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- दुनिया भर में आज 31 मई को विश्व तंबाकू निषेध दिवस- वल्र्ड नो टोबैको डे 2020 मनाया जा रहा है। यह दिन खासतौर पर तंबाकू के सेवन को रोकने और तंबाकू के कारण सेहत को होने वाले नुकसान के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए मनाया जाता है।इस दिन की शुरुआत विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा इसलिए की गई ताकि लोगों को तंबाकू का सेवन करने के कारण होने वाले नुकसान के बारे में जागरूक किया जा सके। इसके अलावा वल्र्ड नो टोबैको डे पर तंबाकू खाने वाले लोगों को कई प्रकार के कैंसर और गंभीर स्वास्थ्य जोखिमों से बचे रहने के बारे में भी जानकारी दी जाती है।इस बार वल्र्ड नो टोबैको डे 2020 की थीम युवाओं पर केंद्रित हैं। हम सभी यह बात जानते हैं कि आज की युवा पीढ़ी कितनी तेजी से तंबाकू निर्मित पदार्थों का सेवन करने में आगे बढ़ रही है। स्मोकिंग, हुक्का, कच्ची तंबाकू, पान मसाला आदि पदार्थ तंबाकू से कहीं ना कहीं जरूर तैयार किए जाते हैं और युवाओं के द्वारा इसका बड़े पैमाने पर सेवन भी किया जा रहा है जो उनके स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा है।इस बात को ध्यान में रखते हुए विश्व स्वास्थ संगठन द्वारा इस बार वल्र्ड नो टोबैको डे 2020 की थीम युवाओं को इंडस्ट्री के बहकावे से बचाते हुए, उन्हें तंबाकू और निकोटीन का उपयोग करने से रोकना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के द्वारा 1987 में इस दिन को प्रभाव में लाया गया था।वैश्विक वयस्क तंबाकू सर्वेक्षण (जीएटीएस) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 15 साल या उससे अधिक उम्र के करीब 30 करोड़ लोग तंबाकू सेवन करते हैं। इनमें से लगभग 20 करोड़ लोग तंबाकू को गुटखा, खैनी, पान मसाला या पान के रूप में सीधे सेवन करते हैं, जबकि करीब दस करोड़ लोग ऐसे हैं जो सिगरेट, हुक्का या फिर सिगार में तंबाकू भरकर इसका धुआं अपने फेफड़ों में भर लेते हैं।--
- महिष्मति की पहचान मध्यप्रदेश के खारगो जि़ले के महेश्वर नामक कस्बे से की गयी है। चेदि जनपद की राजधानी (पाली माहिस्सती) जो नर्मदा के तट पर स्थित थी। इसका अभिज्ञान जि़ला इंदौर में स्थित महेश्वर नामक स्थान से किया गया है जो पश्चिम रेलवे के अजमेर-खंडवा मार्ग पर बड़वाहा स्टेशन से 35 मील दूर है।महाभारत काल के समय यहां राजा नील का राज्य था जिसे सहदेव ने युद्ध में परास्त किया था। राजा नील महाभारत के युद्ध में कौरवों की ओर से लड़ते हुए मारे गये थे। बौद्ध साहित्य में माहिष्मती को दक्षिण-अवंति जनपद का मुख्य नगर बताया गया है। बुद्धकाल में यह नगरी समृद्धिशाली थी तथा व्यापारिक केंद्र के रूप में विख्यात थी। तत्पश्चात उज्जयिनी की प्रतिष्ठा बढऩे के साथ साथ इस नगरी का गौरव कम होता गया। फिर भी गुप्त काल में 5वीं शती तक माहिष्मती का बराबर उल्लेख मिलता है। कालिदास ने रघुवंश में इंदुमती के स्वयंवर के प्रसंग में नर्मदा तट पर स्थित माहिष्मती का वर्णन किया है और यहां के राजा का नाम प्रतीप बताया है।माहिष्मती नरेश को कालिदास ने अनूपराज भी कहा है । जिससे ज्ञात होता है कि कालिदास के समय में माहिष्मती का प्रदेश नर्मदा के तट के निकट होने के कारण अनूप (जल के निकट स्थित) कहलाता था। पौराणिक कथाओं में माहिष्मती को हैहयवंशीय कार्तवीर्य अर्जुन अथवा सहस्त्रबाहु की राजधानी बताया गया है। किंवदंती है कि इसने अपनी सहस्त्र भुजाओं से नर्मदा का प्रवाह रोक दिया था। चीनी यात्री युवानच्वांग, 640 ई. के लगभग इस स्थान पर आया था। उसके लेख के अनुसार उस समय माहिष्मती में एक ब्राह्मण राजा राज्य करता था। अनुश्रुति है कि शंकराचार्य से शास्त्रार्थ करने वाले मंडन मिश्र तथा उनकी पत्नी भारती माहिष्मती के ही निवासी थे। कहा जाता है कि महेश्वर के निकट मंडलेश्वर नामक बस्ती मंडन मिश्र के नाम पर ही विख्यात है। माहिष्मती में मंडन मिश्र के समय संस्कृत विद्या का अभूतपूर्व केंद्र था।महिष्मति का नाम हाल के वर्षों में उस वक्त खबरों में आया जब फिल्म बाहुबली में इस नाम के राज्य का उल्लेख किया गया।
- टिड्डी ऐक्रिडाइइडी परिवार के ऑर्थाप्टेरा गण का कीट है। हेमिप्टेरा गण के सिकेडा वंश का कीट भी टिड्डी या फसल टिड्डी कहलाता है। इसे लधुश्रृंगीय टिड्डा भी कहते हैं। संपूर्ण संसार में इसकी केवल छह जातियां पाई जाती हैं। यह प्रवासी कीट है और इसकी उड़ान दो हजार मील तक पाई गई है। इसकी प्रमुख प्रजातियां हैं-1. उत्तरी अमरीका की रॉकी पर्वत की टिड्डी2. स्किस टोसरका ग्रिग्ररिया नामक मरुभूमीय टिड्डी,3. दक्षिण अफ्रीका की भूरी एवं लाल लोकस्टान पारडालिना तथा नौमेडैक्रिस सेंप्टेमफैसिऐटा4. साउथ अमरीकाना और5. इटालीय तथा मोरोक्को टिड्डी। इनमें से अधिकांश अफ्रीका, ईस्ट इंडीज, उष्ण कटिबंधीय आस्ट्रेलिया, यूरेशियाई टाइगा जंगल के दक्षिण के घास के मैदान तथा न्यूजीलैंड में पाई जाती हैं।मादा टिड्डी मिट्टी में कोष्ठ बनाकर, प्रत्येक कोष्ठ में 20 से लेकर 100 अंडे तक रखती है। गरम जलवायु में 10 से लेकर 20 दिन तक में अंडे फूट जाते हैं, लेकिन उत्तरी अक्षांश के स्थानों में अंडे जाड़े भर प्रसुप्त रहते हैं। शिशु टिड्डी के पंख नहीं होते तथा अन्य बातों में यह वयस्क टिड्डी के समान होती है। वयस्क टिड्डियों में 10 से लेकर 30 दिनों तक में प्रौढ़ता आ जाती है और तब वे अंडे देती हैं। कुछ जातियों में यह काम कई महीनों में होता है। टिड्डी का विकास आद्र्रता और ताप पर अत्याधिक निर्भर करता है।वयस्क टिड्डियां गरम दिनों में झुंडों में उड़ा करती हैं। उडऩे के कारण पेशियां सक्रिय होती हैं, जिससे उनके शरीर का ताप बढ़ जाता है। वर्षा तथा जाड़े के दिनों में इनकी उड़ानें बंद रहती हैं। मरुभूमि टिड्डियों के झुंड, ग्रीष्म मानसून के समय, अफ्रीका से भारत आते हैं और पतझड़ के समय ईरान और अरब देशों की ओर चले जाते हैं। इसके बाद ये सोवियत एशिया, सिरिया, मिस्र और इजरायल में फैल जाते हैं। इनमें से कुछ भारत और अफ्रीका लौट आते हें, जहां दूसरी मानसूनी वर्ष के समय प्रजनन होता है।लोकस्टा माइग्रेटोरिया नामक टिड्डी एशिया तथा अफ्रीका के देशों में फसल तथा वनस्पति का नाश कर देती है।
- राजा विक्रमादित्य के किस्से बहुत मशहूर हैं। उनके पराक्रम की गाथाएं आज भी किताबों में मिल जाती हैं। राजा विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों के विषय में भी काफी उल्लेख मिलता है। राजा विक्रमादित्य के दरबार में मौजूद नवरत्नोंं में उच्च कोटि के कवि, विद्वान, गायक और गणित के प्रकांड पंडित शामिल थे, जिनकी योग्यता का डंका देश-विदेश में बजता था।1. धन्वंतरि- धन्वंतरि का जिक्र हमारे पुराणों में मिलता है, ऐसा कहा जाता है कि ये रोगों से मुक्ति दिलवाया करते थे। शल्य तंत्र के प्रवर्तक को धन्वंतरि कहा जाता है, ये विक्रमादित्य की सेना में भी मौजूद थे। जिनका कार्य युद्ध में घायल हुए सैनिकों को जल्द से जल्द ठीक करना होता था।2. क्षपणक- राजा विक्रमादित्य के दरबार के दूसरे नवरत्न थे क्षपणक। जैन साधुओं को क्षपणक कहा जाता है, दिगंबर शाखा के साधुओं को नग्न क्षपणक नाम से जाना जाता है। मुद्राराक्षस में भी क्षपणक के वेश में गुप्तचरों का उल्लेख किया गया है।3. शंकु- राजा विक्रमादित्य के दरबार में शंकु को काफी प्राथमिकता दी जाती है। शंकु को विद्वान, ज्योतिषशास्त्री माना जाता है। वास्तव में इनका कार्य क्या था इसका उल्लेेख नहीं मिलता। ज्योतिर्विदाभरण में इन्हें कवि के रूप में भी चित्रित किया गया है।4. वेताल भट्ट- वेताल कथाओं के अनुसार राजा विक्रमादित्य ने अपने साहसिक प्रयत्न से अग्नि वेताल को अपने वश में कर लिया था। वेताल अदृश्य रूप में राजा की बहुत सी परेशानियों को हल करता है और उनके लिए काफी मददगार साबित होता है। प्राचीन काल में भट्ट की उपाधि महापंडितों को दी जाती थी, वेताल भट्ट से तात्पर्य, भूत-प्रेत की साधना में प्रवीणता से है।5.घटखर्पर- घटखर्पर के विषय में भी अल्प जानकारी ही उपलब्ध है। ये महान कवि थे, ऐसा माना जाता है कालिदास के साथ रहते हुए ही इन्हें कविता के क्षेत्र में निपुणता प्राप्त हुई थी। घटखर्पर ने यह प्रतिज्ञा ली थी जो भी कवि उन्हें यमक रचना में पराजित कर देगा, वह उसके घर घड़े के टुकड़े से पानी भरेंगे।6. वररुचि- वररुचि ने पत्रकौमुदि नामक काव्य की रचना की थी। काव्यमीमांसा के अनुसार वररुचि ने पाटलिपुत्र में शास्त्रकार परीक्षा उत्तीर्ण की थी, वहीं कथासरित्सागर के अंतर्गत इस बात का उल्लेख है कि वररुचि का दूसरा नाम कात्यायन था।7. पत्रकौमुदी- पत्रकौमुदी काव्य के आरंभ में ही वररुचि ने यह लिखा है कि राजा विक्रमादित्य के कहने पर ही उन्होंने इसकी रचना की थी। उन्होंने विद्यासुंदर की रचना भी विक्रमादित्य के आदेश अनुसार की थी।8. वराहमिहिर-पंडित सूर्यनारायण व्यास के अनुसार राजा विक्रमादित्य की सभा में वराहमिहिर नामक ज्योतिष के प्रकांड पंडित भी शामिल थे।9. महाकवि कालीदास-महाकवि कालिदास को राजा विक्रमादित्य की सभा का प्रमुख रत्न माना जाता है। इनका नाम दुनिया के महान कवियों में शुमार है।-----
- इतिहास में आज- 12 मईफ्लोरेंस नाइटिंगेल का जन्म 12 मई, 1820 को इटली के फ्लोरेंस में हुआ था। उनके पिता का नाम विलियम नाइंटिगेल और मां का नाम फेनी नाइटिंगेल था। विलियम नाइटिंगेल बैंकर थे और काफी धनी थे। परिवार को किसी चीज की कमी नहीं थी। फ्लोरेंस जब किशोरी थीं उस समय वहां लड़कियां स्कूल नहीं जाती थीं। बहुत सी लड़कियां तो बिल्कुल नहीं पढ़ती थीं। लेकिन विलियम अपनी बेटियों को पढ़ाने को लेकर बहुत गंभीर थे। उन्होंने अपनी बेटियों को विज्ञान, इतिहास और गणित जैसे विषय पढ़ाए।फ्लोरेंस नर्स बनना चाहती थीं जो मरीजों और परेशान लोगों की देखभाल करे। फ्लोरेंस ने अपनी इच्छा अपने माता-पिता को बताई। यह सुनकर उनके पिता काफी नाराज हुआ। उस समय नर्सिंग को सम्मानित पेशा नहीं माना जाता था, लेकिन फ्लोरेंस अपनी बातों पर अड़ गईं। आखिरकार उनके माता-पिता को उनकी बातों को मानना पड़ा। 1851 में फ्लोरेंस को नर्सिंग की पढ़ाई की अनुमति दे दी गई। 1853 में उन्होंने लंदन में महिलाओं का एक अस्पताल खोला। वहां उन्होंने बहुत अच्छा काम किया।1854 में क्रीमिया का युद्ध हुआ। उस युद्ध में ब्रिटेन, फ्रांस और तुर्की एक तरफ थे तो दूसरी तरफ रूस। युद्ध मंत्री सिडनी हर्बर्ट फ्लोरेंस को जानते थे। उन्होंने क्रीमिया में नर्सों का एक दल लेकर फ्लोरेंस को पहुंचने को कहा। जब नर्सें वहां पहुंचीं तो अस्पताल की हालत देखकर काफी दंग रह गईं। अस्पताल खचाखच भरे हुए और गंदे थे। फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने अस्पताल की हालत सुधारने पर ध्यान दिया। उन्होंने बेहतर चिकित्सीय उपकरण खरीदे। मरीजों के लिए अच्छे खाने का बंदोबस्त किया। जख्मी सैनिकों की सही से देखभाल की। नतीजा यह हुआ कि सैनिकों की मौत की संख्या में गिरावट आई।फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने मरीजों की देखभाल में दिन-रात एक कर दिया। रात के समय में जब सब सो रहे होते थे, वह सैनिकों के पास जातीं। यह देखतीं कि सैनिकों को कोई तकलीफ तो नहीं है। अगर कोई तकलीफ होती तो उसको दूर करती ताकि सैनिक आराम से सो सकें। जो लोग खुद से लिख नहीं पाते थे, उनकी ओर से वह उनके घरों पर पत्र भी लिखकर भेजती थीं। रात के समय जब वह मरीजों को देखने जातीं तो लालटेन हाथ में लेकर जाती थीं। इस वजह से सैनिकों ने उनको लेडी विद लैंप कहना शुरू कर दिया।1856 में वह युद्ध के बाद लौटीं। तब तक उनका नाम काफी फैल चुका था। अखबारों में उनकी कहानियां छपीं। लोग उनको नायिका समझने लगे। रानी विक्टोरिया ने खुद पत्र लिखकर उनका शुक्रिया अदा किया। सितंबर 1856 में रानी विक्टोरिया से उनकी भेंट हुई। उन्होंने सैन्य चिकित्सा प्रणाली में सुधार पर चर्चा की। इसके बाद बड़े पैमाने पर सुधार हुआ। सेना ने डॉक्टरों को प्रशिक्षण देना शुरू किया। अस्पताल साफ हो गए और सैनिकों को बेहतर कपड़ा, खाना और देखभाल की सुविधा मुहैया कराई गी। लंदन के सेंट थॉमस हॉस्पिटल में 1860 में नाइटिंगेल ट्रेनिंग स्कूल फॉर नर्सेज खोला गया। न सिर्फ वहां नर्सों को शानदार प्रशिक्षण दिया जाता ता बल्कि अपने घर से बाहर काम करने की इच्छुक महिलाओं के लिए नर्सिंग को सम्मानजनक करियर भी बनाया।
- इम्यूनोथेरेपी एक तरह का उपचार है जो शरीर के प्रतिरोधी तंत्र (इम्यून सिस्टम) को प्रेरित करता है, उसे बढ़ाता या मजबूत बनाता है। इम्यूनोथेरेपी का प्रयोग कुछ विशेष प्रकार के कैंसर और इन्फ्लेमेटरी रोगों जैसे रियूमेटायड अर्थराइटिस, क्रोंस डिजीज और मल्टीपल स्क्लेरोसिस रोगों का इलाज करने के लिए किया जाता है। इसे बॉयोलॉजिकल थेरेपी, बॉयोथेरेपी या बॉयोलॉजिकल रिस्पांस मॉडिफायर (बीआरएम) थेरेपी भी कहा जाता है।शरीर का इम्यून सिस्टम जीवाणु और अन्य बाह्य सामग्री की पहचान करता है और उन्हें नष्ट करता है। हमारी प्राकृतिक प्रतिरक्षा प्रणाली कैंसर की कोशिकाओं को बाहरी या असामान्य रूप में पहचान सकती हैं। सामान्य कोशिकाओं की अपेक्षा कैंसर कोशिकाओं की बाहरी कोशिकीय सतह पर एक विशिष्ट प्रोटीन होता है जिसे एंटीजन कहा जाता है। एंटीजन वे प्रोटीन हैं जो इम्यून सिस्टम द्वारा निर्मित किए जाते हैं। वे कैंसर कोशिकाओं के एंटीजन से जुड़ जाते हैं और उन्हें असामान्य कोशिकाओं के रूप में चिन्हित करते हैं। यदि इम्यून सिस्टम हमेशा सही से कार्य करे तो केमिकल सिग्नल चिन्हित कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करने के लिए इम्यून सिस्टम में विशेष कोशिकाओं को शामिल करते हैं। हालांकि इम्यून सिस्टम स्वयं हमेशा सही ढंग से कार्य नहीं करता है।इम्यूनोथेरेपी प्रतिरोधी तंत्र (इम्यून सिस्टम) को कैंसर से लडऩे के लिए प्रेरित करने में सहायक होता है। इम्यूनोथेरेपी में इस्तेमाल किये जाने वाले केमिकल जिनको प्राय: बॉयोलॉजिकल रिस्पांस मॉडीफायर कहा जाता है क्योंकि वे शरीर के सामान्य इम्यून सिस्टम को कैंसर के खतरे से निपटने लायक बनाते हैं। कुछ बॉयोलॉजिकल रिस्पांस मॉडीफायर वे केमिकल होते हैं, जो शरीर में प्राकृतिक रूप से मौजूद होते हैं, लेकिन किसी व्यक्ति के इम्यून सिस्टम को उन्नत करने में सहायता के लिए बड़ी मात्रा में ये प्रयोगशाला में बनाए जाते हैं। बॉयोलॉजिकल रिस्पांस मॉडीफायर कैंसर से लडऩे में कई प्रकार से सहायक हो सकते हैं। वे किसी ट्यूमर को नष्ट करने के लिये अधिक इम्यू्न सिस्टम कोशिकाओं को शामिल कर सकते हैं। या वे कैंसर कोशिकाओं को इम्यून सिस्टम के आक्रमण के प्रति असुरक्षित कर देते हैं।यहां प्रचलित इम्यूनोथेरेपी के कुछ उदाहरण हैं-इंटरफेरॉंन्स-ये केमिकल शरीर के प्रतिरोधी प्रतिक्रिया को मजबूत करते हैं। ये कैंसर कोशिकाओं को तेजी से बढऩे से रोकने के लिए सीधे उन पर कार्य करते हैं।इंटरल्यूबकिंस- ये केमिकल शरीर की प्रतिरोधी कोशिकाओं (इम्यून सेल्स) विशेषकर लिम्फोसाइट्स(एक प्रकार की श्वेत रक्त कणिका) की बढ़ोत्तरी तेज करते हैं।कालोनी स्टिमुलेटिंग फैक्टर- ये केमिकल बोन मैरो स्टे्म सेल्स का बनना तेज करते हैं। बोन मैरो स्टेम सेल्स का प्रयोग विशेषकर श्वेत रक्त कणिकाएं संक्रमणों से लडऩे के लिए करती हैं। लेकिन वे अक्सर कैंसर की आशंका होने पर किए जाने वाले उपचार कीमोथेरेपी या रेडिएशन थेरेपी के कारण नष्ट हो जाती हैं। कालोनी स्टिमुलेटिंग फैक्टर (उदाहरण के लिए जीसीएसएफ या जीएमसीएसएफ) का इस्तेमाल अन्य कैंसर उपचारों के बाद रक्त में नई कोशिकाओं के विकास में सहायता के लिए किया जाता है।---
- भारत की पहली महिला न्यायाधीश न्यायमूर्ति अन्ना चांडी का जन्म आज ही के दिन हुआ था। (जन्म 4 मई 1905 -निधन 20 जुलाई 1966) । वे 1937 में एक जिला अदालत में भारत में पहली महिला न्यायाधीश बनीं। वे भारत में पहली महिला न्यायाधीश तो थी ही, शायद दुनिया में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद (1959) तक पहुंचने वाली वे दूसरी महिला थीं।न्यायमूर्ति चांडी का जन्म 4 मई 1905 को भारत के तत्कालीन त्रावणकोर राज्य (अब केरल) में एक मलयाली सीरियाई ईसाई माता पिता के यहां हुआ था। उन्होंने 1926 में लॉ में पोस्ट-ग्रैजुएट डिग्री ली थी। अन्ना चांडी अपने राज्य की ऐसी पहली महिला थीं जिन्होंने लॉ की डिग्री ली। इसके बाद उन्होंने बैरिस्टर के तौर पर कोर्ट प्रैक्टिस शुरू कर दी। साल 1937 में त्रावणकोर के दीवान सर सीपी रामास्वामी अय्यर ने अन्ना चांडी को मुंसिफ के तौर पर अपॉइंट किया जिसके बाद वह भारत की पहली महिला जज बन गईं। 1948 में अन्ना चांडी प्रमोशन पाकर जिला जज बन गईं। चांडी भारत के किसी हाई कोर्ट की पहली महिला जज भी बनीं। साल 1959 में न्यायमूर्ति अन्ना चांडी को केरल हाई कोर्ट का जज नियुक्त किया गया। अन्ना ने 1967 तक हाई कोर्ट के जज के तौर पर काम किया।हाई कोर्ट से रिटायरमेंट के बाद न्यायमूर्ति अन्ना चांडी को लॉ कमीशन ऑफ इंडिया में नियुक्त कर दिया गया। न्यायमूर्ति चांडी को महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज उठाने के लिए भी जाना जाता है। उन्होंने श्रीमती नाम से एक मैगजीन भी निकाली थी जिसमें उन्होंने महिलाओं से जुड़े मुद्दों को जोर-शोर से उठाया। उन्होंने अपनी आत्मकथा नाम से अपनी ऑटोबायॉग्राफी भी लिखी थी। साल 1996 में केरल में 91 साल की उम्र में जस्टिस अन्ना चाण्डी का निधन हो गया
- विश्व इतिहास में तीन मई के नाम पर बहुत सी महत्वपूर्ण घटनाएं दर्ज हैं। इस दिन कहीं गृहयुद्ध समाप्त हुआ तो कहीं शांति समझौते पर हस्ताक्षर हुये। भारत में सिने जगत के इतिहास में 3 मई का दिन यादगार रहा क्योंकि इसी दिन भारत की पहली फीचर फिल्म राजा हरिश्चन्द तत्कालीन बम्बई (अब मुंबई) में प्रदर्शित हुई। 40 मिनट की इस मूक फिल्म ने प्रदर्शन के साथ ही भारत में तहलका मचा दिया था। फिल्म अयोध्या के प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा राजा हरिश्चन्द्र की कथाओं पर आधारित थी। .राजा हरिश्चन्द्र फिल्म 1913 में बनी थी। इसके निर्माता निर्देशक दादासाहब फालके थे और यह भारतीय सिनेमा की प्रथम पूर्ण लम्बाई की नाट्य रूपक फि़ल्म थी। फि़ल्म भारत की कथाओं में से एक जो राजा हरिश्चन्द्र की कहानी पर आधारित है। यद्यपि फि़ल्म मूक है लेकिन इसमें दृश्यों के भीतर अंग्रेज़ी और हिन्दी में कथन लिखकर समझाया गया है। चूंकि फि़ल्म में अभिनय करने वाले सभी कलाकार मराठी थे अत: फि़ल्म को मराठी फि़ल्मों की श्रेणी में भी रखा जाता है।फि़ल्म ने भारतीय फिल्म उद्योग में ऐतिहासिक नींव स्थापित की। फि़ल्म की शुरुआत राजा रवि वर्मा द्वारा की गई राजा हरिश्चन्द्र, उनकी पत्नी और पुत्र की चित्रों द्वारा बनाये गये चित्रों की प्रतिलिपियों की झांकी से आरम्भ होती है। फि़ल्म में प्रमुख अभिनय भूमिका में दत्तात्रय दामोदर दबके हैं। फि़ल्म में मुख्य अभिनेत्री का अभिनय अन्ना सालुंके नामक अभिनेता ने किया।अन्य कलाकार थे-बालाचन्द्र डी फालके , जी. व्ही. साने , डी. डी. दाबके, पी. जी. साने, अण्णा साळुंके, भालचंद्र फाळके, दत्तात्रेय क्षीरसागर, दत्तात्रेय तेलंग, गणपत शिंदे, विष्णू हरी औंधकर और नाथ तेलंग।----
- साल के हर दिन की तरह 2 मई के नाम पर भी इतिहास की कई अच्छी बुरी घटनाएं दर्ज हैं। अच्छी घटनाओं में कहें तो भारतीय सिने जगत के बेहतरीन निर्माता, निर्देशक और लेखक सत्यजीत रे का जन्म दो मई को ही हुआ था।सत्यजीत रे (जन्म- 2 मई 1921-निधन-23 अप्रैल 1992) एक भारतीय फि़ल्म निर्देशक थे, जिन्हें 20वीं शताब्दी के सर्वोत्तम फि़ल्म निर्देशकों में गिना जाता है। इनका जन्म कला और साहित्य के जगत में जाने-माने कोलकाता (तब कलकत्ता) के एक बंगाली अहीर परिवार में हुआ था। इनकी शिक्षा प्रेसिडेंसी कॉलेज और विश्व-भारती विश्वविद्यालय में हुई। उन्होंने अपने कॅरिअर की शुरुआत पेशेवर चित्रकार की तरह की। फ्रांसिसी फि़ल्म निर्देशक ज्यां रेनुआ से मिलने पर और लंदन में इतालवी फि़ल्म लाद्री दी बिसिक्लेत देखने के बाद फि़ल्म निर्देशन की ओर इनका रुझान हुआ।रे ने अपने जीवन में 37 फि़ल्मों का निर्देशन किया, जिनमें फ़ीचर फि़ल्में, वृत्त चित्र और लघु फि़ल्में शामिल हैं। इनकी पहली फि़ल्म पथेर पांचाली को कान फि़ल्मोत्सव में मिले सर्वोत्तम मानवीय प्रलेख पुरस्कार को मिलाकर कुल ग्यारह अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले। यह फि़ल्म अपराजितो और अपुर संसार के साथ इनकी प्रसिद्ध अपु त्रयी में शामिल है। सत्यजीत रे फि़ल्म निर्माण से सम्बन्धित कई काम ख़ुद ही करते थे — पटकथा लिखना, अभिनेता ढूंढना, पाश्र्व संगीत लिखना, चलचित्रण, कला निर्देशन, संपादन और प्रचार सामग्री की रचना करना। फि़ल्में बनाने के अतिरिक्त वे कहानीकार, प्रकाशक, चित्रकार और फि़ल्म आलोचक भी थे। रे को जीवन में कई पुरस्कार मिले जिनमें अकादमी मानद पुरस्कार और भारत रत्न भी शामिल हैं।1983 में फि़ल्म घरे बाइर पर काम करते हुए राय को दिल का दौरा पड़ा जिससे उनके जीवन के बाकी 9 सालों में उनकी कार्य-क्षमता बहुत कम हो गई। घरे बाइरे का छायांकन सत्यजीत रे के बेटे की मदद से 1984 में पूरा हुआ। 1992 में हृदय की दुर्बलता के कारण राय का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया, जिससे वह कभी उबर नहीं पाए। मृत्यु से कुछ ही हफ्ते पहले उन्हें सम्मानदायक अकादमी पुरस्कार दिया गया। 23 अप्रैल 1992 को उनका देहान्त हो गया। इनकी मृत्यु होने पर कोलकाता शहर लगभग ठहर गया और हज़ारों लोग इनके घर पर इन्हें श्रद्धांजलि देने आए।---
- जब भी कोई व्यक्ति किसी वायरस का शिकार होता है तो उसके शरीर में उस वायरस से लडऩे के लिए एंटीबॉडीज बनती हैं। रैपिड टेस्ट में उन्हीं एंटीबॉडीज का पता लगाया जाता है। इसे रैपिड टेस्ट इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसके नतीजे बहुत ही जल्दी आ जाते हैं। महज 15-20 मिनट में ही इसका रिजल्ट सामने होता है।कैसे टेस्ट होता है एंटीबॉडी टेस्ट?इसमें व्यक्ति का ब्लड सैंपल लेकर एंटीबॉडी टेस्ट या सीरोलॉजिकल यानी सीरम से जुड़े टेस्ट किए जाते हैं। इसके लिए व्यक्ति की उंगली से महज एक-दो बूंद खून की जरूरत होती है। इससे ये पता चल जाता है कि हमारे इम्यून सिस्टम ने वायरस को बेअसर करने के लिए एंटीबॉडीज बनाए हैं या नहीं। ऐसे में जिन लोगों में कोरोना के संक्रमण के लक्षण कभी नहीं दिखते, उनमें भी ये आसानी से समझा जा सकता है कि वह संक्रमित है या नहीं, या पहले संक्रमित था या नहीं।एंटीबॉडी टेस्ट आखिर रियल टाइम पीसीआर टेस्ट से अलग कैसे?मौजूदा समय में कोरोना वायरस का संक्रमण पता लगाने के लिए रियल टाइम पीसीआर टेस्ट किया जाता है। इसमें लोगों का स्वैब सैंपल लिया जाता है, जो आरएनए पर आधारित होता है। यानी इस टेस्ट में मरीज के शरीर में वायरस के आरएनए जीनोम के सबूत खोजे जाते हैं।रैपिड टेस्ट पॉजिटिव-निगेटिव आने पर क्या होता है?अगर रैपिड टेस्ट पॉजिटिव आता है तो हो सकता है कि वह व्यक्ति कोविड-19 का मरीज हो, ऐसे में उसे घर में ही आइसोलेशन में रहने या फिर अस्पताल में रखने की सलाह दी जाती है। वहीं अगर ये टेस्ट निगेटिव आता है तो फिर उसका रियल टाइम पीसीआर टेस्ट किया जाता है। रियल टाइम पीसीआर टेस्ट में पॉजिटिव आने पर अस्पताल या घर में आइसोलेशन में रखा जाता है। वहीं रियल टाइम पीसीआर टेस्ट निगेटिव आने पर माना जाता है कि उसमें कोरोना वायरस का संक्रमण नहीं हैं।अगर किसी शख्स का पीसीआर टेस्ट नहीं हो पाता है तो उसे होम क्वारंटीन में रखा जाता है और 10 दिन बाद दोबारा से एंटीबॉडी टेस्ट किया जाता है। यानी दोनों ही मामलों में ये पूरी तरह से कनफर्म नहीं होता कि मरीज कोरोना पॉजिटिव है या नहीं, कनफर्म रिपोर्ट के लिए रियल टाइम पीसीआर टेस्ट ही करना होता है। हालांकि, ये पता चल जाता है कि व्यक्ति का शरीर कोविड-19 से लडऩे के लिए एंटीबॉडी बना रहा है या नहीं।क्यों जरूरत है रैपिड टेस्ट की?रियल टाइम पीसीआर में मरीज के सही होने के बाद आरएनए जीनोम का पता नहीं चलता, जिससे ये पता नहीं चल सकता है कि वह पहले संक्रमित था या नहीं। वहीं रैपिड टेस्ट में मरीज के सही होने के कुछ दिनों बाद तक ये पता चल सकता है कि वह संक्रमित था या नहीं। इस टेस्ट की जरूरत इसलिए भी पड़ी है क्योंकि इससे नतीजे बहुत जल्दी आ जाते हैं।---
- राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की पहचान है लाल किला। 29 अप्रैल वर्ष 1639 को लाल किले की नींव रखी गई थी। लाल किला जिसे रेड फोर्ट के नाम से भी जाना जाता है। लाल किले का निर्माण सबसे प्रसिद्ध मुगल बादशाहों में से एक शाहजहां ने किया था। यमुना नदी के तट पर निर्मित किले-महल को वास्तुकार उस्ताद अहमद लाहौरी द्वारा डिजाइन किया गया था।शानदार किले को बनाने में करीब 10 साल का समय लगा। किले ने 1648 से 1857 तक मुगल सम्राटों के शाही निवास के रूप में कार्य किया। इसने प्रसिद्ध आगरा किले से शाही निवास का स्थान लिया जब शाहजहां ने अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली स्थानांतरित करने का फैसला किया। लाल किले का नाम लाल-बलुआ पत्थर की दीवारों से लिया गया है, जो किले को लगभग अभेद्य बना देता है। यह किला पुरानी दिल्ली में स्थित है, भारत की विशाल और प्रमुख संरचनाओं में से एक है और मुगल वास्तुकला का बेहतरीन नमूना है। इसे अक्सर मुगल रचनात्मकता का शिखर माना जाता है। आधुनिक समय में किला भारत के लोगों के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भारतीय प्रधानमंत्री हर साल 15 अगस्त को किले से अपना स्वतंत्रता दिवस भाषण देते हैं। वर्ष 2007 में इसे यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था।लाल किले में पर्यटकों को एक और मुगलकालीन संरचना देखने को मिलेगी। यह है किले का दूसरा हमाम। मुमताज महल के पास बना यह हमाम अब तक झाडिय़ों में छिपा हुआ था। इसकी साफ-सफाई और संरक्षण के बाद लोग इसे देख सकेंगे। हालांकि, अब इसके अवशेष ही बचे हैं। करीब 160 साल बाद पर्यटक इसे देख पाएंगे। 1857 में अंग्रेजों ने जब लाल किले पर कब्जा किया तो बड़े पैमाने पर तोडफ़ोड़ की। किले के दक्षिणी हिस्से में मुमताज महल है। यह शाही हरम का हिस्सा था। इसके बाद कोई भी इमारत सुरक्षित नहीं बची। उन्होंने अपनी सुरक्षा के लिहाज से जो निर्माण किए वे आज भी मौजूद हैं। मुमताज महल के पास अब तक यहां केवल झाडिय़ां ही थीं। अब साफ-सफाई कर दी गई है। कन्जर्वेशन के बाद लोगों को यह ऐतिहासिक धरोहर देखने को मिलेगी। यह हमाम करीब 40 फीट लंबा और 15 फीट चौड़ा है। अब तक इस हिस्से की ओर लोगों को जाने की इजाजत नहीं थी।आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की योजना है कि हमाम के संरक्षण के बाद में इसे लोगों को देखने की इजाजत दी जाएगी। लाल किले में मोती मस्जिद और दीवान-ए-खास के पास एक और हमाम है। ऐसा माना जाता है कि यह शाही बच्चों के नहाने के लिए था। यह हमाम किले के उत्तरी हिस्से की ओर है। मुमताज महल के पास वाले हमाम और दीवान-ए-खास के पास मौजूद हमाम में काफी दूरी है।शाहजहां ने आगरा से हटाकर अपनी राजधानी दिल्ली लाने के बाद शाहजहांनाबाद शहर बसाया और लाल किले की नींव सन् 1639 में रखी। 9 साल बाद यानी सन् 1648 में लाल किला बनकर तैयार हो गया। तब से अब तक इस ऐतिहासिक धरोहर ने कई राज देखे और देश के बदलाव का गवाह बना रहा। यह अपने आपमें बेशुमार ऐतिहासिक धरोहर समेटे हुए है।लाल किले में बड़े पैमाने पर संरक्षण का काम चल रहा है। इनमें छत्ता बाजार की छतों की मुगलकालीन नक्काशी और दुकानों के गेट मेहराब की तरह करना शामिल है। इसके अलावा, खास महल और दीवान-ए-खास में भी संरक्षण का काम चल रहा है।
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वाशिंगटन। वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि एक उल्कापिंड इस 29 अप्रैल को पृथ्वी के बेहद करीब से होकर गुजरेगा, जिसकी गति 19 हजार किलोमीटर प्रति घंटा है। हालांकि, वैज्ञानिकों ने उम्मीद जतायी है कि यह धरती से टकरायेगा नहीं इसलिए लोगों को घबराने की जरूरत नहीं है।
इस उल्कापिंड का नाम 1998 ओ आर 2 है। बताया जा रहा है कि बुधवार यानि कल यह घरती के बेहद करीब से गुजरेगा। भारत समेत दुनियाभर के वैज्ञानिक इस उल्कापिंड की दिशा पर गहरी नजर बनाए हुए हैं। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के सेंटर फॉर नियर-अर्थ स्टडीज की मानें तो अनुसार, इसी बुधवार यानि 29 अप्रैल को सुबह 5:56 बजे उल्कापिंड के पृथ्वी के पास से होकर गुजरेगा। वैज्ञानिकों को डर बस इस बात का सता रहा है कि इसकी राह में हल्का सा भी परिवर्तन आया तो इसका प्रभाव पूरे विश्व को भुगतना पड़ सकता है।हर सौ साल में उल्कापिंड के धरती से टकराने की 50 हजार संभावनाएं होती हैं। हालांकि, वैज्ञानिकों के अनुसार उल्कापिंड जैसे ही पृथ्वी के पास आता है तो जल जाता है। आज तक के इतिहास में बहुत कम मामला ऐसा है जब इतना बड़ा उल्कापिंड धरती से टकराया हो। धरती पर ये उल्कापिंड कई छोटे-छोटे टुकड़े में गिरते हैं। जिनसे किसी प्रकार का कोई नुकसान आज तक नहीं हुआ है। जैसा कि ज्ञात हो इसके बारे में वैज्ञानिकों ने करीब एक महीने पहले ही बताया था कि यह पृथ्वी के बेहद करीब से होकर गुजरेगा.क्या होता है उल्कापिंडआकाश में कभी-कभी एक ओर से दूसरी ओर अत्यंत वेग से जाते हुए अथवा पृथ्वी पर गिरते हुए जो पिंड दिखाई देते हैं उन्हें उल्का और साधारण बोलचाल में टूटते हुए तारे अथवा लूका कहते हैं। उल्काओं का जो अंश वायुमंडल में जलने से बचकर पृथ्वी तक पहुंचता है उसे उल्कापिंड कहते हैं। प्राय: प्रत्येक रात्रि को उल्काएं अनगिनत संख्या में देखी जा सकती हैं, किंतु इनमें से पृथ्वी पर गिरने वाले पिंडों की संख्या अत्यंत अल्प होती है। - आज 28 अप्रैल वर्ष 2008 को भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान संगठन, इसरो ने नया इतिहास रचा। भारत ने दस उपग्रह एक साथ प्रक्षेपित किए। भारत का उपग्रह प्रक्षेपण यान पीएसएलवी-सी9 , 28 अप्रैल को 10 उपग्रहों के साथ सफलतापूर्वक प्रक्षेपित कर दिया गया। श्रीहरिकोटा से छोड़ा गया यह प्रक्षेपण यान अपने साथ जो 10 उपग्रह लेकर गया है उसमें से आठ अन्य देशों के और दो भारत के थे। इस तरह 10 उपग्रहों को एक साथ अंतरिक्ष में छोडऩे का काम करते हुए इस प्रक्षेपण ने एक नया इतिहास रच दिया। लॉन्च किए जाने वाले दस उपग्रहों में भारत का आधुनिक रिमोट सेसिंग उपग्रह शामिल था, इसका अलावा आठ विदेशी नैनो उपग्रहों को भी छोड़ा गया।अपने तय समयानुसार यानी भारत में सुबह के नौ बजकर 23 मिनट पर इस यान को प्रक्षेपित किया। कुछ ही मिनटों में यान ने अपनी सही ऊंचाई हासिल कर ली और उपग्रह लेकर जाने वाले रॉकेट इससे अलग होकर सफलतापूर्वक स्थापित होने लगे। इससे पहले वर्ष 2007 अप्रैल में एक रूसी उपग्रह प्रक्षेपण यान से 13 उपग्रहों को छोड़ा गया था लेकिन ये यान अपने अभियान में सफल नहीं हो सके थे। भारत का 230 टन वजऩ वाला पोलर सेटेलाइट लॉन्च वीहकल (पीएसएलवी-सी9) कुल 824 किलो भार लेकर गया। कऱीब 70 करोड़ की लागत वाले पीएसएलवी-सी9 की ये 13वीं उड़ान रही। रिमोट सेंसिंग सेटेलाइट कार्टोसेट-2ए का वजऩ 690 किलोग्राम और इसमें आधुनिक पैनक्रोमैटिक कैमरा लगे हुए थे जो उच्च गुणवत्ता की तस्वीरें खींचने में सक्षम थे। इस प्रक्षेपण यान में सबसे बड़ा कार्टोसैट 2्र नाम का एक उपग्रह है जो एक मैपिंग उपग्रह है। ये उपग्रह एक मीटर से छोटी वस्तु को भी 600 किलोमीटर से नाप सकता है इसकी क्षमता किसी भेदी उपग्रह की तरह ही होगी, लेकिन इसका उपयोग असैनिक कामों के लिए किया जाएगा।
- इतिहास में 27 अप्रैल का दिन कई मायनों में अहमियत रखता है। यह दिन कई छोटी बड़ी घटनाओं का गवाह रहा है। इनमें कुछ इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गईं तो कुछ भुला दी गईं।एक तो भारत की मुगल सल्तनत के इतिहास में 27 अप्रैल का खास महत्व है। 1526 में 27 अप्रैल के दिन ही बाबर ने दिल्ली का तख्त-ओ-ताज संभाला था।दूसरा 27 अप्रैल 1940 में नाजियों ने पोलैंड के ओस्वीसिम में यातना शिविर का निर्माण शुरू किया। इसे आउश्वित्स के नाम से जाना जाने लगा और इसे बनाने के आदेश वरिष्ठ नाजी अफसर हाइनरिष हिमलर ने दिए। आउश्वित्स के दरवाजे पर आरबाइट माख्ट फ्राई लिखा गया था, जिसका अर्थ है मेहनत आजाद करती ह।आउश्वित्स में तीन बड़े कैंप थे जिनमें पांच शवदाह केंद्र थे। इस यातना शिविर में करीब 11 लाख बंदियों को मारा गया लेकिन कुछ अनुमानों के मुताबिक मारे गए लोगों की संख्या 20 लाख तक हो सकती है। इनमें से ज्यादातर बंदी यहूदी थे। ज्यादातर कैदियों को सिक्लोन बी नाम की जहरीली गैस से खास कमरों में मारा गया लेकिन कई कैदी भूख और कड़ी मजदूरी की वजह से अपनी जान खो बैठे। इस शिविर में नाजियों ने कई बर्बर प्रयोग भी किए। पहले तो आउश्वित्स में जर्मनी का विरोध कर रहे पोलैंड के निवासियों को कैद करने की बात थी, लेकिन 1941 में हिमलर ने तय किया कि यह यातना शिविर यूरोप में रह रहे सारे यहूदियों को खत्म करने का काम करेगा। इस सिद्धांत को अंतिम निपटारा का नाम दिया गया और इसके तहत यूरोप भर से यहूदियों को जमा कर उन्हें मारने की योजना बनाई गई और इसे अमल में भी लाया गया। पश्चिमी मित्र देशों के जर्मनी पर हमले के बाद आउश्वित्स को यहूदियों को दी गई यातना की याद में स्मारक घोषित किया गया।
- कोरोना वायरस के साथ जुड़े होने के कारण हाल में चमगादड़ों का खूब नाम खराब हुआ। बीमारियां फैलाने के अलावा यह निशाचर जीव बहुत से दूसरे काम भी करते हैं।बीमारियों के लिए जिम्मेदारकुदरती तौर पर चमगादड़ कई तरह के वायरसों के होस्ट होते हैं। सार्स, मर्स, कोविड-19, मारबुर्ग, निपा, हेन्ड्रा और शायद इबोला का वायरस भी इनमें रहता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इनका अनोखा इम्यूम सिस्टम इसके लिए जिम्मेदार है जिससे ये दूसरे जीवों के लिए खतरनाक बीमारियों के कैरियर बनते हैं। इनके शरीर का तापमान काफी ऊंचा रहता है और इनमें इंटरफेरॉन नामका एक खास एंटीवायरल पदार्थ होता है।ना कैंसर और ना बुढ़ापा छू सकेसाल में केवल एक ही संतान पैदा कर सकने वाले चमगादड़ ज्यादा से ज्यादा 30 से 40 साल ही जीते हैं, लेकिन ये कभी बूढ़े नहीं होते यानि पुरानी पड़ती कोशिकाओं की लगातार मरम्मत करते रहते हैं। इसी खूबी के कारण इन्हें कभी कैंसर जैसी बीमारी भी नहीं होती।हर कहीं मौजूद लेकिन फिर भी दुर्लभऑस्ट्रेलिया की झाडिय़ों से लेकर मेक्सिको के तट तक - कहीं पेड़ों में लटके, तो कहीं पहाड़ की चोटी पर, कहीं गुफाओं में छुपे तो कहीं चट्टान की दरारों में - यह अंटार्कटिक को छोड़कर धरती के लगभग हर हिस्से में पाए जाते हैं। स्तनधारियों में चूहों के परिवार के बाद संख्या के मामले में चमगादड़ ही आते हैं।काले ही नहीं सफेद भी होते हैं चमगादड़-यह है होंडुरान व्हाइट बैट, जो यहां हेलिकोनिया पौधे की पत्ती में अपना टेंट सा बना कर चिपका हुआ है। दुनिया में पाई जाने वाली चमगादड़ों की 1,400 से भी अधिक किस्मों में से केवल पांच किस्में सफेद होती हैं और यह होंडुरान व्हाइट बैट तो केवल अंजीर खाते हैं।यूं ही कहलाते हैं खून के प्यासेचमगादड़ों को आम तौर पर दुष्ट खून चूसने वाले जीव समझा जाता है लेकिन असल में इनकी केवल तीन किस्में ही सचमुच खून पीती हैं। जो पीते हैं वे अपने दांतों को शिकार की त्वचा में गड़ा कर छेद करते हैं और फिर खून पीते हैं। यह किस्म अकसर सोते हुए गाय-भैंसों, घोड़ों को ही निशाना बनाते हैं लेकिन जब कभी ये इंसानों में दांत गड़ाते हैं तो उनमें कई तरह के संक्रमण और बीमारियां पहुंचा सकते हैं।क्या सारे चमगादड़ अंधे होते हैंइनकी आंखें छोटी होने और कान बड़े होने की बहुत जरूरी वजहें हैं। यह सच है कि ज्यादातर की नजर बहुत कमजोर होती है और अंधेरे में अपने लिए रास्ता तलाशने के लिए वे सोनार तरंगों का सहारा लेते हैं। अपने गले से ये बेहद हाई पिच वाली आवाज निकालते हैं और जब वह आगे किसी चीज से टकरा कर वापस आती है तो इससे उन्हें अपने आसपास के माहौल का अंदाजा होता है।ये ना होते तो ना आम होते और ना केलेजी हां, आम, केले और आवोकाडो जैसे फलों के लिए जरूरी परागण का काम चमगादड़ ही करते हैं। ऐसी 500 से भी अधिक किस्में हैं जिनके फूलों में परागण की जिम्मेदारी इन पर ही है। मेक्सिको के लंबी नाक वाले चमगादड़ और इक्वाडोर के ट्यूब जैसे होंठों वाले चमगादड़ अपनी लंबी जीभ से इस काम को अंजाम देते हैं।--
- इतिहास में आज के दिन एक ऐसा हादसा हुआ जिसने हजारों लोगों की जिंदगी बदल दी। बहुत लोग अब भी इस हादसे से प्रभावित हैं। 26 अप्रैल 1986 को चेरनोबिल में परमाणु हादसा हुआ। उस वक्त चेरनोबिल, जो अब यूक्रेन में है, सोवियत रूस का हिस्सा हुआ करता था। 26 अप्रैल 1986 को परमाणु रिएक्टर में एक बड़ा धमाका हुआ जिससे पूरे वातावरण में रेडियोधर्मी कण फैल गए। उस वक्त हवा और बादलों की वजह से रेडियोधर्मी कण सोवियत रूस के पश्चिमी हिस्से और यूरोप तक में फैल गए।चेरनोबिल दुनिया के सबसे खतरनाक परमाणु हादसों में गिना जाता है। हादसे के तुरंत बाद करीब 30 लोगों की मौत हुई लेकिन आसपास के रूसी, बेलारूसी और यूक्रेनी इलाकों से तीन लाख 50 हजार से ज्यादा लोगों को रेडियोधर्मी किरणों से बचाने के लिए दूर ले जाया गया। माना जाता है कि हादसे का सबसे ज्यादा नुकसान बेलारूस में हुआ। अब भी हजारों लोग रेडियोधर्मी किरणों से प्रभावित हैं।माना जाता है कि चेरनोबिल की वजह से मरने वाले लोगों की संख्या 4 हजार तक जा सकती है। पीडि़तों को अकसर थाइरॉयड कैंसर या ल्यूकेमिया होता है। रूस, बेलारूस और यूक्रेन अब भी चेरनोबिल रिएक्टर की रेडियोधर्मी किरणों से लोगों के बचाने के लिए बहुत निवेश कर रहे हैं। चेरनोबिल के बाद फुकुशिमा परमाणु रिएक्टर की दुर्घटना सबसे खतरनाक परमाणु हादसा माना जाता है।----
- - वर्ष 1955- लड़कियों के लिए पहला स्कूल- सऊदी अरब में लड़कियों के लिए पहला स्कूल दार-अल-हनन 1955 में खोला गया, उस साल तक कुछ ही लड़कियों को किसी भी तरह की शिक्षा प्राप्त करने का मौका मिलता था। इसी तरह लड़कियों के लिए पहला सरकारी स्कूल 1961 में खोला गया था।- वर्ष 1970- लड़कियों के लिए पहली यूनिवर्सिटी- लड़कियों के लिए पहली यूनिवर्सिटी रियाद कॉलेज ऑफ एजुकेशन थी जो साल 1970 में खोली गयी थी। यह देश में महिलाओं की उच्ची शिक्षा के लिए पहली यूनिवर्सिटी थी।- वर्ष 2001- महिलाओं का पहचान पत्र- 21वीं सदी के साथ सऊदी अरब में एक और नई शुरूआत हुई और यह शुरुआत थी महिलाओं के पहचान पत्र की। हालांकि यह पहचान पत्र महिला के अभिभावक की स्वीकृति से जारी किये जाते थे, लेकिन वर्ष 2006 से बिना किसी इजाजत के महिलाओं को पहचान पत्र जारी किये जा रहे हैं।- वर्ष 2005- जबरन शादी का अंत- सऊदी अरब ने जबरन शादी पर 2005 में रोक लगाया। हालांकि, विवाह प्रस्ताव लड़के और लड़की के पिता के बीच तय होना जारी रहा।- वर्ष 2009- पहली महिला मंत्री- 2009 में राजा अब्दुल्ला ने सऊदी अरब की सरकार में पहली महिला मंत्री नियुक्त किया और इस तरह नूरा अल-फैज महिला मामलों के लिए उप शिक्षा मंत्री बनीं।- वर्ष 2012- पहली महिला ओलंपिक एथलीट्स- सऊदी अरब ने पहली बार महिला एथलीट्स को ओलंपिक की राष्ट्रीय टीम में हिस्सा लेने की अनुमति दी। इन खिलाडिय़ों में सारा अत्तार थीं, जो 2012 के ओलंपिक खेलों में लंदन में स्कार्फ पहन कर 800 मीटर की रेस दौड़ीं।- वर्ष 2013- महिलाओं को साइकिल/मोटरसाइकिलों की सवारी करने की अनुमति- सऊदी नेताओं ने महिलाओं को 2013 में पहली बार साइकिल और मोटरबाइक की सवारी करने की अनुमति दी। हालांकि, इस पर भी शर्ते थीं महिलाएं केवल मनोरंजक क्षेत्रों में, पूरे शरीर को ढंक कर और एक पुरुष रिश्तेदार की उपस्थित में सवारी कर सकती थीं।- वर्ष 2013- शूरा में पहली महिला- फरवरी 2013 में, राजा अब्दुल्ला ने सऊदी अरब की सलाहकार परिषद शूरा में 30 महिलाओं को शपथ दिलवायी। इसके बाद इस समिति में महिलाओं को नियुक्त किया जाने लगा जल्द ही वे सरकारी दफ्तर भी संभालेंगी।- वर्ष 2015- वोट देने का अधिकार- 2015 में सऊदी अरब के नगरपालिका चुनाव में, पहली बार महिलाओं ने वोट डाला साथ ही उन्हें इन चुनावों में उम्मीदवार बनने का भी मौका मिला। इसके विपरीत, 1893 में, महिलाओं को वोट का अधिकार देने वाला पहला देश न्यूजीलैंड था। जर्मनी ने 1919 में ऐसा किया था।- वर्ष 2017- सऊदी स्टॉक एक्सचेंज की पहली महिला प्रमुख- फरवरी 2017 में, सऊदी अरब स्टॉक एक्सचेंज ने सारा अल सुहैमी के रूप में अपनी पहली महिला अध्यक्ष को नियुक्त किया था। इससे पहले 2014 में वह नेशनल कामर्शियल बैंक (एनसीबी) की पहली महिला सीईओ भी बनाई जा चुकी थीं।- वर्ष 2018- महिलाओं को ड्राइव करने की अनुमति दी जाएगी- 26 सितंबर, 2017 को, सऊदी अरब ने घोषणा की कि महिलाओं को जल्द ही ड्राइव करने की अनुमति दी जाएगी। जून 2018 से उन्हें गाड़ी के लाइसेंस के लिए अपने पुरुष अभिभावक से अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी साथ ही गाड़ी चलाने के लिए अपने संरक्षक की भी जरूरत नहीं होगी।
- 25 अप्रैल 1983 को जर्मनी के उत्तरी शहर हैम्बर्ग में हलचल थी। स्टैर्न पत्रिका के संपादक ने एक अंतरराष्ट्रीय प्रेस कॉन्फ्रेंस में शताब्दी की सनसनी पेश की, हिटलर की गोपनीय डायरी, जिसका पता किया था स्टैर्न के रिपोर्टर गैर्ड हाइडेमन ने। यह खबर पाने के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस में 250 पत्रकार मौजूद थे। पत्रिका के संपादकीय में लिखा गया था कि तृतीय राइष का इतिहास फिर से लिखना होगा।ऐसा नहीं है कि हिटलर की डायरी के अस्तित्व पर किसी को शक नहीं हुआ हो, लेकिन स्टैर्न के मुख्य संपादक पेटर कॉख ने डायरी की सच्चाई पर संदेह को रिमोट डायगोनोस्टिक बताया। दो हफ्ते में ही सारा हंगामा थम गया, सनसनी खत्म हो गई। हिटलर की गोपनीय डायरी धोखाधड़ी साबित हुई। जर्मनी के संघीय अपराध कार्यालय बीकेए और संघीय अभिलेखागार ने उन्हें जालसाजी बताया और वह भी मामूली स्तर की। जिस कागज पर कथित डायरी लिखी गई थी, उस पर एक रसायन था जो युद्ध के बाद बाजार में आया था।स्टैर्न की पूरी दुनिया में बड़ी किरकिरी हुई। मुख्य संपादकों की नौकरी गई। यह मामला पत्रकारीय विफलता की मिसाल बन गया। प्रकाशक हेनरी नानेन को कहना पड़ा कि स्टैर्न शर्मसार है। इस मामले से स्टैर्न की छवि को तो नुकसान पहुंचा ही, उसकी बिक्री पर भी भारी असर हुआ। बहुत से लोगों ने उस समय सबसे ज्यादा बिकने वाली पत्रिका को खरीदना भी बंद कर दिया। छवि और बिक्री के संकट से उबरने में स्टैर्न को सालों लग गए।
- किसी भी वाहन में लगने वाले टायरों का रंग हमेशा काला ही होता है। दरअसल कच्चा रबर हल्के पीले रंग का होता है, लेकिन टायर बनाने के लिए उसमें काला कार्बन मिलाया जाता है जिससे रबर जल्दी न घिसे।अगर सादा रबर का टायर 8 हज़ार किलोमीटर चल सकता है तो कार्बन युक्त टायर एक लाख किलोमीटर चल सकता है। इसीलिए वाहनों में काले रंग के टायरों का ही इस्तेमाल किया जाता है। काले कार्बन की भी कई श्रेणियां होती हैं और रबर मुलायम होगी या सख्त यह इस पर निर्भर करेगा कि कौन सी श्रेणी का कार्बन उसमें मिलाया गया है। मुलायम रबर के टायरों की पकड़ मज़बूत होती है लेकिन वो जल्दी घिस जाते हैं जबकि सख्त टायर आसानी से नहीं घिसते।
- भारत में हर साल 24 अप्रैल को राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस मनाया जाता है। ये दिन भारतीय संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम, 1992 के पारित होने का प्रतीक है, जो 24 अप्रैल 1993 से लागू हुआ था। इस दिन को राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत साल 2010 से हुई थी।पूरे देश को चलाने में सिर्फ केंद्र सरकार या सिर्फ राज्य सरकार सक्षम नहीं हो सकती है। ऐसे में स्थानीय स्तर पर भी प्रशासनिक व्यवस्था जरूरी है। इस काम के लिए बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में 1957 में एक समिति का गठन किया गया था। समिति ने अपनी सिफारिश में जनतांत्रिक विकेंद्रीकरण की सिफारिश की जिसे पंचायती राज कहा गया है।1992 को संविधान में 73वां संशोधन कर पहली बार पंचायती राज संस्थान की पेशकश की गई। इसके तहत स्थानीय निकायों को शक्तियां दी गईं। पंचायती राज के तहत गांव, इंटरमीडिएट और जिलास्तर पर पंचायतें संस्थागत बनाई गई हैं। राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस जमीनी स्तर से राजनीतिक शक्ति के विकेंद्रीकरण के इतिहास को बताता है। उनकी आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय की शक्ति को दर्शाता है। राजस्थान देश का पहला राज्य बना जहां पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई। इस योजना का शुभारम्भ तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने नागौर जिले में 2 अक्टूबर 1959 को किया था।भारत में पंचायती राज व्यवस्था की देखरेख के लिए 27 मई 2004 को पंचायती राज मंत्रालय को एक अलग मंत्रालय बनाया गया। भारत में हर साल 24 अप्रैल को राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस मनाया जाता है। इस दिवस को मनाने का कारण 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 है जो 24 अप्रैल 1993 से लागू हुआ था।पंचायती राज व्यवस्था में ग्राम, तहसील, तालुका और जिला आते हैं। भारत में प्राचीन काल से ही पंचायती राजव्यवस्था अस्तित्व में रही है, भले ही इसे विभिन्न नाम से विभिन्न काल में जाना जाता रहा हो। पंचायती राज व्यवस्था को कमोबेश मुग़ल काल तथा ब्रिटिश काल में भी जारी रखा गया। ब्रिटिश शासन काल में 1882 में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड रिपन ने स्थानीय स्वायत्त शासन की स्थापना का प्रयास किया था, लेकिन वह सफल नहीं हो सका। ब्रिटिश शासकों ने स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं की स्थिति पर जाँच करने तथा उसके सम्बन्ध में सिफ़ारिश करने के लिए 1882 तथा 1907 में शाही आयोग का गठन किया। इस आयोग ने स्वायत्त संस्थाओं के विकास पर बल दिया, जिसके कारण 1920 में संयुक्त प्रान्त, असम, बंगाल, बिहार, मद्रास और पंजाब में पंचायतों की स्थापना के लिए क़ानून बनाये गये। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान भी संघर्षरत लोगों के नेताओं द्वारा सदैव पंचायती राज की स्थापना की मांग की जाती रही।---
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आज का दिन कवि और नाटककार विलियम शेक्सपीयर के नाम है। दुनिया के महानतम कवियों और नाटककारों में एक शेक्सपीयर का जन्म और निधन दोनों इसी तारीख से जुड़ा हुआ है। वैसे तो शेक्सपीयर के जन्म के बारे में जो वर्णन मौजूद है उसके मुताबिक उनका 26 अप्रैल 1564 के दिन बप्तिस्मा किया गया था, लेकिन ऐसी संभावना जताई जाती है कि उनका जन्म 23 अप्रैल 1564 को हुआ था और उनका निधन भी इसी तारीख को 1616 में हुआ। उन्हें अक्सर इंग्लैंड का राष्ट्रीय कवि भी कहा जाता है। उनके नाम पर 38 नाटक, 154 सॉनेट, दो लंबी कविताएं हैं। हालांकि कुछ ऐसा भी है जो है तो शेक्सपीयर के नाम लेकिन उन्होंने ही लिखा होगा इस बारे में संदेह है। उनके नाटकों का अनुवाद कई भाषाओं में होता है। माना जाता है कि 1949 में 49 साल की उम्र में वह नाटकों से रिटायर हो गए। शेक्सपीयर के निजी जीवन के बारे में हालांकि जानकारी कम ही है कि वे कैसे दिखाई देते थे, कौन से धर्म के थे या जो नाटक उनके नाम पर लिखे गए हैं, वो उन्होंने लिखे भी हैं या नहीं।
बहरहाल इन विवादों से परे हैमलेट, किंग लेयर, ओथेलो, मैकबेथ जैसे नाटक अंग्रेजी साहित्य के नायाब नाटक हैं, जो आज इतने साल बाद भी पसंद किए जाते हैं और उनका अलग अलग दृष्टिकोणों के साथ मंचन होता रहता है। 23 अप्रैल को 1616 में शेक्सपीयर का 52 साल की उम्र में निधन हो गया। - वह जिसने रूसी क्रांति का नेतृत्व किया, जिसके नाम पर एक विचारधारा कायम है, आज ही के दिन 1870 में हुआ था उसका जन्म। रूस के माक्र्सवादी विचारक व्लादिमीर लेनिन का जन्म 22 अप्रैल 1870 को सिमबिस्र्क में हुआ था। लेनिन माक्र्सवाद से प्रेरित थे और इसी के आधार पर उन्होंने रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की 1917 में उनके नेतृत्व में रूसी क्रांति ने सिर उठाया। इसके कारण 1922 में सोवियत संघ की स्थापना हुई।समाज और दर्शनशास्त्र को लेकर लेनिन के माक्र्सवादी विचारों ने रूस ही नहीं दुनिया भर को प्रभावित किया। उनकी इस विचारधारा को लेनिनवाद के नाम से जाना जाता है। लंबी बीमारी के बाद 21 जनवरी 1924 को दिल का दौरा पडऩे से लेनिन की मौत हो गई। उनकी मृत्यु पर उनके सम्मान में रूस के पश्चिमी तटवर्ती इलाके सेंट पीटर्सबर्ग का नाम बदल कर लेनिनग्राद कर दिया गया, हालांकि रूस में कई लोग शहर के कम्युनिस्ट नाम से सहमत नहीं थे। इसलिए 1991 में इसे दोबारा बदल कर सेंट पीटर्सबर्ग कर दिया गया।---
- इतिहास के पन्नों को पलटें तो पता चलता है कि आज ही के दिन अमेरिका में विकसित पहले फिल्म प्रोजेक्टर का प्रदर्शन किया गया था। यह साल था 1895।वुडविल लैथम और उनके बेटे ओटवे और ग्रे ने अमेरिका में विकसित पैनटॉप्टिकॉन को पहली बार प्रदर्शित किया था। हालांकि अमेरिका में थॉमस एडिसन के काइनेटोस्कोप के इस्तेमाल से चलचित्र का प्रदर्शन सालों से हो रहा था, लेकिन इसके जरिए एक साथ कई लोग फिल्म नहीं देख सकते थे। फिल्म को देखने के लिए बाइस्कोप जैसी चीज का इस्तेमाल होता था।लैथम भाइयों ने अपने पिता वुडविल और एडिसन के प्रयोगशाला में सहायक रहे डब्ल्यू के एल डिक्सन की मदद लेकर ऐसी मशीन बनाई जो आदमकद तस्वीरों को पर्दे पर पेश कर सके ताकि ज्यादा से ज्यादा दर्शक एक साथ उसे देख सकें। वुडविल, डिक्सन और एडिसन के एक पूर्व कर्मचारी की मदद से लैथम लूप तैयार किया था। लूप की मदद से तस्वीर पर्दे पर आसानी से प्रदर्शित होती और फिल्म को खींचने की भी जरूरत नहीं पड़ती। हालांकि दूसरी ओर फ्रांस के लुमियेर बंधु भी मोशन पिक्चर को प्रदर्शित करने वाले प्रोजेक्टर पर काम कर रहे थे। उसी साल उन्होंने पेरिस में आयोजित एक औद्योगिक सम्मेलन में पहली बार सार्वजनिक रूप से एक फिल्म दिखाई। लुमियेर बंधु में से एक, लुई लुमियेर अपने आसपास की चीजों के वीडियो उतारते थे। यह वीडियो आसपास के जीवन को सच्चे रूप में पेश करता था। इसी तरह उन्होंने लुमियेर फैक्ट्री से बाहर निकलते कामगारों का भी एक वीडियो रिकार्ड किया, जिसे पहली स्क्रीनिंग में दिखाया गया था। फिल्म दिखाने की इस तकनीक को लुमियेर भाइयों ने तुरंत अपने नाम पर पेटेंट करा लिया।-----
- 20 अप्रैल की तारीख कई ऐतिहासिक घटनाओं के चलते इतिहास में दर्ज है। उसमें से एक है एडोल्फ हिटलर का जन्मदिन। दुनिया को आतंकित करने वाले हिटलर का जन्म 20 अप्रैल, 1889 को हुआ था। उसके 50वें जन्मदिन को 1939 में जर्मनी के राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया गया था।हिटलर राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन कामगार पाटी के नेता थे। इस पार्टी को प्राय: नाजी पार्टी के नाम से जाना जाता है। सन् 1933 से सन् 1945 तक वह जर्मनी के शासक रहे। हिटलर को द्वितीय विश्वयुद्ध के लिये सर्वाधिक जिम्मेदार माना जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध तब हुआ, जब उनके आदेश पर नात्सी सेना ने पोलैंड पर आक्रमण किया। फ्रांस और ब्रिटेन ने पोलैंड को सुरक्षा देने का वादा किया था और वादे के अनुसार उन दोनों ने नाज़ी जर्मनी के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी।हिटलर का उत्थान प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात जहां एक ओर तानाशाही प्रवृति का उदय हुआ। वहीं दूसरी और जर्मनी में हिटलर के नेतृत्व में नाजी दल की स्थापना हुई। जर्मनी के इतिहास में हिटलर का वही स्थान है जो फ्रांस में नेपोलियन बोनाबार्ट का, इटली में मुसोलनी का और तुर्की में मुस्तफा कमालपाशा का। हिटलर के पदार्पण के फलस्वरुप जर्मनी का कार्यकलाप हो सका। उन्होंने असाधारण योग्यता, विलक्षण प्रतिभा और राजनीतिक कटुता के कारण जर्मनी गणतंत्र पर अपना अधिपत्य कायम कर लिया । जर्मनी में हिटलर का अभ्युदय और शक्ति की प्राप्ति एकाएक नहीं हुई। उनकी शक्ति का विकास धीरे-धीरे हुआ। आर्थिक कठिनाइयों के कारण उसकी शिक्षा अधूरी रह गई। वे वियेना में भवन निर्माण कला की शिक्षा लेना चाहते थे। लेकिन उसके भाग्य में तो जर्मनी का पुर्णनिर्माण लिखा था। प्रथम विश्व युद्ध से ही उनका भाग्योदय होने लगा। वे जर्मन सेना में भर्ती हो गए। उन्हें बहादुरी के लिए आयरन क्रास की उपाधि मिली। युद्ध समाप्ति के पश्चात् उन्होंने सक्रिय राजनीति में रुचि लेना शुरू किया।
- स्लोवाकिया यूरोप महाद्वीप में स्थित एक ऐसा देश है, जो चारों तरफ से जमीन से घिरा हुआ है यानी इसकी किसी सीमा पर समुद्र या महासागर नहीं है। उत्तर में पोलैंड, दक्षिण में हंगरी, पूर्व में यूक्रेन और पश्चिम में चेक गणराज्य और ऑस्ट्रिया से घिरा यह देश 1993 में चेकोस्लोवाकिया से अलग होने के बाद बना था। इस देश से जुड़ी ऐसी कई रोचक बातें हैं, जिसके बारे में बहुत कम ही लोग जानते होंगे, जैसे कि ....1. यूरोपीय महाद्वीप की दूसरी सबसे लंबी नदी डेन्यूब स्लोवाकिया के बीच से होकर गुजरती है। 2850 किलोमीटर लंबी यह नदी 10 देशों में बहती है। नील नदी के अलावा दुनिया में शायद ही ऐसी कोई नदी हो, जो इतने सारे देशों से होकर बहती हो।2. वैसे आमतौर पर कोई भी देश अपनी राजधानी देश के बीच में रखना चाहता है, क्योंकि यह सुरक्षा की दृष्टि से अच्छा होता है, लेकिन स्लोवाकिया की राजधानी ब्रातिस्लावा दुनिया की एकमात्र ऐसी राजधानी है, जो दो देशों की सीमाओं से सटी हुई है। ब्रातिस्लावा, ऑस्ट्रिया और हंगरी की सीमा को छूती है।3. स्लोवाकिया एक संसदीय गणतंत्र है, जिसकी राष्ट्रीय परिषद में 150 सदस्य होते हैं। इन सदस्यों को हर चार साल में आम चुनाव द्वारा चुना जाता है। आपको जानकर हैरानी होगी कि साल 2002 तक इस देश में सांसद राष्ट्रपति का चुनाव किया करते थे, लेकिन बाद में यहां के संविधान में संशोधन कर दिया गया। अब यहां राष्ट्रपति आम चुनावों द्वारा चुने जाते हैं।