया है।फिलहाल अग्रसेन की बावली, एक संरक्षित पुरातात्विक स्थल है, जो नई दिल्ली में कनॉट प्लेस के पास स्थित है। इस बावली में सीढ़ीनुमा कुएं में करीब 105 सीढिय़ां हैं। 14वीं शताब्दी में महाराजा अग्रसेन ने इसे बनाया था। सन 2012 में भारतीय डाक अग्रसेन की बावली पर डाक टिकट जारी किया गया। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) और अवशेष अधिनियम 1958 के तहत भारत सरकार द्वारा संरक्षित हैं। इस बावली का निर्माण लाल बलुए पत्थर से हुआ है। अनगढ़ तथा गढ़े हुए पत्थर से निर्मित यह दिल्ली की बेहतरीन बावलियों में से एक है।कऱीब 60 मीटर लंबी और 15 मीटर ऊंची इस बावली के बारे में विश्वास है कि महाभारत काल में इसका निर्माण कराया गया था। बाद में अग्रवाल समाज ने इस बावली का जीर्णोद्धार कराया। यह दिल्ली की उन गिनी चुनी बावलियों में से एक है, जो अभी भी अच्छी स्थिति में हैं।बावली की स्थापत्य शैली उत्तरकालीन तुग़लक़ तथा लोदी काल (13वी-16वी ईस्वी) से मेल खाती है। लाल बलुए पत्थर से बनी इस बावली की वास्तु संबंधी विशेषताएं तुग़लक़ और लोदी काल की तरफ़ संकेत कर रहे हैं, लेकिन परंपरा के अनुसार इसे अग्रहरि एवं अग्रवाल समाज के पूर्वज अग्रसेन ने बनवाया था। इमारत की मुख्य विशेषता है कि यह उत्तर से दक्षिण दिशा में 60 मीटर लम्बी तथा भूतल पर 15 मीटर चौड़ी है। पश्चिम की ओर तीन प्रवेश द्वार युक्त एक मस्जिद है। यह एक ठोस ऊंचे चबूतरे पर किनारों की भूमिगत दालानों से युक्त है। इसके स्थापत्य में व्हेल मछली की पीठ के समान छत, चैत्य आकृति की नक्काशी युक्त चार खम्बों का संयुक्त स्तम्भ, चाप स्कन्ध में प्रयुक्त पदक अलंकरण इसे विशिष्टता प्रदान करता है।--
- डायनासोर की एक ऐसी प्रजाति का पता चला है, जिसके पंख हुआ करते थे और जो कोई साढ़े छह करोड़ साल पहले पृथ्वी पर विचरा करती थी। ये डायनासोर शायद थोड़ा बहुत उड़ा भी करते होंगे।प्रागैतिहासिक काल का अध्ययन करने वाले इतिहासकारों ने इसका नाम "चिकेन फ्रॉम हेल" या जहन्नुमी मुर्गी रखा है क्योंकि इसके सिर पर मुर्गियों जैसी कलगी हुआ करती थी, पांव शुतुरमुर्ग जैसे हुआ करते थे, पंजे मजबूत और जबड़े इतने सख्त कि किसी भी अंडे या शिकार को पल भर में चीर के रख दें। अनुमान है कि इसकी ऊंचाई इंसानों जितनी हुआ करती होगी, लेकिन वजन 200 से 300 किलो के बीच।इसे 'अंडा चोर' समूह के डायनासोर का सबसे बड़ा जानवर बताया जा रहा है। इस बारे में मैट लमाना की रिपोर्ट प्लोस वन नाम की विज्ञान पत्रिका में छपी है। लमाना का कहना है, "हमने मजाक में इसे जहन्नुमी मुर्गी कहा और लगता है कि यह बिलकुल फिट बैठता है।तीन अलग अलग जगहों से इसके जीवाश्म जमा किए गए हैं। इन्हें जोडऩे पर करीब पांच फुट ऊंचा डायनासोर का अनुमान लगाया जा सकता है, जो साढ़े तीन मीटर लंबा दिखता है। रिपोर्ट में अहम भूमिका निभाने वाली एमा शाखनर का कहना है, "बहुत डरावना होगा. इसके सामने आना बहुत संकट वाला काम होता होगा।" वैसे इसका वैज्ञानिक नाम आंजू विली रखा गया है। आंजू मेसोपोटामिया सभ्यता की काल्पनिक चिडिय़ा का नाम है, जबकि पिट्सबर्ग के प्राकृतिक इतिहास म्यूजियम के ट्रस्टी के पोते का नाम विली है। लमाना अमेरिका में पेनसिलवीनिया के इसी म्यूजियम में काम करते हैं।इस डायनासोर का कंकाल करीब 10 साल पहले उत्तरी और दक्षिणी डकोटा में पहाडिय़ों के पास मिला। इस जगह पर दूसरे डायनासोरों के कंकाल भी मिल चुके हैं। आंजू डायनासोर के अस्तित्व का समय 6.6 करोड़ साल से 6.8 करोड़ साल पहले का बताया जा रहा है। यह दूसरे डायनासोरों के जीवनकाल के बहुत करीब है, जो 6.5 करोड़ साल पहले था। समझा जाता है कि एक विशाल क्षुद्रग्रह के धरती पर टकराने के बाद डायनासोर खत्म हो गए। आंजू प्रजाति के डायनासोर के कुछ करीबी रिश्तेदार चीन और मंगोलिया में भी रहा करते थे।इस तरह के पहले डायनासोर का पता 1924 में लगा था और उसका नाम 'अंडा चोर' रखा गया, क्योंकि इसे अंडों से भरे एक घोंसले के ऊपर पाया गया था। प्रागैतिहासिक इतिहासकारों ने माना कि यह अंडे खाने के लिए यहां आया होगा।----
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सौरमंडल में सोमवार 21 दिसंबर को एक बड़ी खगोलीय घटना देखने को मिलेगी। इस दौरान दो बड़े ग्रह बृहस्पति और शनि एक दूसरे के बेहद नजदीक आ जाएंगे। ऐसे में धरती से देखने पर ये दोनों एक ही ग्रह के समान दिखेंगे। ये दोनों ग्रह इससे पहले 17वीं शताब्दी में महान खगोलविद गैलीलियो के जीवनकाल में इतने पास आए थे। अंतरिक्ष वैज्ञानिकों का कहना है कि हमारे सौरमंडल में दो बड़े ग्रहों का नजदीक आना बहुत दुर्लभ नहीं है। बृहस्पति ग्रह अपने पड़ोसी शनि ग्रह के पास से प्रत्येक 20 साल पर गुजरता है, लेकिन इसका इतने नजदीक आना खास है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि दोनों ग्रहों के बीच उनके नजरिए से सिर्फ 0.1 डिग्री की दूरी रह जाएगी। अगर मौसम स्थिति अनुकूल रहती है तो ये आसानी से सूर्यास्त के बाद दुनिया भर से देखे जा सकते हैं. यह घटना 21 दिसंबर 2020 को होने जा रही है। यह साल का सबसे छोटा दिन माना जाता है। वांदरबिल्ट विश्वविद्यालय में खगोलशास्त्र के प्रोफेसर डेविड वेनट्रॉब ने कहा, मेरा मानना है कि यह कहना उचित होगा कि यह घटना आम तौर पर किसी व्यक्ति के जीवन में एक ही बार आता है।
उल्लेखनीय है कि इससे पहले जुलाई, 1623 में दोनों ग्रह इतने करीब आए थे लेकिन सूर्य के नजदीक होने की वजह से उन्हें देख पाना लगभग असंभव था। वहीं, उससे पहले मार्च, 1226 में दोनों ग्रह करीब आए थे और इस घटना को धरती से देखा जा सकता था। इसके बाद से अब तक पहली बार हो रहा है जब यह खगोलीय घटना हो रही है और इसे देखा भी जा सकता है।
- लाखों साल पहले न्यूजीलैंड में विशालकाय तोते रहा करते थे जिनकी लंबाई एक मीटर थी और वजन सात किलोग्राम तक हुआ करता था। आप जरूर पूछेंगे कि ये सच है क्या, इसका पता कैसे चला?रिसर्चरों को करीब एक दशक पहले इस विशालकाय पक्षी के अवशेष मिले थे, प्रशांत सागर में स्थित न्यूजीलैंड में खनिकों के शहर सेंट बाथांस में। यह जानकारी अब सिडनी की फ्लाइंडर्स यूनिवर्सिटी और क्राइस्टचर्च की कैंटरबरी म्यूजियम ने दी है। खोज करने वालों ने इस पक्षी को हेराकल्स इनएक्सपेक्टाटस का नाम दिया है। नाम में उसका हर्कुलस जैसा विशाल होना और असंभावित तरीके से मिलना निहित है।विशाल तोते के जीवाश्म की उम्र 190 लाख साल आंकी गई है। अनुमान लगाया गया है कि जीवन यापन के लिए यह विशाल तोता छोटे तोतों को भी खाता रहा होगा। आजकल ज्यादातर तोते शाकाहारी होते हैं और घासफूस खाकर अपना पेट पालते हैं। रिसर्चर अभी तक यह नहीं जान सके हैं कि यह विशालकाय तोता उड़ सकता था या नहीं।तोते का पाषाण जीवाश्म 2008 में ही मिल गया था। शोधकर्ताओं को पहले जीवाश्म के बड़े आकार के कारण ये लगा कि यह पक्षी चील रहा होगा। फ्लाइंडर्स यूनिवर्सिटी के प्रो. ट्रेवर वोर्दी ने बताया, "शुरू में तो हमने तोते के बारे में सोचा ही नहीं। रिसर्चरों की टीम को इस बात को समझने में काफी समय लगा कि इन गुणों वाला पक्षी तोता ही होगा।
- लोग शार्क और बिच्छू से बहुत डरते हैं और उन्हें सबसे खतरनाक जीव-जंतुओं की सूची में रखते हैं, लेकिन अगर उनके शिकार बने लोगों की संख्या देखें, तो पता चलेगा कि उनसे बहुत कम खतरा है। जानिए, कौन हैं विश्व के सबसे खतरनाक जीव....1. मच्छरमच्छर की वजह से दुनिया में हर साल मारे गए लोगों की संख्या लगभग 7 लाख 25 हजार है। मच्छरों द्वारा फैलने वाला मलेरिया अकेले सलाना छह लाख लोगों की जान लेता है। डेंगू बुखार, येलो फीवर और इंसेफेलाइटिस जैसी खतरनाक बीमारियां भी मच्छरों से फैलती हैं.।2. इंसानहर साल मारे गए लोगों की संख्या लगभग 4 लाख 75 हजार। जी हां, इंसान भी इस खतरनाक सूची में शामिल हैं। आखिर इंसान एक-दूसरे की जान लेने के कितने ही अविश्वसनीय तरीके ढूंढ लेता है।3. सांपहर साल मारे गए लोगों की संख्या- लगभग 50 हजार। सांपों की सभी प्रजातियां घातक नहीं होतीं। कुछ सांप तो जहरीले भी नहीं होते., पर फिर भी ऐसे काफी खतरनाक सांप हैं जो इन सरीसृपों को दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा हत्यारा बनाने के लिए काफी हैं।4. कुत्ताहर साल मारे गए लोगों की संख्या-लगभग 25 हजार। रेबीज एक वायरल संक्रमण है जो कई जानवरों से फैल सकता है। मनुष्यों में यह ज्यादातर कुत्तों के काटने से फैलता है। रेबीज के लक्षण महीनों तक दिखाई नहीं देते , लेकिन जब वे दिखाई पड़ते हैं, तो बीमारी लगभग जानलेवा हो चुकी होती है।5. घोंघा, असैसिन बग, सीसी मक्खीहर साल मारे गए लोगों की संख्या- लगभग 10 हजार। इन मौतों के जिम्मेदार दरअसल ये जीव खुद नहीं होते, बल्कि इनमें पनाह लेने वाले परजीवी हैं। स्किस्टोसोमियासिस दूषित पानी पीने में रहने वाले घोंघे से फैलता है। वहीं चगास रोग और नींद की बीमारी असैसिन बग और सीसी मक्खी जैसे कीड़ों के काटने से। ॉ6. एस्केरिस राउंडवर्महर साल मारे गए लोगों की संख्या-लगभग 2,500। एस्केरिस भी टेपवर्म जैसे ही परजीवी होते हैं और ठीक उन्हीं की तरह हमारे शरीर में प्रवेश करते हैं, लेकिन ये सिर्फ पाचन इलाकों तक सीमित नहीं रहते। दुनिया भर में लगभग एक अरब लोग एस्कारियासिस से प्रभावित हैं।7. टेपवर्महर साल मारे गए लोगों की संख्या- लगभग दो हजार। टेपवर्म परजीवी होते हैं जो कि व्हेल, चूहे और मनुष्य जैसे रीढ़धारी जीव-जंतुओं की पाचन नलियों में रहते हैं। वे आम तौर पर दूषित भोजन के माध्यम से अंडे या लार्वा के रूप में शरीर में प्रवेश करते हैं। इनके संक्रमण से शार्क की तुलना में 200 गुना ज्यादा मौतें होती हैं।8. मगरमच्छहर साल मारे गए लोगों की संख्या- लगभग एक हजार। मगरमच्छ जितने डरावने दिखते हैं, उससे कहीं ज्यादा खतरनाक भी होते हैं। वे मांसाहारी होते हैं और कभी-कभी तो खुद से बड़े जीवों का भी शिकार करते हैं जैसे कि छोटे दरियाई घोड़े और जंगली भैंस। खारे पानी के मगरमच्छ तो शार्क को भी अपना शिकार बना लेते हैं।9. दरियाई घोड़ाहर साल मारे गए लोगों की संख्या-लगभग 500। दरियाई घोड़े शाकाहारी होते हैं, लेकिन इसका कतई यह मतलब नहीं कि वे खतरनाक नहीं होते। वे काफी आक्रामक होते हैं और अपने इलाके में किसी को प्रवेश करता देख उसको मारने से पीछे नहीं रहते।10. शेर और हाथीहर साल मारे गए लोगों की संख्या-लगभग सौ। .. जंगल का राजा शेर आपको अपना शिकार बना ले, यह कल्पना के परे नहीं है, लेकिन अधिक आश्चर्यजनक बात यह है कि एक हाथी द्वारा आपके मारे जाने की भी उतनी ही संभावना है। हाथी, जो कि भूमि पर रहने वाला सबसे बड़ा जानवर है, काफी आक्रामक और खतरनाक हो सकता है।11. शार्क और भेडिय़ेइन दोनों जानवरों के कारण हर साल दुनिया भर में महज दस लोगों की जान जाती है। इसमें कोई शक नहीं है कि भेडिय़े और शार्क की कुछ प्रजातियां आपकी जान भी ले सकती हैं, लेकिन वास्तव में बहुत कम लोग ही इनका शिकार बनते हैं।
- इंसान समेत कई स्तनधारी जीवों का खून लाल रंग का होता है। दरअसल इंसान और कई स्तनधारियों के लाल खून की वजह है रक्त में खूब आयरन वाले प्रोटीन। इस प्रोटीन को हिमोग्लोबिन कहा जाता है। ऑक्सीजन सोखते ही इस प्रोटीन का रंग लाल हो जाता है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि पृथ्वी पर मौजूद हर जीव का खून लाल होता है। देखिए अलग अलग रंग के रक्त वाले जीव.....1. हरा खून- न्यू गिनिया नाम के गिरगिट का खून हरा होता है। हरे खून की वजह से इसकी मांसपेशियां और जीभ भी हरी होती है।2. नीला खून- ऑक्टोपस का खून का नीले रंग का होता है। ऑक्टोपस के रक्त में तांबे की मात्रा बहुत ज्यादा होती है जिसके चलते इसका खून नीला हो जाता है।3. रंगहीन खून- क्रोकोडाइल आइसफिश का रक्त रंगहीन और पारदर्शी होता है। अंटार्कटिक की गहराई में बेहद ठंडे तापमान में रहने वाली इस मछली के रक्त में हिमोग्लोबिन (लाल रक्त वर्णक) और हिमोसाइनिन (नीला रक्त वर्णक) नहीं होता है।4. पीला खून- सी क्यूकम्बर कहा जाने वाला जीव देखने में भले ही हरा लगे, लेकिन इसका खून पीले रंग का होता है। वैज्ञानिक अब तक इसका कारण नहीं समझ पाए हैं।5. बैंगनी खून- पीनट वॉर्म कहे जाने वाले कीड़े का रक्त बैंगनी रंग का होता है। इसके शरीर में हिमोरिथरीन नाम के प्रोटीन का जब ऑक्सीकरण होता तो उसका रंग बैंगनी या कभी कभार गुलाबी होता जाता है।
- जेल एक ऐसी जगह होती है, जहां पर चोरी, डकैती से लेकर अन्य अपराधों के लिए सजा के तौर पर अपराधियों को रखा जाता है। कोई जेल अच्छी सुविधाओं के जानी जाती है, तो कोई कैदियों के प्रति अपनी क्रूरता के लिए जानी जाती है। आज हम आपको दुनिया की पांच अजीबोगरीब जेलों के बारे में बताने जा रहे हैं, जो अलग वजह से ही जानी जाती हैं। कहीं कैदियों को अपने परिवार के साथ रहने की छूट है तो कहीं कैदियों को अपने लिए सेल (कमरा) खरीदना पड़ता है, जिसमें वो रह सकें।जस्टिस सेंटर लियोबेन, ऑस्ट्रियाऑस्ट्रिया की यह जेल किसी फाइव स्टार होटल से कम नहीं है। पूरी तरह से कांच से ढंकी हुई इस जेल का नाम 'जस्टिस सेंटर लियोबेन' है। यहां जिम से लेकर स्पोट्र्स सेंटर और कैदियों के लिए निजी आलीशान कमरे बनाए गए हैं, जिसमें टीवी से लेकर फ्रीज तक सभी जरूरी चीजें उपलब्ध हैं। साल 2004 में बनी इस जेल में कैदी किसी राजा से कम की जिंदगी नहीं जीते हैं।सार्क जेलइंग्लैंड और फ्रांस के बीच एक छोटा सा द्वीप है गुवेर्नसी, जहां दुनिया की सबसे छोटी जेल है। इसे 'सार्क जेल' के नाम से जाना जाता है। 1856 में बने इस जेल में सिर्फ दो ही कैदी रह सकते हैं। आज भी इसमें कैदियों को रात भर की कैद की सजा दी जाती है। हालांकि अगर कैदी ज्यादा उत्पात मचाते हैं तो फिर उन्हें यहां से निकालकर दूसरी बड़ी जेलों में भेज दिया जाता है। यह जेल पर्यटकों के बीच भी काफी मशहूर है। यहां बड़ी संख्या में लोग घूमने के लिए और इस जेल को देखने के लिए आते हैं।फिलीपींस की सेबू जेलफिलीपींस की यह जेल किसी डिस्को से कम नहीं है। इसका नाम है सेबू जेल। इस जेल का माहौल ही ऐसा है कि यहां कैदी कभी बोर नहीं होते। उनके लिए यहां संगीत की व्यवस्था की गई है, जिससे वो अपना पूरा मनोरंजन करते हैं। यहां के कैदियों के एक डांसिंग वीडियो को अमेरिका की मशहूर टाइम पत्रिका ने अपनी वायरल वीडियोज की सूची में पांचवें नंबर पर रखा था। दरअसल, फिलीपींस प्रशासन और यहां के लोगों का मानना है कि संगीत और नृत्य दोनों ही एक दवाई की तरह काम करते हैं, जो पुरानी जिंदगी के गमों से छुटकारा दिला सकते हैं और एक नई जिंदगी की शुरुआत करा सकते हैं।स्पेन की 'अरनजुएज जेल'स्पेन की 'अरनजुएज जेल' अपने आप में अनोखी जेल है, क्योंकि यहां कैदियों को अपने परिवार के साथ रहने की छूट है। सेलों के अंदर छोटे बच्चों के लिए दीवारों पर कार्टून बनाए गए हैं। साथ ही उनके लिए यहां स्कूल और प्लेग्राउंड की भी व्यवस्था है। दरअसल, इसके पीछे वजह ये है कि बच्चे अपने माता-पिता के साथ रह सकें और माता-पिता भी उन्हें संभालना सीख सकें। यहां 32 ऐसे सेल हैं, जहां कैदी अपने परिवार के साथ रहते हैं।बोलीविया की सैन पेड्रो जेलबोलीविया की सैन पेड्रो जेल बेहद ही अजीबोगरीब वजह से दुनियाभर में जानी जाती है। आमतौर पर अन्य जेलों में कैदियों को किसी भी सेल (कमरा) में डाल दिया जाता है, लेकिन यहां पर कैदियों को अपने लिए सेल खरीदना पड़ता है, ताकि वो उसमें रह सकें। यहां 1500 के करीब कैदी रहते हैं। इस जेल का माहौल शहर की गलियों जैसा लगता है, जहां बाजार लगे रहते हैं, फूड स्टॉल लगे होते हैं। यहां कैदी अपनी सजा इसी तरह काटते हैं।
- क्रिप्टोकरेंसी बिटकॉइन की कीमत बुधवार को पहली बार 20 हजार डॉलर के पार चली गई है। आखिर क्या है ये करेंसी और कैसे काम करती है।तीन साल पहले यही वो वक्त था जब पहली बार अमेरिकी शेयर बाजार वॉल स्ट्रीट में इसके कारोबार को मंजूरी मिली और तब इसकी कीमत आसमान पर पहुंच गई। बीच में काफी बुरा हाल देखने के बाद इसकी कीमत नई ऊंचाइयों को छू रही है। अनिश्चितता के दौर में पैसा सुरक्षित रखने के दूसरे तरीकों की तरह ही बिटकॉइन को भी कोरोना महामारी से काफी फायदा हुआ है। सोना, चांदी, प्लैटिनम की कीमत इस दौर में कई गुना बढ़ी है और बिटकॉइन भी इसमें शामिल हो गया है। बिटकॉइन की खास संरचना के कारण अब और बिटकॉइन ज्यादा संख्या में नहीं बन पा रहा है ऐसे में जो बिटकॉइन हैं उनका कारोबार तेज हो गया है।बिटकॉइन कैसे काम करता हैबिटकॉइन एक डिजिटल मुद्रा है। यह किसी बैंक या सरकार से नहीं जुड़ी है और इसे बिना पहचान जाहिर किए खर्च किया जा सकता है। बिटकॉइन के इन सिक्कों को यूजर बनाते हैं। इसके लिए उन्हें इनको "माइन" करना पड़ता है. "माइन" के लिए उन्हें गणना करने की क्षमता देनी होती है और इसके बदले में उन्हें बिटकॉइन मिलते हैं। बिटकॉइन के सिक्कों को शेयर बाजारों में अमेरिकी डॉलर और दूसरी मुद्राओं के बदले खरीदा भी जा सकता है। कुछ कारोबार में बिटकॉइन मुद्रा के रूप में इस्तेमाल होती है हालांकि बीते कुछ सालों में इसकी लोकप्रियता ठहरी हुई है।बिटकॉइन के साथ क्या हुआ हैदिसंबर 2017 में बिटकॉइन फ्यूचर को अमेरिकी शेयर बाजार वॉल स्ट्रीट में कारोबार की इजाजत मिली। शिकागो मर्केंटाइल एक्सचेंज और शिकागो बोर्ड ऑप ट्रेड ने इनकी खरीद बिक्री को मंजूरी दी थी। बिटकॉइन को लेकर दिलचस्पी इतनी ज्यादा थी कि कारोबार की अनुमति मिलते ही इसकी कीमतों में भारी उछाल आया। 2017 के शुरुआत में इस मुद्रा की कीमत 1000 डॉलर थी जो साल के आखिर में बढ़ कर 19 हजार 783 तक पहुंच गई। हालांकि कारोबार शुरू होने के बाद बिटकॉइन फ्यूचर अगले कुछ महीनों में तेजी से नीचे आया। एक साल बाद ही इसकी कीमत घट कर 4000 डॉलर पर चली गई। निवेशकों और बिटकॉइन में दिलचस्पी रखने वालों ने बताया कि 2017 में आए उछाल की बड़ी वजहें सट्टेबाजी और मीडिया का आकर्षण थे।अभी बिटकॉइन का क्या मोल हैकॉइनबेस के मुताबिक एक बिटकॉइन की कीमत लगभग 20 हजार 700 डॉलर है। कॉइनबेस एक प्रमुख डिजिटल करेंसी एक्सचेंज है जो दूसरे टोकन और मुद्राओं का भी कारोबार करती है। हालांकि बिटकॉइन की कीमत अस्थिर है और यह एक हफ्ते में ही सैकड़ों या हजारों डॉलरों का उतार चढ़ाव देखती है। एक महीने पहले इसकी कीमत 17 हजार डॉलर थी और एक साल पहले 7 हजार डॉलर।बिटकॉइन एक बहुत जोखिम वाला निवेश है और पारंपरिक निवेश के तरीकों जैसे कि शेयर या फिर बॉन्ड की तरह व्यवहार नहीं करता, जब तक कि खरीदार कई सालों तक इस मुद्रा को अपने पास ना रखे। उदाहरण के लिए एसोसिएटेड प्रेस ने 100 अमेरिकी डॉलर की कीमत के बिटकॉइन खरीदे ताकि वह इस मुद्रा पर नजर रख सके और व्यापार में इसके इस्तेमाल के बारे में खबर दे सके। इस पोर्टफोलियो का खर्च इस महीने जा कर अपने मूलधन पर पहुंचा है।बिटकॉइन को इतना पसंद क्यों किया गयाबिटकॉइन वास्तव में एक कंप्यूटर कोड की श्रृंखला है। यह जब भी एक यूजर से दूरे के पास जाता है तो इस पर डिजिटल सिग्नेचर किए जाते हैं। लेन देन खुद को गोपनीय रख कर भी किया जा सकता है। इसी वजह से यह आजाद ख्याल के लोगों, तकनीकी दुनिया के उत्साही, सटोरियों और अपराधियों के बीच काफी लोकप्रिय है।बिटकॉइन को डिजिटल वॉलेट में रखा जाता है। इस वॉलेट को या तो कॉइनबेस जैसे एक्सचेंज के जरिए ऑनलाइन हासिल किया जा सकता है या फिर ऑफलाइन हार्ड ड्राइव में एक खास सॉफ्टवेयर के जरिए। बिटकॉइन का समुदाय यह तो जानता है कि कितने बिटकॉइन हैं, लेकिन वे कहां हैं इसके बारे में सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है।कौन इस्तेमाल करता है बिटकॉइनकुछ कारोबार बिटकॉइन का इस्तेमाल कर रहे हैं जैसे कि ओवरस्टॉक डॉट कॉम बिटकॉइन में भुगतान स्वीकार करता है। मुद्रा इतनी मशहूर है कि ब्लॉकचेन इंफो के मुताबिक औसतन हर दिन 3 लाख लेने देन होते हैं। हालांकि इसकी लोकप्रियता नगद या क्रेडिट कार्ड की तुलना में कम ही है। बहुत सारे लोग और कारोबार में इसे भुगतान के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।बिटकॉइन की सुरक्षाबिटकॉइन नेटवर्क सामूहिक अच्छाई के लिए कुछ लोगों की लालसा पर निर्भर करता है। तकनीक के जानकार कुछ लोग जिन्हें माइनर कहा जाता है वो इस तंत्र में गणना की क्षमता ब्लॉकचेन में डाल कर इसे ईमानदार बनाए रखते हैं। ब्लॉक चेन हर बिटकॉइन के लेनदेन का हिसाब रखता है. इस तरह से यह उन्हें दो बार बेचे जाने को रोकता है और माइनरों को उनकी कोशिशों के लिए जब तक तोहफों में बिटकॉइन दिए जाते हैं। जब तक माइनर ब्लॉकचेन को सुरक्षित रखेंगे इसकी नकल करके नकली मुद्रा बनने का डर नहीं रहेगा।यहां तक कैसे पहुंचा बिटकॉइनयह एक रहस्य है। बिटकॉइन को 2009 में एक शख्स या फिर एक समूह ने शुरू किया जो सातोषी नाकामोतो के नाम से काम कर रहे थे। उस वक्त बिटकॉन को थोड़े से उत्साही लोग ही इस्तेमाल कर रहे थे। जब ज्यादा लोगों का ध्यान उस तरफ गया तो नाकामोतो को नक्शे से बाहर कर दिया गया। हालांकि इससे मुद्रा को बहुत फर्क नहीं पड़ा यह सिर्फ अपनी आंतरिक दलीलों पर ही चलता रहा।2016 में एक ऑस्ट्रेलिया उद्यमी ने खुद को बिटकॉइन के संस्थापक के रूप में पेश किया। हालांकि कुछ दिनों बाद ही उसने कहा कि उसके पास सबूतों को जाहिर करने की "हिम्मत नहीं है। " इसके बाद से इस मुद्रा की जिम्मेदारी किसी ने नहीं ली है।
- पुरातत्वविज्ञानी अपनी खोजों से हमारी प्राचीन सभ्यता और जीवन की बहुत सी जानकारियां देते हैं। जर्मन शहर हैम्बर्ग के नजदीक हुई खुदाई में एक आदिजीव के अवशेष मिले हैं। यह अवशेष 1.1 करोड़ साल पुराना है और समुद्री कछुए का है।जर्मनी के उत्तर में स्थित हैम्बर्ग शहर के पास स्थित ग्रोसल पाम्पाउ में जब रिसर्चरों की टीम खुदाई कर रही थी तो उन्हें कुछ कुछ अंदाजा जरूर था कि उनके हाथ क्या आने वाला है। ये इलाका अपने पुरातात्विक अवशेषों के लिए जाना जाता है। इस बार जब उन्होंने खुदाई पूरी की तो उन्हें विशालकाय समुद्री कछुए के सैकड़ों टुकड़े और हड्डियां मिलीं। खुदाई करने वाली टीम के प्रमुख गेरहार्ड होएफनर का कहना है कि हड्डियां संभवत: कम से कम दो मीटर लंबे कछुए की हैं।समुद्री कछुए के अवशेष उस जगह से मिले हैं जहां खुदाई करने वाली टीम ने कई हफ्तों तक बहुत बारीकी से खुदाई की, मिट्टी को हटाया और अवशेषों को बाहर निकाला ताकि उन्हें कोई नुकसान न पहुंचे। अब इन अवशेषों को जर्मनी के उत्तरी प्रांत श्लेसविष होलश्टाइन के लुइबेक शहर के प्राकृतिक संग्रहालय में लोगों के देखने के लिए रखा जाएगा। खुदाई करने वाली टीम ने समुद्री कछुए के अवशेषों के अलावा एक छोटे कछुए की हड्डियां, कोरल, एक समुद्री मछली के कांटे, एक डॉल्फिन की खोपड़ी और समुद्री काक की हड्डियां भी पेश कीं।ये सारे अवशेष जमीन के अंदर आठ से 20 मीटर की गहराई में मिले हैं. खुदाई टीम के प्रमुख गेरहार्ड होएफनर का कहना है कि जमीन के भीतर मिले सारे अवशेष प्राचीन काल के उत्तरी सागर की जैव विविधता को दिखाते हैं। उनका कहना है कि खासकर जीवाश्म बन चुके प्राचीन कछुए के अवशेषों का मिलना विरले ही होता है क्योंकि मृत जीवों के अवशेषों को अक्सर शिकारी मछलियां खा जाती हैं और उनका सख्त कवछ पानी में गल जाता है। सन 1989 में वहां एक गड्ढे में रिसर्चरों को व्हेल की एक अतिप्राचीन प्रजाति के अवशेष मिले थे, जिसे अब उस जगह के नाम से प्रेमेगाप्टेरा पाम्पाउएनसिस कहा जाता है। उसके बाद से व्हेल के ग्यारह और कंकाल मिले हैं।ग्रोस पाम्पाउ श्लेषविस होलश्टाइन प्रांत के लाउएनबुर्ग जिले में स्थित है और ये इलाका जीवाश्म वैज्ञानिकों में काफी लोकप्रिय है। वहां पिछले 30 सालों से अक्सर व्हेल, सील और दूसरे समुद्री जीवों के लाखों साल पुराने अवशेष मिलते रहे हैं। विशेषज्ञ इसकी वजह एक भौगोलिक खासियत को बताते हैं। यहां प्राचीन उत्तरी सागर का समुद्री तल धरती के कुछ ही मीटर नीचे दबा है। उत्तरी जर्मनी का बड़ा हिस्सा उन दिनों उत्तरी सागर का हिस्सा था। अब समुद्र इस इलाके से 140 किलोमीटर दूर है।----
- 17 दिसंबर 1903 को इंसान के आसमान में उडऩे का सपना सच हुआ था। आज ही के दिन राइट बंधुओं ने 'द फ्लायर' नामक विमान पहली बार उड़ाया था। इस 12 सेकेंड की उड़ान ने सदियों की मनोकामना पूरी कर दी।ऑरविल और विल्बर राइट बंधुओं की वजह से ही आज हम और आप विमान का सफर कर पा रहे हैं। राइट बंधुओं के मामूली से प्रयोगात्मक विमान से शुरू होकर यह उड़ान जेट विमानों और अंतरिक्ष यानों तक होते हुए चंद्रमा और मंगल तक जा पहुंची है। राइट बंधुओं की यह कामयाबी दरअसल चार साल की कड़ी मेहनत और बार-बार नाकामी मिलने के बावजूद सपने को साकार करने के जज्बे का नतीजा थी। हालांकि अपने भाइयों की तरह वे कॉलेज नहीं गए, लेकिन मशीनों से दोनों को खूब लगाव था. बचपन में उनके पिता ने उन्हें एक हेलीकॉप्टर सा खिलौना दिया था, जिसने दोनों भाइयों को असली का उडऩ यंत्र बनाने के लिए प्रेरित किया। दोनों को मशीनी तकनीक की काफी अच्छी समझ थी जिससे उन्हें विमान के निर्माण में मदद मिली।यह कौशल उन्होंने प्रिंटिंग प्रेसों, साइकिलों, मोटरों और दूसरी मशीनों पर लगातार काम करते हुए पाया था। दोनों ने 1900 से 1903 तक लगातार ग्लाइडरों के साथ परीक्षण किया था, लेकिन वे ग्लाइडर नहीं उड़ा पा रहे थे। आखिरकार एक साइकिल मैकेनिक चार्ली टेलर की मदद से राइट बंधु एक ऐसा इंजन बनाने में सफल रहे, जो 200 पौंड से कम वजन का भी था और 12 हॉर्स पावर का था। फिर समस्या आयी प्रोपेलर की. जलयान के प्रोपेलर विमान के लिए उपयुक्त नहीं थे। ऐसे में, राइट बंधुओं ने ग्लाइडरों के अनुभव के आधार पर उपयुक्त प्रोपेलर बनाने में सफलता हासिल की। उसके बाद उन्होंने अपने ग्लाइडर 'किटी हॉक' में यह इंजन और प्रोपेलर लगाकर विमान तैयार किया जिसने 17 दिसंबर 1903 को पहली उड़ान भरी। 12 सेकेंड की इस उड़ान ने 120 फीट की दूरी तय की और इतिहास रच दिया।---
- दुनिया भर में कई स्थानों पर बने पुलों में प्रेमी अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में ताले लटका देते हैं। एक ओर जहां ये ताले पुलों का वजन बढ़ा रहे हैं वहीं दुनिया के कुछ देश हैं जहां ये ताले लटकाने के लिए खास जगहें बना दी गई हैं।टिबरिस, रोम- प्रेम के प्रतीक के तौर पर ताले लटकाने और चाबी नदी में फेंकने की शुरुआत रोम के मिल्वियन ब्रिज से हुई। इसे इतालवी में लुचेती द अमोरे यानी लव लॉक कहा जाता है।सर्बिया की कहानी- प्यार के तालों का इतिहास सर्बिया से शुरू होता है । पहले विश्व युद्ध के दौरान नादा नाम की एक स्कूल टीचर सर्बियाई सैनिक रेलिया से प्यार करने लगी और सगाई कर ली, लेकिन रेलिया जब लड़ाई के लिए ग्रीस गया तो उसे वहां की लड़की से मुहब्बत हो गई। नादा इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सकी और मर गई। नादा के इलाके की लड़कियों ने अपने प्यार को पक्का करने के लिए उन पुलों पर ताले लगाने शुरू किए जहां नादा और रेलिया मिला करते थे, लेकिन इसकी परंपरा रोम में एक किताब आई वॉन्ट यू के आने के बाद परवान चढ़ी।चीन की दीवार- मुहब्बत के ये ताले अब चीन की दीवार से लेकर कोपनहागन के पुलों तक लटके हुए हैं। अक्सर प्रेमी अपना नाम इन पर लिख कर चाबी नदी या खाई में फेंक देते हैं। उनका विश्वास है कि इससे प्यार कभी नहीं टूटेगा।सेन, पेरिस -जर्मनी में राइनलैंड रीजनल काउंसिल में लोकसाहित्य विभाग के प्रमुख डाग्मार हैनेल कहते हैं कि पुल हमेशा से प्रेमियों के लिए प्यार का प्रतीक रहे हैं। मुहब्बत की तरह ही वो हिस्सों को जोड़ते हैं और शायद इसी कारण आज दुनिया भर के पुलों पर प्यार के ताले जड़े हुए हैं।पेरिस में अभियान- पुलों के बढ़ते वजन के कारण पेरिस में नया अभियान शुरू किया गया है, लव विदाउट लॉक। इस वेबसाइट पर लिखा गया है, हमारे पुल आपके प्यार का वजन अब नहीं उठा पा रहे हैं इसलिए अपने प्यार का इजहार बिना ताले के करें।
- नई दिल्ली स्थित संसद भवन की तस्वीर अब बदलने वाली है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में नए संसद भवन की नींव रखी है। कहा जा रहा है कि आजादी के 75 साल पूरे होने तक यह नई बिल्डिंग तैयार हो जाएगी। कहा जा रहा है कि नई इमारत अधिक बड़ी, आकर्षक और आधुनिक सुविधाओं वाली होगी। आइये जाने क्या है सेंट्रल विस्टा इलाका और कैसी होगी नई संसद।दरअसल सेंट्रल विस्टा राजपथ के दोनों तरफ के इलाके को कहते हैं। राष्ट्रपति भवन से इंडिया गेट के करीब प्रिंसेस पार्क का इलाका इसके अंतर्गत आता है। सेंट्रल विस्टा के तहत राष्ट्रपति भवन, संसद, नॉर्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक, उपराष्ट्रपति का घर आता है। इसके अलावा नेशनल म्यूजियम, नेशनल आर्काइव्ज, इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आट्र्स, उद्योग भवन, बीकानेर हाउस, हैदराबाद हाउस, निर्माण भवन और जवाहर भवन भी सेंट्रल विस्टा का ही हिस्सा हैं। सेंट्रल विस्टा रिडेवलपमेंट प्रोजेक्ट केंद्र सरकार के इस पूरे इलाके को रेनोवेट करने की योजना को कहा जाता है।केंद्र सरकार की योजना संसद के अलावा इसके पास की सरकारी इमारतों को भी नए सिरे बनाने की थी। इन सभी भवनों को दिल्ली का सेंट्रल विस्टा कहा जाता है। इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन की ओर करीब 3 किलोमीटर का ये सीधा रास्ता और इसके दायरे मे आने वाली इमारतें जैसे कृषि भवन, निर्माण भवन से लेकर संसद भवन, नॉर्थ ब्लॉक, साउथ ब्लॉक, रायसीना हिल्स पर मौजूद राष्ट्रपति भवन तक का पूरा इलाका सेंट्रल विस्टा कहलाता है।नए संसद भवन में लोकसभा का आकार मौजूदा से तीन गुना ज्यादा होगा। राज्यसभा का भी आकार बढ़ेगा। कुल 64 हजार 500 वर्गमीटर क्षेत्र में नए संसद भवन का निर्माण टाटा प्रोजेक्ट्स लिमिटेड की ओर से कराया जाएगा। नए संसद भवन का डिजाइन एचसीपी डिजाइन प्लानिंग एंड मैनेजमेंट प्राइवेट लिमिटेड ने तैयार किया है। सितंबर 2020 में टाटा प्रोजेक्ट्स ने नई इमारत के निर्माण की बोली जीती थी। इसकी लागत 861 करोड़ थी। इसका निर्माण सेंट्रल विस्टा रिडेवलपमेंट प्रोजेक्ट के तहत किया जाएगा। लोकसभा चैम्बर में 888 सदस्यों के बैठने की क्षमता होगी। जबकि राज्यसभा में 384 सीट होंगी।ये इस बात को ध्यान में रखकर बनाई जाएगी कि भविष्य में दोनों सदनों के सदस्यों की संख्या बढ़ सकती है और परिसीमन का काम भी होना है, जो कि 2026 के लिए शेड्यूल्ड है। अभी लोकसभा की अनुमानित क्षमता 543 सदस्य और राज्यसभा की 245 सदस्य है। मौजूदा इमारत को देश की पुरातत्व धरोहर में बदल दिया जाएगा। माना जा रहा है कि इसका इस्तेमाल संसदीय कार्यक्रमों में भी किया जाएगा।मौजूदा ढांचा 2021 में 100 साल पूरे कर लेगा। इसका निर्माण एडविन लुटियंस और हर्बर्ट बेकर ने किया था। इन दोनों को नई दिल्ली शहर की योजना और निर्माण का जिम्मा दिया गया था। उस समय इसे बनाने में छह साल और 83 लाख रुपये लगे थे।सुप्रीम कोर्ट ने नई संसद समेत कई अहम सरकारी इमारतों वाले सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट में किसी भी निर्माण पर फिलहाल रोक लगा रखी है। सुप्रीम कोर्ट की रोक का आधार सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर फैसला लंबित है। नई संसद और दूसरी इमारतों का निर्माण तभी शुरू हो सकेगा, जब कोर्ट उसे मंजूरी देगा।