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- स्कॉटहोम। अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के पूर्व प्रमुख बेन बेरनैंकी, डगलस डायमंड और फिलिप डिबविग को इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा की गई है।ॉयल स्वीडिश एकेडमी फॉर साइंस ने सोमवार को नोबेल विजेताओं के नाम की घोषणा करते हुए कहा कि "बैंकों और आर्थिक संकटों" पर किए उनके रिसर्च के लिए यह पुरस्कार दिया जायेगा।अर्थशास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार समिति के सदस्य जॉन हैसलर ने कहा, "बेन बेरनैंकी ने 1983 में सांख्यिकीय विश्लेषणों और ऐतिहासिक स्रोतों के साथ अपने पेपर में दिखाया कि बैंक चलाने के तौर तरीकों ने बैंक को नाकाम कर दिया और यही वो तरीका था जिसने एक मामूली मंदी को 30 के दशक में दुनिया की सबसे नाटकीय मंदी में बदल दिया जिसके बाद हमने आधुनिक इतिहास का सबसे बड़ा संकट देखा। "समिति ने कहा कि तीनों पुरस्कार विजेताओं ने विशेष रूप से वित्तीय संकट के दौरान अर्थव्यवस्था में बैंकों की भूमिका के बारे में हमारी समझ में काफी सुधार किया है और उनके रिसर्च में एक महत्वपूर्ण खोज यह निकली है कि बैंक को पतन से बचना क्यों महत्वपूर्ण है।
- अंग-विच्छेद यानी शरीर के हाथ-पांव में किसी हिस्से के बेकार या खराब हो जाने पर उसे काट कर अलग कर देना ताकि बाकी शरीर को नुकसान से बचाया जा सके। इससे पहले अंग विच्छेद का प्रमाण फ्रांस में 7,000 साल पुराने कंकाल में मिला था।विशेषज्ञ मानते आये हैं कि एक जगह टिक कर खेतीबाड़ी करने वाले समुदायों में इस तरह के ऑपरेशन किये जाते थे। हालांकि नई खोज से यह पता चलता है कि आज के इंडोनेशिया में ईस्ट कालीमंतान प्रांत में रहने वाले पाषाण युग के घुमक्कड़ शिकारियों के पास शरीर रचना और चोट की उन्नत चिकित्सा की जानकारी थी। ऑस्ट्रेलिया की ग्रिफिथ यूनिवर्सिटी के रिसर्च फेलो टिम मैलोनी इस रिसर्च का नेतृत्व कर रहे थे। उनका कहना है, "इस चिकित्सा के विकास के बारे में जो हमारी समझ है वह बिल्कुल बदल गई है। "यह कंकाल 2020 में लियांग टेबो गुफा में मिला था जो अपनी 40 हजार साल पुराने भित्ती चित्रों के लिये जाना जाता है। चमगादड़ों और कई तरह के परिंदों के साथ ही कभी-कभी बिच्छुओं की बाधाओं से पार जा कर वैज्ञानिकों ने बड़ी मेहनत से खुदाई कर इस कंकाल को निकाला है जो गाद के नीचे बिल्कुल सुरक्षित बचा हुआ था। इस कंकाल का एक टखना और पैर नहीं है। बाकी बचे पैर के हड्डी का आकार थोड़ा अलग है जो दिखाता है कि साफ तौर पर जान बूझ कर एक हिस्सा काट कर निकाला गया है जिसके बाद उसमें थोड़ा विकास हुआ है।मैलोनी ने प्रेस कांफ्रेंस में बताया, "यह बिल्कुल साफ और तिरछा है. वास्तव में आप चीरे की आकृति और सतह को हड्डी में देख सकते हैं। " अगर यह किसी जानवर के हमले, दबने कर टूटने या फिर गिरने की वजह से होता तो हड्डियां टूटी होतीं और साथ ही जिस तरह कंकाल के पैर में उसके बाद विकास हुआ है वह वैसा नहीं होता। दांत और वहां जमी गाद के आधार पर वैज्ञानिकों ने कंकाल की उम्र 31 हजार साल लगाई है और मरने वाले इंसान की उम्र 20 साल रही होगी।अंग-विच्छेद की तकलीफ के बावजूद ऐसा लगता है कि ऑपरेशन के बाद भी यह इंसान छह से नौ साल तक जिंदा रहा था. यह नतीजा उसके पैर की हड्डियों में हुए विकास को देख कर निकाला गया है। साथ ही ऑपरेशन के बाद उसके शरीर में संक्रमण के कोई निशान नहीं मिले हैं.। रिसर्च टीम ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि इससे पता चलता है, "अंगों की संरचना, मांसपेशियों और नाड़ी तंत्र की विस्तृत जानकारी थी। ऑपरेशन के बाद नर्सिंग और देखभाल जरूर हुई होगी। घाव को नियमित रूप से साफ किया गया, पट्टियां बदली गईं और विसंक्रमित भी किया गया। "इंसान कई सदियों से एक दूसरे का ऑपरेशन कर रहा है। दांत निकालना और हड्डियों में छेद इसमें शामिल है। हालांकि अंग-विच्छेद काफी जटिल है और पश्चिमी देशों में यह महज 100 साल पहले संभव हुआ। इससे पहले सबसे पुराने अंग विच्छेद का प्रमाण 7000 साल पुराने एक कंकाल में मिला था। इस कंकाल की खोज फ्रांस में 2010 में हुई थी। इससे इस बात की पुष्टि हुई कि मानव ने रोज रोज के शिकार और भोजन की खोज से मुक्त हो कर खेती बाड़ी वाली बस्तियां बसाने के बाद उन्नत सर्जरी का विकास किया। हालांकि बोर्नेयो की खोज यह दिखाती है कि घुमक्कड़ शिकारी भी सर्जरी की चुनौतियों के पार निकल चुके थे और यह काम कम से कम 24 हजार साल और पहले हो गया।
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स्कॉटलैंड। इस वर्ष रसायन विज्ञान का नोबेल पुरस्कार कैरोलिन बर्टोज़ी, मॉर्टन मेल्डल और बैरी शार्पलेस को संयुक्त रूप से दिया जाएगा। इन्हें यह पुरस्कार अणुओं के टूटने (स्निप्पिंग ऑफ मॉलिक्यूल्स टुगैदर ) पर किए गए काम के लिए दिया गया है। इस प्रक्रिया को क्लिक रसायन विज्ञान के रूप में जाना जाता है। "क्लिक" रसायन विज्ञान जीवित कोशिकाओं की तरह अणुओं को एक साथ जोड़ने के बारे में है। उनके काम का उपयोग कोशिकाओं का पता लगाने और जैविक प्रक्रियाओं की निगरानी करने के लिए किया जाता है। इसका कैंसर उपचार की दवाओं में उपयोग किया जा सकता है।
अमरीका की कैरोलिन बर्टोज़ी तथा बैरी शार्पलेस, और डेनमार्क के वैज्ञानिक मोर्टन मेल्डल को क्लिक केमिस्ट्री और बायोऑर्थोगोनल प्रतिक्रियाओं पर उनके काम के लिए ख्याति मिली थी। इनका उपयोग कैंसर की दवाएं बनाने, डीएनए मैप करने और विशिष्ट उद्देश्य के अनुरूप सामग्री बनाने के लिए किया जाता है।2001 में नोबेल पुरस्कार जीतने वाले अस्सी वर्षीय शार्पलेस अब दो बार पुरस्कार प्राप्त करने वाले पांचवें व्यक्ति बन गए हैं। अड़सठ वर्षीय मेल्डल डेनमार्क के कोपेनहेगन विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। वे इस समय स्क्रिप्स रिसर्च, कैलिफोर्निया के साथ जुड़े हुए हैं। पचपन वर्षीय बर्टोज़ी कैलिफोर्निया के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार की घोषणा 6 अक्टूबर को की जाएगी। नोबेल शांति पुरस्कार शुक्रवार को घोषित किया जाएगा। चिकित्सा और भौतिक विज्ञान के नोबेल पुरस्कार पहले ही घोषित किए जा चुके हैं। - स्टॉकहोम । विलुप्त हो चुके मानव का जीनोम खोजने की तकनीक विकिसत करने वाले स्वीडिश वैज्ञानिक स्वांते पेबो को मेडिसिन के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. पेबो समझाते हैं कि लाखों साल पुरानी हड्डी से क्रमिक विकास समझाते हैं. फियिजोलॉजी और मेडिसिन के लिए नोबेल पुरस्कार देने वाले स्वीडन के कारोलिंस्का इंस्टीट्यूट ने जैसे ही स्वांते पेबो का नाम लिया, वैसे ही एक बड़े वैज्ञानिक समुदाय में, "ये तो होना ही था" जैसा भाव उभरने लगा. नोबेल पुरस्कार देने वाले वाली कमेटी ने अपने बयान में कहा, "विलुप्त हो चुके होमिनिन्स (आदिमानवों) और आज जिंदा सभी इंसानों के बीच अनुवांशिक अंतर बताने वाली उनकी खोजें, उस बुनियाद जैसी है जो बताती हैं कि हमें अनोखा इंसान बनाने वाली चीजें क्या हैं."पुरस्कार समिति की जूरी ने कहा, "आदिकाल से आज के इंसानों तक जीनों का प्रवाह, आज भी शरीर विज्ञान के लिहाज से महत्वपूर्ण है, मसलन हमारा इम्यून सिस्टम कैसे इंफेक्शनों के प्रति रिएक्ट करता है."2022 का नोबेल प्राइज इन फिजियोलॉजी ऑर मेडिसिन जीतने वाले डॉ. पेबो को एक करोड़ स्वीडिश क्रोनर (करीब 90.15 लाख डॉलर) की पुरस्कार राशि और मेडल 10 दिसंबर 2022 को दिया जाएगा. पुरस्कार स्वीडन के राजा कार्ल 16 गुस्ताव देंगे. 10 दिसंबर को डायनामाइट का आविष्कार करने वाले स्वीडिश वैज्ञानिक अल्फ्रेड नोबल की पुण्यतिथि होती है. 1896 में दुनिया को अलविदा कहने वाले अल्फ्रेड नोबेल की आखिरी इच्छा थी कि उनकी संपत्ति से अच्छी वैज्ञानिक खोज करने वाले वैज्ञानिकों के लिए एक पुरस्कार शुरू किया जाए. नोबेल पुरस्कार इसी कारण शुरू हुए.67 साल के प्रोफेसर डॉक्टर स्वांते पेबो जर्मनी के प्रतिष्ठित माक्स प्लांक इस्टीट्यूट फॉर इवोल्यूशनरी एंथ्रोपॉलजी के डाइरेक्टर हैं. इंसान की निएंडरथाल नाम की विलुप्त हो चुकी प्रजाति के जीनोम की खोज के दौरान उन्होंने एक ऐसी तकनीक विकसित कर ली जिससे किसी भी जीवाश्म के जीनोम तक पहुंचा जा सकता है. जीनोम यानि किसी कोशिका के भीतर जींस की जानकारी वाले सेट. जीनोम के भीतर डीएनए की शक्ल में उस जीव की पूरी जानकारी रहती है. जीनोम कही जाने वाली ये इंफॉर्मेशन डीएनए मॉलिक्यूल्स से बनी होती है. जब कभी कोशिका विभाजित या कॉपी होती है तो ये सूचना भी साथ में कॉपी होती है.कभी कभी नई कोशिकाएं बनते समय जीनोम में स्टोर कुछ डीएनए मॉलिक्यूल की पोजिशन बदल जाती है. अरबों डीएनए मॉलिक्यूल में से कुछ की पोजिशन में आया ये बदलाव, पीढ़ी दर पीढ़ी बड़े अंतर पैदा करता जाता है. मसलन अगर दो इंसानों के जीनोम की तुलना की जाए तो 1200 से 1400 मॉलिक्यूल कैरेक्टर के बाद कोई अंतर निकलेगा. इसी अंतर को और गहराई से देखा जाए तो लाखों अंतर सामने आने लगते हैं. इन अंतरों का इतिहास खंगालने पर आज के इंसान के जीन, लाखों साल पुराने आदिमानवों से जुड़ने लगते हैं. ऐसे ही अंतरों ने लाखों करोड़ों साल पहले चिपैंजी की कुछ प्रजातियों को इतना बदल दिया कि इंसान जैसी प्रजातियां बन गईं. इनमें विलुप्त हो चुके निएंडरथाल भी हैं और आज के इंसान होमो सेपियंस भी.डॉ. पेबो ने ऐसी तकनीक विकसित की जिससे जीवाश्म के रूप में मिलने वाली छोटी सी हड्डियों से भी जीनोम निकाला जा सकता है. डॉ. पेबो की 40 साल से ज्यादा लंबी मेहनत ने ऐसी तकनीक खोजी, जिससे लाखों साल पुराने जीनोम का सटीक विश्लेषण किया जा सकता है. इस तकनीक के जरिए डीएनए से, बैक्टीरिया, फंगस, धूल, मौसमी बदलावों और बाहरी रासायनिक परिवर्तन जैसे फैक्टरों को साफ किया जाता है. बीते 20 साल में यह तकनीक इतनी आगे जा चुकी है कि अब एक साथ लाखों डीएनए का विश्लेषण किया जा सकता है.इसी तकनीक की बदौलत पता चल सका है कि दुनिया में आज जितने भी इंसान हैं, वो एक लाख से दो लाख साल पहले एक परिवार से निकलने के बाद कैसे दूसरी प्रजातियों से घुलते मिलते हुए बदलते गए. इस थ्योरी के आधार पर कहा जाता है कि हमारे पुरातन पुरखे जब अफ्रीकी महाद्वीप से बाहर निकले तो वो मध्यपूर्व में रहने वाली निएंडरथाल प्रजाति से घुले मिले. यूरोप और एशिया के इंसानों के जीनोम में निएंडरथाल प्रजाति का भी अंश है. चीन, साइबेरिया और पापुआ न्यू गिनी जैसे इलाकों से निएंडरथाल के सबूत मिल चुके हैं.डॉ. पेबो को 2020 में द जापान प्राइज, 2018 में क्रोएबर यूरोपियन साइंस प्राइज, 2016 में ब्रेकथ्रो प्राइज इन लाइफ साइंस, 2003 में ग्रुबर जेनेटिक्स प्राइज और 1992 में लाइबनित्स प्राइज से भी सम्मानित किया जा चुका है. 3 अक्टूबर 2022 को जब उन्हें मेडिसिन का नोबेल दिया गया तो कई वैज्ञानिकों को हैरानी नहीं हुई.
- स्टॉकहोम| महत्वपूर्ण उपयोग वाले क्वांटम सूचना विज्ञान पर कार्य करने के लिए तीन वैज्ञानिकों को संयुक्त रूप से इस वर्ष का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार देने की मंगलवार को घोषणा की गई। रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज ने ‘क्वांटम सूचना विज्ञान’ के लिए एलै एस्पै, जॉन एफ क्लाउसर और एंतन साइलिंगर को यह पुरस्कार देने की घोषणा की। क्वांंटम साइंस ही उस इनक्रिप्शन के लिए जिम्मेदार है, जो व्हाट्सएप और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर आपके मैसेज को सीक्रेट रखती है।महत्वपूर्ण उपयोग में आने वाले क्वांटम सूचना विज्ञान का एक उदाहरण ‘इनक्रिप्शन’ भी है। उल्लेखनीय है कि ‘इनक्रिप्शन’ एक ऐसी पद्धति है, जिसके जरिए सूचना को गुप्त कोड में परिवर्तित किया जाता है जो सूचना के सही अर्थ को छिपा देता है। नोबेल कमेटी की एक सदस्य इवा ओलसन ने कहा, ‘‘क्वांटम सूचना विज्ञान एक जीवंत और तेजी से विकसित हो रहा क्षेत्र है।’’ इनक्रिप्शन वही टेक्नोलॉजी है जो आपके व्हाट्सएप मैसेज को सीक्रेट रखती है। यानी आपके मैसेज कोई तीसरा व्यक्ति नहीं देख पाएगा।उन्होंने कहा, ‘‘सूचना के सुरक्षित स्थानांतरण, क्वांटम कंप्यूटिंग और सेंसिंग प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में इसके व्यापक उपयोग की संभावना है।’’ इवा ने कहा, ‘‘इसकी जड़ें क्वांटम मेकैनिक्स तक जाती हैं।’’ उन्होंने कहा, ‘‘इसके अनुमानों ने एक दूसरी दुनिया के द्वार खोल दिए हैं और माप की हमारी व्याख्या की पूरी बुनियाद को भी इसने हिला कर रख दिया है।’’क्या है पुरस्कार की राशिसोमवार को, चिकित्सा के क्षेत्र में पुरस्कार के ऐलान के साथ इस वर्ष के लिए नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की शुरूआत हुई। बुधवार को रसायन विज्ञान और बृहस्पतिवार को साहित्य के क्षेत्र में इन पुरस्कारों की घोषणा की जाएगी। इस वर्ष (2022) के नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा शुक्रवार को और अर्थशास्त्र के क्षेत्र में पुरस्कार की घोषणा 10 अक्टूबर को होगी। पुरस्कार के रूप में विजेता को करीब एक करोड़ स्वीडिश क्रोनर (करीब 9,00,000 डॉलर) दिए जाएंगे।
- कभी भारत की शान रहे चीतों को अब फिर से इस देश में बसाने की तैयारी है। योजना के तहत नामीबिया से लाए गए आठ चीतों को आज मध्य प्रदेश के कूनो राष्ट्रीय उद्यान पहुंच गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद इसके लिए कूनो पहुंचे। 1947 में देश के आखिरी तीन चीतों का शिकार मध्य प्रदेश के कोरिया रियासत के महाराजा रामानुज प्रताप सिंह देव ने किया था। इसकी फोटो भी बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी में है। उस दिन के बाद से भारत में कभी भी चीते नहीं दिखे। अब 75 साल बाद फिर से भारत में चीतों को आबाद किया जा रहा है। आइये जानते हैं ऐसी क्या खासियत है चीतों में --चीते के बारे में ये तो हम सब जानते हैं कि यह दुनिया का सबसे तेज रफ्तार से दौडऩे वाले जानवर है। स्पीड के मामले में ये कुछ ही सेकेंड्स में 72 मील प्रति घंटा की रफ्तार हासिल कर लेते हैं लेकिन ये ज्यादा लंबा नहीं दौड़ सकते।-शेर और बाघ के मुकाबले चीते बहुत पतले होते हैं। इनके सिर भी काफी छोटे होते हैं। इसके अलावा इनकी कमर पतली होती है। इनके शरीर पर काले धब्बे होते हैं। चीतों के चेहरे पर काली धारियां होती हैं जो उनकी आंखों के भीतरी कोनों से नीचे मुंह के कोनों तक जाती हैं।- चीते आमतौर पर दिन के दौरान शिकार करते हैं जब शेर बहुत सक्रिय नहीं होते हैं। चीता बिग कैट फैमिली का अकेला ऐसा सदस्य है जो दहाड़ नहीं सकता।-चीता हर सेकेंड में चार छलांग लगाता है। चीते की अधिकतम रफ्तार 120 किमी प्रति घंटे की हो सकती है। सबसे तेज रफ्तार के दौरान चीता 23 फीट यानी करीब सात मीटर लंबी छलांग लगा सकता है।चीते की रिकॉर्ड रफ्तार अधिकतम एक मिनट के लिए रह सकती है। यह अपनी फुल स्पीड से सिर्फ 450 मीटर दूर तक ही दौड़ सकता है।चीता हर सेकेंड में चार छलांग लगाता है। चीते की अधिकतम रफ्तार 120 किमी प्रति घंटे की हो सकती है। सबसे तेज रफ्तार के दौरान चीता 23 फीट यानी करीब सात मीटर लंबी छलांग लगा सकता है।-चीते की रिकॉर्ड रफ्तार अधिकतम एक मिनट के लिए रह सकती है। यह अपनी फुल स्पीड से सिर्फ 450 मीटर दूर तक ही दौड़ सकता है।- 1973 में हावर्ड में हुई एक रिसर्च के मुताबिक आमतौर पर चीते के शरीर का तामपमान 38 डिग्री सेल्सियस होता है, लेकिन रफ्तार पकड़ते ही उसके शरीर का तापमान 40.5 डिग्री सेल्सियस हो जाता है। चीते का दिमाग इस गर्मी को नहीं झेल पाता और वो अचानक से दौडऩा बंद कर देता है।-तेज रफ्तार से दौडऩे के लिए चीते की मांसपेशियों को बहुत ज्यादा ऑक्सीजन की जरूरत होती है। इस ऑक्सीजन की सप्लाई को बरकरार रखने के लिए चीते के नथुनों के साथ श्वास नली भी मोटी होती है, ताकि वह कम बार सांस लेकर भी ज्यादा ऑक्सीजन शरीर में पहुंचा सके।चीते की आंख सीधी दिशा में होती है। इसकी वजह से वह कई मील दूर तक आसानी से देख सकता है। इससे चीते को अंदाजा हो जाता है कि उसका शिकार कितनी दूरी पर है। इसकी आंखों में इमेज स्टेबिलाइजेशन सिस्टम होता है। इसकी वजह से वह तेज रफ्तार में दौड़ते वक्त भी अपने शिकार पर फोकस बनाए रखता है।-चीते का दिल शेर के मुकाबले साढ़े तीन गुना बड़ा होता है। यही वजह है कि दौड़ते वक्त इसे भरपूर ऑक्सीजन मिलती है। यह तेजी से पूरे शरीर में ब्लड को पंप करता है और इसकी मांसपेशियों तक ऑक्सीजन पहुंचाता है।-चीता अपने शिकार का पीछा अक्सर 200-230 फीट यानी 60-70 मीटर के दायरे में ही करता है। एक मिनट तक ही वह अपने शिकार का पीछा करता है। अगर इस दौरान वो उसे नहीं मार पाता तो उसका पीछा करना छोड़ देता है। वो अपने पंजे का इस्तेमाल कर शिकार की पूंछ पकड़कर लटक जाता है। या तो पंजे के जरिए शिकार की हड्डिया तोड़ देता है।-अपने शिकार को पकडऩे के बाद चीता तकरीबन पांच मिनट तक उसकी गर्दन को काटता है ताकि वो मर जाए। हालांकि छोटे शिकार पहली बार में ही मर जाते हैं।
- चाय के बारे में 14 साल तक पांच लाख लोगों पर किए गए अध्ययन में कई दिलचस्प निष्कर्ष निकले हैं। चाय के स्वास्थ्यवर्धक गुणों के बारे में यह शोध कई बातें बताता है।हाल ही में हुए एक शोध में वैज्ञानिकों ने पाया है कि जो लोग चाय पीते हैं, उनकी चाय ना पीने वालों से थोड़ा सा ज्यादा जीने की संभावना होती है। चाय में ऐसे तत्व होते हैं तो जलन को रोकते हैं। चीन और जापान, जहां ग्रीन टी सबसे ज्यादा लोकप्रिय है, वहां पहले भी ऐसे अध्ययन हो चुके हैं जिनमें चाय के स्वास्थ्यवर्धकगुण सामने आते रहे हैं। अब युनाइटेड किंग्डम में सबसे ज्यादा लोकप्रिय काली चाय के बारे में एक अध्ययन हुआ है। अमेरिकी नेशनल कैंसर इंस्टिट्यूट के वैज्ञानिकों ने यह अध्ययन किया है जिसके बाद उन्होंने कुछ दिलचस्प निष्कर्ष पेश किए हैं। वैज्ञानिकों ने एक विशाल डेटाबेस में उपलब्ध आंकडों का विश्लेषण किया है। इस डेटामेस में युनाइटेड किंग्डम के पांच लाख से ज्यादा लोगों की चाय से जुड़ी आदतों के आंकड़े थे। ये आंकड़े इन लोगों से 14 साल तक बात करने के दौरान जुटाए गए थे।विश्लेषण के दौरान विशेषज्ञों ने स्वास्थ्य, सामाजिक-आर्थिक स्थित, धूम्रपान, शराब, खान-पान, आयु, नस्ल और लिंग के आधार पर निष्कर्षों में जरूरी फेरबदल भी किया। इस विशाल अध्ययन का निष्कर्ष यह निकला कि जो लोग ज्यादा चाय पीते हैं उनके जीने की संभावना चाय ना पीने वालों से थोड़ी सी ज्यादा होती है। यानी रोजाना दो या उससे ज्यादा कप चाय पीने वाले लोगों में मौत का खतरा दूसरे लोगों से 9-13 प्रतिशत कम होता है। वैज्ञानिकों ने भी यह स्पष्ट किया कि चाय का तापमान और उसमें दूध या चीनी मिलाने का नतीजों पर कोई असर नहीं पड़ा।यह अध्ययन अनैल्स ऑफ इंटरनल मेडिसन नामक पत्रिका में प्रकाशित हुए है। शोधकर्ता कहते हैं कि हृदय रोगों का चाय से संबंध कुछ स्पष्ट हुआ लेकिन कैंसर की मौतों का चाय से कोई रिश्ता स्थापित नहीं हो पाया। हालांकि ऐसा क्यों है, इस बारे में शोधकर्ता कोई ठोस जवाब नहीं खोज सके। मुख्य शोधकर्ता माकी इनोऊ-चोई के मुताबिक हो सकता है कैंसर से कम मौतों के कारण कोई ठोस संबंध ना मिला हो।खाने का विज्ञान समझने वाले कहते हैं कि लोगों की आदतों और स्वास्थ्य का अध्ययन कर निकाले गए निष्कर्ष किसी तरह का 'कारण और प्रभाव' साबित नहीं कर सकते। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी में 'फूड स्टडीज' पढ़ाने वालीं मैरियन नेस्ले कहती हैं, "ऑब्जर्वेशन-आधारित ऐसे अध्ययन हमेशा सवाल उठाते हैं कि क्या चाय पीने वालों में ऐसा कुछ अलग है जो उन्हें दूसरों से ज्दा सेहतमंद बनाता है। मुझे चाय पसंद है। यह एक शानदार पेय पदार्थ है लेकिन सावधानीपूर्वक इसकी व्याख्या करना ही समझदारी होगी। "चाय के बारे में कुछ मजेदार बातें-क्या आप जानते हैं कि चाय हिंदी का शब्द है लेकिन अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में भी खूब इस्तेमाल हो रहा है। अमेरिका और यूरोप के कॉफी हाउस और रेस्तरां चाय भी बेचते हैं जो 'टी' से अलग होती है। चाय को वहां मसाला चाय के रूप में बेचा जाता है और इसका बनाने का तरीका अलग-अलग हो सकता है। वहां यह पानी के बाद चाय दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा पिया जाने वाला द्रव्य है।-दुनिया में तीन हजार तरह की चाय उपलब्ध हैं। दंत कथाएं बताती हैं कि चाय की खोज एक चीनी राज शेन नंग ने 237 ईसा पूर्व की थी जब एक पौधे की कुछ पत्तियां उनके गर्म पानी के प्याले में गिर गईं। उन्होंने इस प्याले से पानी पिया और उन्हें बहुत अच्छा लगा। यह संभवतया चाय की पहली प्याली थी, हालांकि आजकल चीन में कॉफी का बोलबाला बढ़ रहा है।-जापान में चाय की संस्कृति काफी विस्तृत है। ग्रीन टी बनाना और पीना वहां एक तरह का समारोह होता है जिसे 'अ वे ऑफ टी' कहा जाता है। यह कई घंटे तक चलता है। ब्रिटेन में भी चाय बेहद लोकप्रिय है और वहां एक औसत व्यक्ति एक साल में एक हजार कप तक चाय पी जाता है। पूरी दुनिया में सालाना साढ़े तीन अरब से ज्यादा कप चाय पी जाती है।
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-मंत्री ने पहल के लिए एनआईओटी की सराहना की
चेन्नई। केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने खारे पानी से जलने वाली देश की पहली लालटेन की शुरुआत की है। पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) द्वारा जारी की गई एक विज्ञप्ति में कहा गया कि केंद्रीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने राष्ट्रीय समुद्र प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईओटी), चेन्नई के तटीय अनुसंधान पोत ‘सागर अन्वेषिका' के भ्रमण के दौरान ‘रोशनी' नाम की अपनी तरह की पहली लालटेन की शुरुआत की। मंत्री ने कहा कि खारे पानी से जलने वाली लालटेन से गरीब और वंचित लोगों विशेषकर भारत की 7,500 किलोमीटर लंबी तटीय रेखा से सटे इलाकों में रहने वाले मछुआरा समुदाय के लिए काफी मददगार होगी। सिंह ने कहा कि खारे पानी की लालटेन देश भर में एलईडी बल्ब के वितरण के लिए 2015 में शुरू की गई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उजाला योजना को भी बढ़ावा देगी। उन्होंने कहा कि इस तकनीक का उपयोग भीतरी इलाकों में भी किया जा सकता है, जहां समुद्र का पानी उपलब्ध नहीं है। मंत्री ने कहा कि इस लालटेन में किसी भी खारे पानी या सामान्य नमक के साथ मिश्रित सामान्य पानी का उपयोग किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि यह न केवल किफायती है, बल्कि इसका संचालन भी बहुत आसान है। विज्ञप्ति में कहा गया, "मंत्री ने ‘रोशनी लैंप' का आविष्कार करने वाली एनआईओटी टीम की सराहना की और इस बहुउद्देशीय लैंप के बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए प्रौद्योगिकी को उद्योग जगत को स्थानांतरित करने की सलाह दी, जो ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में तथा आपदाओं के समय बहुत मददगार हो सकती है।" बाद में, सिंह ने पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव डॉ. एम रविचंद्रन के साथ प्रयोगशालाओं का दौरा किया और पोत पर तिरंगा फहराया। विज्ञप्ति में कहा गया, " ‘हर घर तिरंगा' अभियान को 'हर जहाज तिरंगा' तक विस्तारित करते हुए मंत्री ने पोत पर भारतीय ध्वज फहराया। उन्होंने जहाज पर एनआईओटी के वरिष्ठ वैज्ञानिकों से भी मुलाकात की और प्रगति की समीक्षा की।
- नई दिल्ली। भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिकों के शोध से बड़ा खुलासा हुआ है। वैज्ञानिकों के अनुसार अलकनंदा नदी और भागीरथी नदियों में माइक्रो इनवर्टेब्रेट्स का कम पाया जाना इस बात का संकेत है कि यहां पानी की गुणवत्ता फिलहाल ठीक नहीं है। पानी को सेहतमंद बनाने वाले मित्र जीवाणु (माइक्रो इनवर्टेब्रेट्स) प्रदूषण के कारण तेजी से विलुप्त हो रहे हैं। इस बात का खुलासा भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिकों के शोध से हुआ है। वैज्ञानिकों की टीम विस्तृत रिपोर्ट तैयार कर रही है।ऑल वेदर रोड के साथ ही नदियों के किनारे बड़े पैमाने पर किए जा रहे विकास कार्यों का मलबा सीधे नदियों में डाला जा रहा है। नदियों के किनारे बसे शहरों के घरों से निकलने वाला गंदा पानी बगैर ट्रीटमेंट के नदियों में प्रवाहित किया जा रहा है। बैट्रियाफोस बैक्टीरिया की वजह से बनी रहती है गंगाजल की शुद्धतापूर्व में जलविज्ञानियों द्वारा किए गए शोध में यह बात सामने आई है कि गंगाजल में बैट्रियाफोस नामक बैक्टीरिया पाया जाता है जो गंगाजल के अंदर रासायनिक क्रियाओं से उत्पन्न होने वाले अवांछनीय पदार्थ को खाता रहता है।इससे गंगाजल की शुद्धता बनी रहती है। वैज्ञानिकों की माने तो गंगाजल में गंधक की बहुत अधिक मात्रा पाए जाने से भी इसकी शुद्धता बनी रहती है और गंगाजल लंबे समय तक खराब नहीं होता है। महज एक किमी के बहाव में खुद ही गंदगी साफ कर लेती है गंगा। वैज्ञानिक शोधों से यह बात भी सामने आई है कि देश की अन्य नदियां पंद्रह से लेकर बीस किलोमीटर के बहाव के बाद खुद को साफ कर पाती हैं और नदियों में पाई जाने वाली गंदगी नदियों की तलहटी में जमा हो जाता है। लेकिन, गंगा महज एक किलोमीटर के बहाव में खुद को साफ कर लेती है।मित्र जीवाणुओं की संख्या कहीं-कहीं 15 फीसदी से भी कम दोनों नदियों में मित्र जीवाणुओं का अध्ययन ईफेमेरोपटेरा, प्लेकोपटेरा, ट्राइकोपटेरा (ईपीटी) के मानकों पर किया गया। यदि किसी नदी के जल में ईपीटी इंडेक्स बीस फीसदी पाया जाता है तो इससे साबित होता है कि जल की गुणवत्ता ठीक है। यदि ईपीटी इंडेक्स तीस फीसदी से अधिक है तो इसका मतलब पानी की गुणवत्ता बहुत ही अच्छी है। लेकिन, दोनों नदियों में कई जगहों ईपीटी का इंडेक्स 15 फीसदी से भी कम पाया गया है जो चिंताजनक पहलू है।वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉक्टर वीपी उनियाल की देखरेख में डॉ. निखिल सिंह व अन्य ने दोनों नदियों में अलग-अलग स्थानों पर मित्र जीवाणु (माइक्रो इनवर्टिब्रेट्स) की जांच की। नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा (एनएमसीजी) के तहत वैज्ञानिकों ने अलकनंदा नदी में माणा (बदरीनाथ) से लेकर देवप्रयाग तक और भागीरथी नदी में गोमुख से लेकर देवप्रयाग तक अध्ययन किया।वैज्ञानिकों की माने तो गंगाजल में अन्य नदियों के जल की तुलना में वातावरण से ऑक्सीजन सोखने की क्षमता बहुत अधिक होती है। दूसरी नदियों की तुलना में गंगा में गंदगी को हजम करने की क्षमता 20 गुना अधिक पाई जाती है। गंगा की सहायक नदियां भागीरथी, अलकनंदा, महाकाली, करनाली, कोसी, गंडक, सरयू, यमुना, सोन नदी और महानंदा हैं।
- मेक्सिको के इस टोर्टा सैंडविच ने दो वर्ल्ड रिकॉर्ड बना लिए हैं। मेक्सिको सिटी में यह विशाल सैंडविच तैयार किया गया। सैंडविच तैयार करने का खास मौका था 17वां सालाना टोर्टा फेयर। इस दौरान 74 मीटर यानी 242.7 फुट लंबा यह सैंडविच बनाया गया । इस सैंडविच के नाम दूसरा वर्ल्ड रिकॉर्ड टाइम का दर्ज हुआ। इसे रिकॉर्ड दो मिनट नौ सेकेंड में तैयार कर दिया गया था। इसके लिए फेयर में हिस्सा लेने वाले सारे खानसामों ने मिलकर काम किया। टोर्टा सैंडविच सामान्य सैंडविच से अलग होता है। यह आकार में बड़ा होता है और अलग-अलग चीजों से बनाया जा सकता है जिससे इसे अलग-अलग स्वाद मिलते हैं। मेक्सिको की यह खास डिश मानी जाती है जिसे स्थानीय लोगों ने सालों में कई रूप दिए हैं। कोविड महामारी के दौरान मेक्सिको के रेस्त्रॉ ने काफी मुश्किल वक्त देखा। दर्जनों रेस्त्रॉ तो बंद ही हो गए। अब इस मेले में वे अपने व्यापार को दोबारा खड़ा करने के मकसद से ग्राहकों को आकर्षित कर रहे थे।
- विज्ञान की सबसे महान उपलब्धियों में से एक 8 मई 1980 को हासिल हुई थी, जिस दिन चेचक के वायरस का खात्मा हुआ था। उससे पहले, चेचक ने मानव इतिहास की एक अलग ही शक्ल बना दी थी. दुनिया भर में लाखों लोग मारे गए थे।अकेले 20वीं सदी में चेचक वायरस से कोई 30 करोड़ लोगों की जान गई थीे। वैज्ञानिकों और सार्वजनिक स्वास्थ्य का ख्याल रखने वालों की लंबी और कठिन कोशिशों के सैकड़ों साल बाद 1970 के दशक मे विश्वव्यापी टीकाकरण कार्यक्रम शुरू किए गये जिसने चेचक का अंत किया। एक सवाल सवाल यह भी है कि दुनिया का पहला टीका कैसे बनाया गया था? इन टीके को बड़ी मात्रा में बचाए रखना और मंकीपॉक्स जैसी बीमारियों में इस्तेमाल करना क्यों जरूरी है?काउपॉक्स- लोक कथाओं के सबकटीकों का वैज्ञानिक आधार वास्तव में लोककथाओं से आता है। 18वीं सदी में यह अफवाह थी कि इंग्लैंड में ग्वालिनों को अक्सर काउपॉक्स हो जाता है लेकिन चेचक उनसे दूर रहता है। काउपॉक्स यानी गोशीतला, चेचक जैसी ही बीमारी है लेकिन उससे हल्की है और मौत की आशंका भी कम रहती है । अब माना जाता है कि चेचक के वायरस जैसे ही एक वायरस से यह भी फैलती है। जब एडवर्ड जेनर नाम के एक डॉक्टर को इन कहानियों का पता चला तो उन्होंने टीकाकरण पर अपने काम के लिए काउपॉक्स पर प्रयोग करना शुरू किया। 1790 के दशक में जेनर ने एक नौ साल के बच्चे की त्वचा में काउपॉक्स के पस की एक खुराक को पहुंचाने में सुई का इस्तेमाल किया। आगे चलकर बच्चे को चेचक हुआ तो उसमें रोग प्रतिरोधक क्षमता मौजूद थी।संक्रमण से बचाव के खिलाफ पस का इस्तेमाल करने वाले जेनर पहले व्यक्ति नहीं थे। तुर्की, चीन, अफ्रीका और भारत में 10वी सदी के दौरान ही ऐसी विधियां अलग अलग ढंग से ईजाद की जा चुकी थीं। चीन के डॉक्टर नाक तक सूखी हुई चेचक सामग्री फूंक मार कर उड़ाते थे, तुर्की और अफ्रीकी डॉक्टर, जेनर की तरह त्वचा के भीतर पस को पहुंचाते थे। ये तरीके बेशक जोखिम भरे थे , लेकिन लोगों ने चेचक से बचाव के बदले, हल्की बीमारी और मौत की कम आशंका को स्वीकार किया। अपने स्रोत के बावजूद, जेनर के शोध के बाद ही वैज्ञानिक और चिकित्सा जगत ने चेचक को रोकने में पस की संभावित भूमिका पर गौर किया। जेनर के कार्य ने चेचक से बचाव का एक प्रमाणित और कम जोखिम भरा तरीका विकसित किया जो बीमारी के इलाज में एक मील का पत्थर बना।टीकाकरण का विस्तार19वीं सदी के मध्य और आखिरी दिनों में टीकाकरण की मांग पूरी दुनिया में फैल गई। इंग्लैंड, जर्मनी और अमेरिका जैसे देशों में तमाम जनता के लिए टीकाकरण मुफ्त था और बाद में इसे अनिवार्य कर दिया गया।चेचक का आधुनिक टीका 1950 के दशक में आया था। ज्यादा विकसित वैज्ञानिक तरीकों का मतलब था कि उसे अलग करने और फ्रीज कर सुखाने से लंबे समय तक संभाल कर रखा जा सकता था और दुनिया भर में उसका एक समान वितरण किया जा सकता था। चेचक के नये टीके में दरअसल चेचक का वायरस नहीं बल्कि उसके जैसा लेकिन उसके कम नुकसानदेह पॉक्सवायरस, वैक्सीनिया था। काउपॉक्स के टीकों की तरह वैक्सीनिया से त्वचा में एक छोटा सा दाना उभर आता है जहां वायरस अपनी प्रतिकृति बनाता है। शरीर की रक्षा प्रणाली फिर उसे पहचान कर नष्ट करना सीख जाती है। चेचक से लडऩे के इस असरदार, सुरक्षित तरीके की मदद से विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 1950 के दशक में अपना पहला चेचक उन्मूलन अभियान शुरू किया था।
- नई दिल्ली। यूरोपीय आयोग, अमेरिका और कनाडा ने मंकीपॉक्स के खिलाफ वैक्सीन को मंजूरी दे दी है। भारत समेत 72 देशों में करीब 16 हजार मामले आने के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मंकीपॉक्स को ग्लोबल हेल्थ इमरजेंसी घोषित किया है।डेनमार्क की बायोटेक्नोलॉजी कंपनी बवेरियन नॉर्डिक के मुताबिक यूरोपीय आयोग ने उसकी वैक्सीन इमवैनेक्स को मंकीपॉक्स के मामलों में इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी है। बवेरियन नॉर्डिक ने अपने बयान में कहा, "यूरोपीय आयोग ने कंपनी की स्मॉलपॉक्स वैक्सीन, इमवैनेक्स को मंकीपॉक्स की रोकथाम के लिए मंजूरी दे दी है। " मंजूरी के बाद यह वैक्सीन, यूरोपीय संघ के सभी देशों के साथ साथ आइसलैंड, लिष्टेनश्टाइन और नॉर्वे में भी मान्य होगी। यूरोपीय संघ के अलावा अमेरिका और कनाडा ने भी मंकीपॉक्स की रोकथाम के लिए इमवैनेक्स को मंजूरी दी है।मूल रूप से स्मॉलपॉक्स बीमारी की रोकथाम करने वाली इमवैनेक्स को यूरोपीय संघ में पहली बार 2013 में मंजूरी मिली थी। इस बीच दुनिया भर में बढ़ते मंकीपॉक्स के मामलों के दौरान इस वैक्सीन को मंकीपॉक्स के खिलाफ भी कारगर पाया गया। इसके बाद ही मंकीपॉक्स के ट्रीटमेंट के तौर पर इमवैनेक्स को मंजरी दी गई। स्मॉलपॉक्स और मंकीपॉक्स के वायरस में काफी समानता है, इसी वजह से इमवैनेक्स असरदार साबित हो रही है।दुनिया भर में इस वक्त मंकीपॉक्स के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं. शनिवार को 72 देशों में मंकीपॉक्स के करीब 16,000 मामले सामने आए। इसके बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने मंकीपॉक्स को ग्लोबल हेल्थ इमरजेंसी की श्रेणी में डाल दिया।मंकीपॉक्स वायरस की चपेट में आने के बाद इंसान को बुखार, सिरदर्द, मांसपेशियों और कमर में दर्द होने लगता है। ये लक्षण करीब पांच दिन तक रहते हैं. इसके बाद चेहरे, हथेली और पैर के तलवों में खरोंच के निशान से उभरने लगते हैं. फिर खरोंच जैसे ये निशान फुंसी या धब्बों में बदलते लगते हैं. जिस जगह ऐसे निशान उभरते हैं, वहां पर ऊतक टूट या बुरी तरह संक्रमित हो जाते हैं। आखिर में धब्बे या फुंसियां बड़े घाव में बदलने लगते हैं।मई 2022 में पश्चिमी और मध्य अफ्रीका के कुछ देशों में मंकीपॉक्स के मामले सामने आए। विषाणु से फैलने वाली यह बीमारी अब यूरोप, अमेरिका और एशिया तक फैल चुकी है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक मंकीपॉक्स जानवरों से इंसान में और इंसान से इंसान में फैलता है। मंकीपॉक्स से पीडि़त इंसान की त्वचा के संपर्क में आने पर यह बीमारी फैलती है। यह संपर्क छूकर, पीडि़त द्वारा इस्तेमाल किए गए कपड़े, चादर, तकिए या बर्तनों के जरिए भी फैल सकती है। संक्रमित इंसान के संपर्क में आने के तीन हफ्ते बाद तक इस बीमारी के लिए लक्षण उभरने शुरू हो सकते हैं। भारत में मंकीपॉक्स का पहला मामला 14 जुलाई को केरल में सामने आया। इस बीच दिल्ली में भी एक संदिग्ध केस सामने आया है।मंकीपॉक्स वायरस का पता सबसे पहले 1958 में चला। वैज्ञानिकों को रिसर्च के लिए रखे गए बंदरों के एक झुंड में यह वायरस मिला। तब से इसका नाम मंकीपॉक्स पड़ा। इंसान में मंकीपॉक्स के संक्रमण का पहला मामला 1970 में दर्ज किया गया।
- कोरोना से बचाने के लिए पूरी दुनिया के वैज्ञानिक जल्दी-से-जल्दी टीका विकसित करने में जुटे थे। टीकों की वजह से कई बीमारियों पर नियंत्रण संभव हो सका, लेकिन क्या आप जानते हैं कि दुनिया का पहला टीका कब और कैसे तैयार हुआ था?माना जाता है कि 1975 में बांग्लादेश की तीन साल की रहीमा बानो कुदरती तरीके से हुए वैरिओला वायरस संक्रमण का आखिरी केस थी। दुनिया में स्मॉलपॉक्स से हुई आखिरी ज्ञात मौत 1978 में हुई। मरने वाली मरीज का नाम जेनेट पार्कर था। वो इंग्लैंड की बर्मिंघम यूनिवर्सिटी मेडिकल स्कूल में मेडिकल फटॉग्रफर थीं।हिंदी में इसे चेचक कहते हैं। यह अब सामान्य सी बीमारी है, लेकिन कुछ सदियों पहले यह भीषण महामारी हुआ करती थी। औसतन इससे संक्रमित लोगों में 10 में से तीन मर जाते थे। स्मॉलपॉक्स की शुरुआत कब हुई, इसकी ठोस जानकारी नहीं है। अनुमान है कि 10 हजार ईसापूर्व के आसपास उत्तरपूर्वी अफ्रीका में इसकी शुरुआत हुई. माना जाता है कि शायद वहीं से प्राचीन मिस्र के व्यापारियों के मार्फत ये बीमारी भारत पहुंची और वहां फैली। मिस्र की कुछ पुरानी ममियों के चेहरे पर भी चेचक जैसे निशान मिलते हैं। 1122 ईसा पूर्व के कुछ चीनी साहित्यों और प्राचीन संस्कृत स्रोतों में भी इस बीमारी का जिक्र मिलता है। 5वीं से 7वीं सदी के बीच ये बीमारी यूरोप पहुंची।स्मॉलपॉक्स बेहद जानलेवा बीमारी थी। 18वीं सदी की शुरुआत में अकेले यूरोप में इसके कारण लगभग चार लाख सालाना मौतें होती थीं। 18वीं सदी आते-आते इंग्लैंड के ग्रामीण हिस्सों में लोगों ने गौर करना शुरू किया कि कुछ खास तरह के लोग स्मॉलपॉक्स के आगे ज्यादा सुरक्षित होते हैं। मसलन, ग्वाले और गाय पालने वाले लोग। हालांकि उन्हें काउपॉक्स नाम की एक बीमारी होती थी, जो स्मॉलपॉक्स जितनी गंभीर नहीं थी। इस बीमारी के कारण जैसे उनके शरीर में स्मॉलपॉक्स के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती थी।ऐसे में 1774 में जब इंग्लैंड में चेचक महामारी फैली, तो बेंजामिन जेस्टी नाम के एक किसान ने किसी भी कीमत पर अपने परिवार को बचाने की ठानी। इसके लिए उन्होंने एक अनूठा प्रयोग किया। उन्होंने काउपॉक्स से संक्रमित एक गाय के थन के ऊपर से कुछ पस निकाला और एक छोटे चाकू की मदद से अपनी पत्नी और दो बेटों के हाथ पर हल्का चीरा लगाकर उसे वहां डाल दिया। उन तीनों को स्मॉलपॉक्स नहीं हुआ।उन्हीं दिनों बर्कले में एक डॉक्टर हुआ करते थे, एडवर्ड जेनर। उन्होंने किसानों और ग्वालों से काउपॉक्स से जुड़ी रोगप्रतिरोधक क्षमता पर जानकारियां हासिल की। जेनर को "वैरिओलेशन" के बारे में भी पता था। ये स्मॉलपॉक्स से निपटने के शुरुआती तरीकों में से एक था। "वैरिओला" वायरस के नाम पर इस प्रक्रिया को अपना नाम मिला। इसी वायरस के कारण स्मॉलपॉक्स होता है। जेनर को लगा कि काउपॉक्स के एक्सपोजर को स्मॉलपॉक्स से सुरक्षा के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। अपनी इस थिअरी को जांचने के लिए 1796 में उन्होंने एक प्रयोग किया। उन्होंने काउपॉक्स के एक मरीज के फोड़े से पस लिया। उसे अपने माली के आठ साल के बच्चे जेम्स की त्वचा में डाला। जेम्स कुछ दिन थोड़ा बीमार रहा। जब वो ठीक हो गया, तो जेनर ने उसकी त्वचा में स्मॉलपॉक्स का पस डाला। जेनर कई बार जेम्स को वैरिओला वायरस के संपर्क में लाए, लेकिन उसे स्मॉलपॉक्स नहीं हुआ। इस सफल प्रयोग ने वैक्सीन और टीकाकरण की राह बनाई।
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आपने कई बार ट्रेन से यात्रा की होगी, इस बीच तमाम स्टेशनों से आपकी ट्रेन (Train) भी गुजरी होगी, लेकिन क्या आपके मन में ये सवाल आया है कि देश का आखिरी स्टेशन कौन सा है? भारत का आखिरी स्टेशन (Last Station of India) है सिंहाबाद जो बांग्लादेश की सीमा से सटा है. बताया जाता है कि ये अंग्रेजों के जमाने का स्टेशन है और आज भी वैसा ही बना है, जैसा अंग्रेज इसे छोड़ कर गए थे. लेकिन देश आजाद होने के बाद से ये स्टेशन एकदम वीरान पड़ा रहता है. यहां कोई भी यात्री ट्रेन नहीं रुकती, इस कारण यहां यात्रियों की चहलकदमी भी नहीं होती है.
गांधी और बोस ने भी किया है इस रूट का इस्तेमालबताया जाता है कि सिंहाबाद रेलवे स्टेशन पश्चिम बंगाल के मालदा जिले के हबीबपुर इलाके में है. किसी जमाने में सिंहाबाद रेलवे स्टेशन कोलकाता से ढाका के बीच संपर्क स्थापित करता था. उस समय इस रूट का इस्तेमाल किया जाता था. महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस भी इस ढाका जाने के लिए इस रूट से कई बार गुजरे हैं. एक जमाना था जब दार्जिलिंग मेल जैसी ट्रेन यहां से गुजरा करती थीं, लेकिन आज के समय में यहां कोई यात्री ट्रेन नहीं रुकती.बांग्लादेश बनने के बाद हुआ था समझौताकहा जाता है कि 1971 के बाद जब बांग्लादेश बना, तब भारत और बांग्लादेश के बीच यात्रा की मांग उठने लगी. इसके बाद एक समझौता हुआ जिसके बाद इस रूट पर भारत से बांग्लादेश आने और जाने के लिए मालगाड़ियां फिर से चलने लगीं. साल 2011 में समझौते में संशोधन करके इसमें नेपाल को भी शामिल कर लिया गया. आज बांग्लादेश के अलावा नेपाल जाने वाली मालगाड़ियां भी इस स्टेशन से होकर गुजरती हैं. रोहनपुर के रास्ते बांग्लादेश जाने वाली और भारत से नेपाल की ओर जाने वाली मालगाड़ियां यहां कई बार रुककर सिग्नल के लिए इंतजार करती हैं.रेलवे बोर्ड लिखा है ‘भारत का अंतिम स्टेशन’यहां के रेलवे बोर्ड पर लिखा है ‘भारत का अंतिम स्टेशन’. यहां पर सिग्रल, संचार और स्टेशन से जुड़े सारे उपकरण, टेलीफोन और टिकट आज भी अंग्रेजों के समय के ही हैं. सिग्नल के लिए हाथ के गियरों का इस्तेमाल किया जाता है. यात्री ट्रेन न रुकने की वजह से यहां टिकट काउंटर हमेशा बंद रहता है. स्टेशन पर कर्मचारी गिने चुने ही हैं. स्टेशन के नाम पर सिर्फ छोटा सा स्टेशन ऑफिस नजर आता है. -
हम सभी अक्सर कहते हैं कि ये दुनिया गोल है. लेकिन फिर भी कभी तो दिमाग में ये सवाल आता ही होगा कि आखिर इस दुनिया का आखिरी छोर कहां पर होगा, जहां पर दुनिया खत्म होती होगी. अगर ये सवाल आप किसी से पूछेंगे तो वो शायद आपके इस सवाल का उत्तर न दे पाए. लेकिन हम आपको बता सकते हैं कि ये दुनिया किस जगह पर जाकर खत्म हो जाती है. यूरोपियन देश नॉर्वे में एक ऐसी सड़क है, जिसे दुनिया की आखिरी सड़क माना जाता है. कहा जाता है कि ये दुनिया की आखिरी सड़क है, जिसके खत्म होने के बाद आपको सिर्फ समुद्र और ग्लेशियर के अलावा कुछ नजर नहीं आता. इस सड़क को ई-69 हाइवे के नाम से जाना जाता है. अगर आप भी इस जगह पर घूमना चाहते हैं, तो यहां आपको बताते हैं इस सड़क से जुड़ी खास बातें.
पृथ्वी के सिरों और नॉर्वे को जोड़ती है ये सड़कउत्तरी ध्रुव, पृथ्वी का सबसे सुदूर बिंदु है, इसी से पृथ्वी की धुरी घूमती है. यहां नॉर्वे देश भी है. E-69 हाइवे पृथ्वी के सिरों को नॉर्वे से जोड़ता है. ये सड़क एक ऐसी जगह जाकर समाप्त होती है, जहां से आपको जाने का कोई रास्ता नजर नहीं आएगा. हर तरफ सिर्फ बर्फ ही बर्फ और समुद्र दिखाई देगा. इस सड़क की लंबाई करीब 14 किलोमीटर बताई जाती है.न ड्राइव कर सकते हैं और न अकेले जा सकते हैंE-69 हाइवे पर अगर आप जाना चाहते हैं और दुनिया के आखिरी छोर को नजदीक से देखना चाहते हैं तो इसके लिए आपको कई लोगों का ग्रुप तैयार करके यहां जाने की अनुमति लेनी होगी. इस सड़क पर किसी भी व्यक्ति को न तो अकेले जाने की अनुमति है और न ही गाड़ी चलाने की अनुमति है. इसका कारण है कि यहां कई किलोमीटर तक हर तरफ बर्फ की मोटी चादर बिछी है, जिसके कारण से यहां खो जाने का खतरा बना रहता है.छह महीनों तक रहता है अंधेरायहां दिन और रात का मिजाज भी एकदम अलग है. उत्तरी ध्रुव के पास होने के कारण सर्दियों में यहां छह महीने तक अंधेरा रहता है और गर्मियों में यहां लगातार सूरज दिखाई देता है. यानी सर्दियों में यहां दिन नहीं होता और गर्मियों में रात नहीं होती. लेकिन हैरानी की बात है कि इतनी मुश्किलों के बीच भी तमाम लोग यहां रहते हैं. इस इलाके में सर्दियों में तापमान माइनस 43 डिग्री और गर्मियों में जीरो डिग्री सेल्सियस के आसपास रहता है.पहले होता था यहां मछलियों का कारोबारकहा जाता है कि इस जगह पर डूबता सूरज और पोलर लाइट्स देखना बहुत ही रोमांचक है. कहा जाता है कि पहले इस स्थान पर मछली का कारोबार होता था, लेकिन 1930 के बाद यहां विकास होने लगा. 1934 के आसपास यहां सैलानियों का आना शुरू हो गया. अब इस स्थान पर आपको होटल्स और रेस्त्रां भी मिल जाएंगे. - मध्य प्रदेश के रानी और संकल्प ने आम की सुरक्षा के लिए चार गार्ड और छह कुत्तों को काम पर लगा रखा है। दरअसल, यह दुनिया का सबसे महंगा आम माना जाता है। इस दंपति ने सालों पहले दुर्लभ आम के दो पौधे लगाए थे। उन्हें लगा था कि ये अन्य आम के पौधे की तरह ही होंगे। लेकिन पेड़ जब बड़े हुए तो वो देखकर हैरान रह गए। उसमें जो आम आए वो लाल, पीले, हरे नहीं बल्कि बैंगनी कलर के थे।इस दुर्लभ आम का नाम मियाजाकी है। यह आम दुनिया की सबसे महंगी नस्ल का आम है। इसे एग ऑफ सन भी कहा जाता है। रिपोर्ट के अनुसार अंतरराष्ट्रीय बाजार में इसकी कीमत 2.70 लाख रुपए प्रति किलो होती है। मीडिया रिपोट्र्स की मानें तो पिछले साल जब लोगों को पता चला कि इस दंपति के बाग में दुर्लभ आम है तो उन्होंने चोरी करनी शुरू कर दी। जिसके बाद रानी और संकल्प ने गार्ड की तैनाती की। इस साल उन्होंने आम की सुरक्षा के लिए चार गार्ड और छह कुत्ते की तैनाती की है। अब ये इस आम के बीज से पौधे तैयार करते हैं।कपल को गिफ्ट में मिले थे दुर्लभ आम के पौधेमीडिया से बातचीत में संकल्पर ने बताया कि चेन्नई की यात्रा के दौरान उन्हें ट्रेन में एक आदमी से पौधे मिले थे। उन्होंने बताया कि गिफ्ट करने वाले शख्स ने कहा कि वो इन पौधों की देखभाल बच्चों की तरह करें। इसके बाद हमने इसे बाग में लगाया, बिना यह जाने की यह दुलर्भ आम है। संकल्प ने अपनी मां के नाम पर आमों का नाम दामिनी रखा है। बाद में, उन्होंने इस किस्म के बारे में और अधिक शोध किया और असली नाम पाया। लेकिन वो आज भी उनके लिए दामिनी है।एक आम खरीदने के लिए हजारों रुपए ऑफर करते हैं लोगकपल से आम खरीदने के लिए कई लोग संपर्क करते हैं। मुंबई के एक जौहरी ने उन्हें एक आम के बदले 21 हजार रुपए देने की पेशकश की थी। लेकिन दंपति ने साफ कर दिया है कि वो किसी को भी फल बेचने नहीं जा रहे हैं।मियाजाकी आम की खूबियां-- यह आम जापान में उगाया जाता है। एक आम का वजन 350 ग्राम से अधिक होता है।-ये आम बीटा-कैरोटीन और फोलिक एसिड से भरपूर होते हैं। कमजोर नजर वालों के लिए यह फायदेमंद होता ह।-इसके अलावा इसमें एंटीऑक्सीडेंट पाया जाता है। यह त्वचा के लिए फायदेमंद होता है। कैंसर के खतरे को भी कम करता है।- इसके अलावा शुगर की मात्रा 15 प्रतिशत से ज्यादा होती है।
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ऐसा शायद ही कोई इंसान होगा जो नींबू पानी बनाने की विधि नहीं जानता होगा। बचपन में ही हम सब नींबू पानी बनाना सीख लेते हैं। एक गिलास पानी, उसमें एक नींबू निचोड़ा और चीनी डालकर बना लिए ड्रिंक। लेकिन अमेरिका की एक बच्ची इसी नींबू पानी से करोड़ों रुपए की कमाई कर रही हैं। नाम है मिकाइला उलमेर (Mikaila Ulmer)। अमेरिका के टेक्सस में रहने वाली मिकाइल उलमेर 17 साल की हो चुकी हैं। लेकिन उन्होंने अपना बिजनेस 11 साल की उम्र में शुरू किया और करोड़पति बन गईं।
मिकाइल उलमेर 4 साल की उम्र में नींबू पानी बनाना सीख गई थीं। अब उनका प्रोडक्ट अमेरिका के नींबू पानी स्टैंड से लेकर रेस्त्रां और ग्रोसरी शॉप पर बेचे जाते हैं। आइए जानते हैं मिकाइल उलमेरा ने बिजनेस कैसे शुरू किया और उनके ड्रिंक को कौन सी चीज स्पेशल बनाती है।चार साल की उम्र में बनाने लगी थीं नींबू पानीमिकाइल जब चार साल की थीं तब उन्हें अपनी परदादी से एक पुरानी रेसिपी की किताब मिली। nypost.com की रिपोर्ट के मुताबिक उस बुक में मिकाइल को 1940 के दौर में बनाई जाने वाली अलसी के नींबू (Flaxseed Lemonade) का नुस्खा मिला। इसके बाद उन्होंने भी इसे आजमाने की सोची। उन्होंने छोटी उम्र में अपने घर के बाहर नींबू पानी (Lemonade) बेचना शुरू कर दिया। उन्होंने इसे मीठा करने के लिए शुगर नहीं बल्कि शहद मिलाना शुरू कर दिया। उनके इस ड्रिंक को लोग पसंद करने लगे।नींबू पानी में मिलाती हैं स्पेशल शहदइसके बाद मिकाइल ने शहद के लिए खुद ही मधुमक्खियों का पालन शुरू किया। उन्होंने अपने ब्रांड का नाम दिया Me & The Bees Lemonade। वो अपनी वेबसाइट पर लिखती हैं कि मैं नींबू पानी में केवल चीनी की बजाय शहद मिलाकर एक नया ट्विस्ट देने का फैसला किया। इस तरह इसकी शुरुआत हुई।शार्क टैंक से 46 लाख का निवेश पाईंघर से बाहर शुरू हुआ कारोबार दुकानों तक पहुंच गया। मिकाइल का यह पेय छोटे-छोटे दुकानों में जाने लगा। इसके बाद साल 2015 में उन्हें टीवी शो शार्क टैंक (Shark tank) में बुलाया गया। वो इसमें 46 लाख का निवेश पाने में सफल रहीं। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो छोटी सी मिकाइल ने जब तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा को यह ड्रिंक पिलाया तो इसकी प्रसिद्धि और बढ़ गई।85 करोड़ से अधिक की हुई डीलसाल 2016 में सुपर मार्केट कंपनी Whole Foods Market ने मिकाइला के ब्रांड से एक डील की। इस डिल में उन्हें 85 करोड़ से अधिक रुपये मिले। 17 साल की मिसाइल करोड़पति बन गई हैं। उनका ड्रिंक अब हजारों स्टोरों में बेचे जाते हैं। -
देहरादून। पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र में पहली बार यूट्रिकुलेरिया फुरसेलटा नामक एक अत्यंत दुर्लभ मांसाहारी पौधे की प्रजाति पाई गई है। एक वरिष्ठ अधिकारी ने शनिवार को यह जानकारी दी। मुख्य वन संरक्षक (अनुसंधान) संजीव चतुर्वेदी ने कहा कि दुर्लभ प्रजातियों का पता उत्तराखंड वन विभाग के एक शोध दल ने चमोली जिले में स्थित सुरम्य मंडल घाटी में लगाया। उन्होंने कहा, ‘‘यह न केवल उत्तराखंड में, बल्कि पूरे पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र में पहली बार देखा गया है।'' चतुर्वेदी ने कहा कि रेंज ऑफिसर हरीश नेगी और जूनियर रिसर्च फेलो मनोज सिंह की उत्तराखंड वन विभाग की टीम द्वारा की गयी इस खोज को प्रतिष्ठित 'जर्नल ऑफ जापानीज बॉटनी' में प्रकाशित किया गया है, जो प्लांट टैक्सोनॉमी और वनस्पति विज्ञान पर 106 साल पुरानी पत्रिका है, जो इस क्षेत्र की उत्कृष्ट पत्रिका है। उन्होंने कहा कि यह उत्तराखंड वन विभाग के लिए गौरव का क्षण है, क्योंकि यह उसकी पहली खोज है, जो प्रतिष्ठित पत्रिका में प्रकाशित हुई है। यह खोज उत्तराखंड में कीटभक्षी पौधों के एक परियोजना अध्ययन का हिस्सा थी। चतुर्वेदी ने कहा कि यह मांसाहारी पौधा ऐसी प्रजाति का है, जिसे आमतौर पर ब्लैडरवॉर्ट्स के रूप में जाना जाता है। मांसाहारी पौधे ज्यादातर ताजे पानी और गीली मिट्टी में पाए जाते हैं। सामान्य पौधों की तुलना में भोजन और पोषण की व्यवस्था करने का उनका पूरी तरह से अलग तरीका है।
- ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने एक पौधा खोजा है, जो दुनिया का सबसे बड़ा पौधा बताया जा रहा है। इस पौधे का आकार न्यूयॉर्क के मैनहटन इलाके से तीन गुना बड़ा है। वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया यूनिवर्सिटी और फ्लिंडर्स विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि पानी के नीचे फैला घास दरअसल एक ही पौधा है। यह पौधा लगभग 4,500 साल पहले एक ही बीज से उगा था। यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने कहा कि यह समुद्री घास 200 वर्ग किलोमीटर में फैली है।वैज्ञानिकों को इस पौधे का पता एक संयोग से चला. पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के शहर पर्थ से 800 किलोमीटर दूर शार्क बे में यह पौधा मिला है। वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता वहां रिबन वीड नामक एक प्रजाति की जेनेटिक विविधता को समझने गए थे। रिबन वीड ऑस्ट्रेलिया के तट पर आम तौर पर मिलने वाली घास है।कैसे हुई खोज?शोधकर्ताओं ने पूरी खाड़ी से नमूने जुटाए और 18,000 जेनेटिक मार्कर्स का अध्ययन किया ताकि हर नमूने का एक 'फिंगरप्रिंट' तैयार किया जा सके। दरअसल, वे ये जानना चाह रहे थे कि कितने पौधे मिलकर समुद्री घास का पूरा मैदान तैयार करते हैं। यह शोध प्रोसीडिंग्स ऑफ द रॉयल सोसाइटी बी में प्रकाशित हुआ है1 मुख्य शोधकर्ता जेन एडगेलो कहती हैं, "हमारे सवाल का जो जवाब हमें मिला, उससे तो हमारे होश उड़ गए. वहां सिर्फ एक पौधा था। शार्क बे में सिर्फ एक ही पौधा 180 किलोमीटर लंबा था। यह पृथ्वी पर अब तक ज्ञात सबसे बड़ा पौधा है। "वैज्ञानिक कहते हैं कि यह अद्भुत पौधा है, जो पूरी खाड़ी में अलग-अलग परिस्थितियों में भी उगा हुआ है। शोधकर्ताओं में शामिल डॉ. एलिजाबेथ सिंकलेयर कहती हैं कि अपने आकार के अतिरिक्त जो बात इस पौधे को विशेष बनाती है, वो है इसकी मुश्किल हालात में भी जिंदा रहने की क्षमता। डॉ. सिंकलेयर वेस्टर्न ऑस्ट्रेलिया यूनिवर्सिटी के ओशंस इंस्टिट्यूट में इवॉलन्यूशनरी बायोलॉजी पढ़ाती हैं और इस शोध की वरिष्ठ लेखिका हैं। उन्होंने कहा, "बिना फूलों के खिले और बीजों का उत्पादन हुए भी, यह पौधा बहुत मजबूत प्रतीत होता है। यह अलग-अलग तापमान और अत्याधिक प्रकाश जैसे हालात को भी झेल रहा है, जो ज्यादातर पौधों के लिए बहुत मुश्किल होता है। " शोधकर्ता अब शार्क बे में कई प्रयोग कर रहे हैं ताकि इस पौधे को और करीब से समझा जा सके। वे जानना चाहते हैं कि ऐसे विविध हालात में यह पौधा किस तरह जिंदा रहता है। शार्के बे विश्व धरोहरों में शामिल एक विशाल खाड़ी है, जहां का समुद्री जीवन वैज्ञानिकों और पर्यटकों को खासा आकर्षक लगता है।----
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वाशिंगटन। शोधार्थियों ने एक सरल ग्लूकोज़-मीटर जांच विकसित की है जो लोगों को शरीर में कोविड-19 का मुकाबला करने वाली एंटीबॉडी की निगरानी करने में मदद कर सकती है। अमेरिका में जॉन होपकिंस विश्वविद्यालय की टीम ने कहा कि सरल कोविड-19 जांच तेजी से यह दिखा सकती है कि क्या व्यक्ति कोरोना वायरस से संक्रमित है या नहीं। बहरहाल, अगर कोई शख्स संक्रमित मिलता है तो यह आकलन करने के लिए कोई घरेलू परीक्षण नहीं उपलब्ध नहीं है जो यह बता सके कि वह कितने समय तक फिर से संक्रमित होने से बचा रहेगा। ‘अमेरिकन कैमिकल सोसाइटी' नामक जर्नल में शोधार्थियों ने सरल सटीक ग्लूकोज़-मीटर आधारित जांच के बारे में बताया है जिसमें नया फ्यूज़न प्रोटीन शामिल है। उन्होंने कहा कि उपभोक्ता किसी भी दिन इस जांच का इस्तेमाल खुद के कोविड एंटीबॉडी स्तर की निगरानी के लिए कर सकता है। शोधार्थियों ने कहा कि टीकाकरण और वायरस से संक्रमित हो जाने से कोविड से कुछ समय के लिए बचा सकता है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि यह सुरक्षा कितने समय तक चलती है। उन्होंने कहा कि रोग प्रतिरोधक का अच्छा संकेत किसी शख्स के शरीर में कोविड के खिलाफ एंटीबॉडी का स्तर है लेकिन ‘एंजाइम लिंक्ड इम्युनोसॉरबेंट एसे' (ईएलआईएसए) के लिए महंगे उपकरण और विशेषीकृत तकनीशियन की जरूरत होती है। शोधार्थियों के मुताबिक, ग्लूकोज़ मीटर उपलब्ध हैं और इन्हें इस्तेमाल करना भी आसान है और इसे दूरस्थ क्लिनिकल सेवा से जोड़ा जा सकता है। शोधकर्ता इन उपकरणों को अन्य लक्षित अणुओं को समझने के लिए उपयोग कर रहे हैं।
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नॉटिंघम (यूके) । पिछले कुछ वर्षों में, इन दो शब्दों के साथ अकसर आपका वास्ता पड़ा होगा: आंतरायिक उपवास अर्थात भोजन के बीच में समय अंतराल। मशहूर हस्तियों से लेकर फिटनेस के प्रति उत्साही लोगों तक, सोशल मीडिया पर आंतरायिक उपवास के हजारों वफादार समर्थक हैं, जो यह दावा करते हैं कि खाने के इस तरीके से उन्हें अन्य आहार विधियों की तुलना में वजन कम करने में बेहतर मदद मिली है। वजन घटाने की विधि के रूप में रूक रूक कर उपवास का पालन करना आसान है। न केवल यह सरल है, यह लचीला भी है, इसे हर व्यक्ति के लिए आसानी से अनुकूलित किया जा सकता है, और इसके लिए आपको खाद्य पदार्थों को अपने भोजन से हटाने या कैलोरी गिनने की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन इसकी लोकप्रियता के बावजूद, जब वजन घटाने की बात आती है तो आंतरायिक उपवास दरअसल अन्य आहार विधियों से बेहतर नहीं हो सकता है। आज तक, कई अध्ययनों से पता चला है कि आंतरायिक उपवास वजन घटाने के लिए कैलोरी गिनने जितना ही अच्छा है - हाल ही में एक अध्ययन सहित, जिसमें प्रतिभागियों को एक वर्ष से अधिक समय तक ट्रैक किया गया था। यह कई अलग-अलग प्रकार के आंतरायिक उपवास के साथ भी दिखाया गया है, जिसमें वैकल्पिक-दिन उपवास (जहां आप हर दूसरे दिन उपवास या कैलोरी को प्रतिबंधित करते हैं), 5: 2 डाइटिंग (सप्ताह में पांच दिन सामान्य रूप से भोजन करना, फिर उपवास या दो दिनों के लिए कैलोरी को प्रतिबंधित करना) शामिल हैं।) और समय-प्रतिबंधित भोजन (जहां आप अपने पूरे दिन की कैलोरी एक निर्धारित समय के भीतर खाते हैं, जैसे कि केवल आठ घंटे के दौरान खाना, फिर 16 घंटे का उपवास)। लेकिन किसी भी अध्ययन ने अभी तक रूक रूक कर किए जाने वाले इस उपवास को पारंपरिक डाइटिंग से बेहतर नहीं दिखाया है। रूक रूक कर या एक निर्धारित समय के दौरान खाना आपके खाने की मात्रा को कम कर देता है, लेकिन इसका नुकसान हो सकता है। यह दोनों हमारे द्वारा की जाने वाली शारीरिक गतिविधि की मात्रा को कम करता है, और व्यायाम के दौरान हम कितनी मेहनत करते हैं, इसे कम करता है। यह सच है चाहे आप किसी भी प्रकार का आंतरायिक उपवास क्यों न करें। इससे पता चलता है कि जब कैलोरी की मात्रा काफी कम हो जाती है - चाहे थोड़े समय के लिए ही - हमारा शरीर व्यायाम के दौरान उपयोग की जाने वाली कैलोरी की संख्या को कम करके अनुकूलन करता है। हालाँकि, शोधकर्ता पूरी तरह से निश्चित नहीं हैं कि ऐसा क्यों होता है। वैसे जरूरी नहीं कि यह वजन घटाने को प्रभावित करे, कम शारीरिक गतिविधि के स्तर स्वास्थ्य पर अन्य नकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं। उदाहरण के लिए, हाल ही में वैकल्पिक दिन के उपवास के एक अध्ययन में पाया गया कि इस आहार के सिर्फ तीन सप्ताह में ही शारीरिक गतिविधि के स्तर में कमी आई और दैनिक कैलोरी प्रतिबंध आहार की तुलना में मांसपेशियों का अधिक नुकसान हुआ। फैट लॉस के लिए दैनिक कैलोरी प्रतिबंध की तुलना में भी उपवास डाइटिंग कम प्रभावी थी। रक्त शर्करा के स्तर को विनियमित करने और उम्र बढ़ने के साथ शारीरिक रूप से सक्षम रहने सहित कई कारणों से मांसपेशियों का निर्माण महत्वपूर्ण है। इसलिए ऐसी डाइट से बचना चाहिए जो मांसपेशियों के नुकसान का कारण बनते हैं। हालांकि, व्यायाम कार्यक्रमों के साथ आंतरायिक उपवास का संयोजन फैट लॉस को बढ़ावा देकर लोगों का मसल मास कम करने में मदद कर सकता है। क्या उपवास करने के और भी फायदे हैं? जब वजन घटाने की बात आती है तो इंटरमिटेंट फास्टिंग भले एक चमत्कारी समाधान न हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इसके अन्य स्वास्थ्य लाभ नहीं हैं। इंटरमिटेंट फास्टिंग पर एक हालिया समीक्षा में पाया गया कि यह रक्तचाप, इंसुलिन संवेदनशीलता (शरीर रक्त शर्करा को कितनी प्रभावी ढंग से नियंत्रित करता है) और दैनिक कैलोरी प्रतिबंध के समान कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम करता है। यह संभावना है कि यह प्रभाव वजन घटाने के कारण होता है। लेकिन चूंकि कुछ अध्ययनों में प्रतिभागियों का एक वर्ष से अधिक समय तक अध्ययन किया गया है, इसलिए यह जानना कठिन है कि क्या ये प्रभाव बने रहते हैं। कुछ शोध यह भी बताते हैं कि आप कैसे उपवास करते हैं यह भी महत्वपूर्ण हो सकता है। कई अध्ययनों ने शुरुआती समय-प्रतिबंधित भोजन से आशाजनक परिणाम दिखाए हैं, जिसमें दिन के शुरुआती हिस्से में अपने दिन की सभी कैलोरी खाना और शाम को आम तौर पर चार बजे से उपवास करना शामिल है। दिन में जल्दी भोजन करना हमारे प्राकृतिक भोजन सेवन का हिस्सा है, जिसका अर्थ है कि पाचक अंगों को भोजन के पोषक तत्वों को पचाने के लिए अधिक समय मिल जाता है। -
नयी दिल्ली | भारत दिन में दो बार देश भर में कम से कम 55 स्थानों से मौसम गुब्बारों के माध्यम से सेंसर भेजकर वायुमंडलीय आंकड़ें एकत्र करता है लेकिन अब जल्द ही ड्रोन इन मौसम गुब्बारों की जगह ले सकते हैं। मौसम के गुब्बारे द्वारा ले जाया जाने वाला टेलीमेट्री उपकरण रेडियोसॉन्ड में लगे सेंसर वायुमंडलीय दबाव, तापमान, हवा की दिशा और गति को दर्ज करता है। हाइड्रोजन युक्त मौसम गुब्बारा 12 किलोमीटर की ऊंचाई तक जा सकता है और रेडियो सिग्नल के जरिए जमीनी रिसीवर को डाटा भेजता है। हालांकि, मौसम गुब्बारे और रेडियोसॉन्ड को प्राप्त नहीं किया जा सकता क्योंकि वे उन मौसम केंद्रों से दूर चले जाते हैं जो उन्हें वातावरण में छोड़ते हैं। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव एम रविचंद्रन ने बताया, ‘‘हम अब इन वायुमंडलीय आंकड़ों को इकट्ठा करने के लिए ड्रोन का उपयोग करने की संभावना तलाश रहे हैं जो मौसम की भविष्यवाणी के लिए महत्वपूर्ण है।'' विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि मौसम संबंधी आंकड़ें एकत्र करने के लिए सेंसर से लैस विशेष ड्रोन पारंपरिक मौसम गुब्बारों के स्थान पर बेहतर साबित हो सकते हैं। भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) मौसम केंद्रों के माध्यम से देश भर में 550 स्थानों से मौसम के आंकड़े एकत्र करता है और रेडियोसॉन्ड का अध्ययन करता है, जिनका इस्तेमाल मौसम पूर्वानुमान जारी करने में किया जाता है। मौसम गुब्बारों की तुलना में ड्रोन का सबसे अधिक लाभ यह है कि उन्हें नियंत्रित किया जा सकता है, कम या ज्यादा ऊंचाई पर उड़ने के लिए निर्देशित किया जा सकता है। आईएमडी की योजना पांच किलोमीटर की ऊंचाई तक के डेटा को इकट्ठा करने के लिए ड्रोन का उपयोग करने और पारंपरिक मौसम गुब्बारों का उपयोग करके एकत्र किए गए डाटा के साथ तुलना करने की है। आईएमडी ने मौसम के आंकडें एकत्र करने के लिए ड्रोन प्रौद्योगिकी की क्षमता को परखने के लिए शिक्षाविदों और अन्य को आमंत्रित किया है। मौसम के गुब्बारे की उड़ान आमतौर पर दो घंटे तक चलती है, जबकि आईएमडी को ड्रोन का उपयोग करके 40 मिनट की उड़ान से डाटा एकत्र करने की उम्मीद है। यदि आईएमडी को इसमें सफलता मिलती है, तो एक महत्वपूर्ण लाभ यह होगा कि इससे रेडियोसॉन्ड के नुकसान को कम किया जा सकेगा क्योंकि आईएमडी हर दिन 100 से अधिक ऐसे उपकरणों को खो देता है क्योंकि मौसम के गुब्बारों को उनकी उड़ान के बाद पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता है। - वैज्ञानिक अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में मिले कुछ उल्कापिंडों के अवशेषों की जांच कर रहे हैं और यह जांच मानव जीवन के विकास के बारे में अब तक की धारणाओं को तगड़ी चुनौती दे रही है।तीन उल्कापिंडों के अब तक के अध्ययन से पता चला है कि इनके जरिए वे रसायन पृथ्वी पर आए, जो मानवजीवन के विकास के लिए जरूरी थे। वैज्ञानिकों को पहले इस बात की जानकारी मिली थी कि डीएनए के निर्माण के लिए जरूरी पांच में से तीन रसायन इन उल्कापिंडों में मौजूद थे। साथ ही जीवों के लिए जरूरी जेनेटिक निर्देश और आरएनए यानी वे मॉलीक्यूल जो जीन्स की गतिविधियों के लिए जरूरी हैं, इन उल्कापिंडों में मिले. मंगलवार को शोधकर्ताओं ने कहा कि अब उन्हें अंतिम दो रसायन भी मिल गए हैं।इस बार उल्कापिंडों की जांच के लिए वैज्ञानिकों ने पहले से अलग तरीका अपनाया। इस बार वे ज्यादा संवेदनशील थे और बहुत कड़े एसिड या गर्म द्रव्य प्रयोग करने से परहेज कर रहे थे। जापान की होकाइडो के एस्ट्रोकेमिस्ट यासूहीरो ओबा बताते हैं कि न्यूकलियोबासिस नाम के ये पांच तत्व निकालने के लिए बहुत सावधानी बरती गई। न्यूकलियोबासिस एक नाइट्रोजन युक्त यौगिक होता है जो डीएनए का स्ट्रक्चर बनाने के लिए जरूरी है।यासूहीरो ओबा इस अध्ययन के मुख्य शोधकर्ता हैं। अध्ययन नेचर कम्यूनिकेशंस नामक पत्रिका में छपा है। शोध के सह-लेखक नासा के गाडार्ड फ्लाइट सेंटर में काम करने वाले डैनी ग्लैविन कहते हैं कि बाह्य अंतरिक्ष से ऐसे न्यूकलियोबासिस आए, जो जीवन की शुरुआत के लिए जरूरी थे, इस बात की पुष्टि उस सिद्धांत का प्रतिपादन है कि जीवन के लिए जरूरी तत्व बाहर से आए थे।वैज्ञानिक इस बात की बेहतर समझ के लिए लगातार कोशिश कर रहे हैं कि पृथ्वी पर जीवन कैसे शुरू हुआ। यानी वे क्या घटनाएं थीं जिनके कारण जीवन की शुरुआत करने वाली रसायनिक क्रियाएं हुईं और ऐसे जीवित माइक्रोब बने जो प्रजनन कर सकते थे। डीएनए और आरएनए का निर्माण उस प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण कदम था क्योंकि इन्हीं से जीवों की शारीरिक गतिविधियां निर्देशित होती हैं।ग्लैविन बताते हैं, "पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत के लिए हुए रसायनिक कदमों के बारे में अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है। इस शोध ने रसायनिक यौगिकों की उस सूची में ऐसे तत्वों को जोड़ा है जो पृथ्वी के शुरुआती समय में ही, यानी जीवन के पनपने से पहले मौजूद रहे होंगे।"शोधकर्ताओं ने तीन अलग-अलग उल्कापिंडों का अध्ययन किया है। एक 1950 में अमेरिका के केंटकी राज्य के मर्रे में गिरा था। दूसरा ऑस्ट्रेलिया के विक्टोरिया राज्य के मर्चीसन कस्बे में 1969 में गिरा था और तीसरा, कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया राज्य में साल 2000 में गिरा था। इन तीनों को ही कार्बनेशस कॉन्ड्राइट्स कहा जाता है। ये ऐसे पदार्थ से बने हैं, जिनके बारे में अनुमान है कि सौर मंडल के निर्माण के शुरुआती दौर में बने होंगे। ग्लैविन कहते हैं, "तीनों उल्कापिंडों में ऑर्गैनिक मॉलीक्यूलों का मिश्रण बेहद जटिल है। ज्यादातर की पहचान अब तक नहीं हो पाई है।"नई खोज के बारे में ओबा कहते हैं, "इन नतीजों से पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति के बारे में सीधे तौर पर कोई जानकारी भले ही ना मिलती हो लेकिन मेरा मानना है कि वे जीवन की शुरुआत से पूर्व पृथ्वी पर मौजूद रहे ऑर्गैनिक मॉलीक्यूल के बारे में हमारी समझ बढ़ा सकते हैं।"
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नयी दिल्ली. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी), दिल्ली द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि दिवाली के बाद के दिनों में आतिशबाजी के बजाय जैव ईंधन जलाने से राष्ट्रीय राजधानी में वायु गुणवत्ता खराब होती है। आईआईटी दिल्ली के शोधकर्ताओं के नेतृत्व में “दिवाली पर आतिशबाजी के पहले, दौरान और बाद में नई दिल्ली में परिवेशी पीएम2.5 की रासायनिक विशिष्टता और स्रोत विभाजन” शीर्षक वाला अध्ययन किया गया। इसमें त्योहार के पहले, दौरान और बाद में राजधानी में परिवेशी वायु गुणवत्ता को प्रभावित करने वाले प्रदूषण स्रोतों पर प्रकाश डाला गया है। अध्ययन के मुख्य लेखक चिराग मनचंदा ने कहा, “टीम ने पाया कि दीवाली के बाद के दिनों में जैव ईंधन जलने संबंधी उत्सर्जन में तेजी से वृद्धि हुई है, जिसमें दीवाली पूर्व संकेंद्रण की तुलना में औसत स्तर लगभग दोगुना बढ़ गया है। साथ ही, कार्बनिक पीएम2.5 से संबंधित स्रोत विभाजन परिणाम दिवाली के बाद के दिनों में प्राथमिक और द्वितीयक दोनों कार्बनिक प्रदूषकों में उल्लेखनीय वृद्धि का संकेत देते हैं, जो प्राथमिक जैविक उत्सर्जन वृद्धि में जैव ईंधन जलाने की भूमिका का सुझाव देते हैं।” उन्होंने कहा, “हमने यह भी पाया कि दिवाली के दौरान पीएम2.5 के स्तर में धातु की मात्रा 1,100 प्रतिशत बढ़ी और अकेले आतिशबाजी में पीएम2.5 धातु का 95 प्रतिशत हिस्सा था। हालांकि आतिशबाजी का प्रभाव त्योहार के लगभग 12 घंटों के भीतर कम हो गया।” पत्रिका “एटमॉस्फीयरिक पलूशन रिसर्च” में प्रकाशित शोध अध्ययन ने चुनौती का समाधान करने के लिए पीएम2.5 के अत्यधिक समय-समाधानित तत्वों और कार्बनिक अंशों के लिए स्रोत-विभाजन परिणाम प्रस्तुत किए हैं। आईआईटी-दिल्ली के रसायन अभियांत्रिकी विभाग के विक्रम सिंह ने कहा, “सर्दियों में क्षेत्र में पराली जलाने और ठंड से बचने के लिये किए जाने वाले उपायों के चलते जैव ईंधन जलाने की गतिविधियां बढ़ती हैं। इस प्रकार अध्ययन ने निष्कर्ष निकाला कि आतिशबाजी के बजाय जैव ईंधन जलाने से दिवाली के बाद के दिनों में दिल्ली में हवा की गुणवत्ता खराब होती है। -
मेलबर्न। मंगल या शुक्र की सतह पर होना कैसा लगता होगा? या इनसे भी दूर प्लूटो या शनि के उपग्रह टाइटन की सतह कैसी होती होगी? इस उत्सुकता के कारण ही आज से 65 वर्ष पहले स्पूतनिक-एक को अंतरिक्ष में छोड़ा गया था और तभी से हम अंतरिक्ष की गहराइयों की खोज कर रहे हैं। पर अब तक हम केवल सतही तौर पर जान पाए हैं कि सौर मंडल के अन्य ग्रह और पिंड कैसे काम करते हैं। ‘नेचर एस्ट्रोनॉमी' शोध पत्रिका में प्रकाशित हमारे नए अध्ययन में सामने आया है कि ‘सैंड ड्यून' (रेत के टीले) सुदूर ग्रहों के मौसम की स्थिति के बारे में जानकारी दे सकते हैं। अंग्रेज कवि विलियम ब्लेक अपनी एक कविता में कल्पना करता है कि ‘रेत के एक कण में पूरा संसार देखा जा सकता है।' हमने अपने अनुसंधान में इसे अक्षरशः महसूस किया। हमारे अध्ययन में रेत के टीलों की मौजूदगी से सतह की स्थिति का आकलन करने का विचार पनपा। रेत के टीले या ‘ड्यून' के अस्तित्व के लिए कुछ चीजों का होना जरूरी है। पहले तो रेत के कण मौजूद होने चाहिए। इसके बाद इतनी तेज हवाएं चलनी चाहिए कि इन कणों को सतह से ऊपर इकठ्ठा होने में मदद मिले, लेकिन ये हवाएं इतनी तेज नहीं होनी चाहिए कि रेत के कणों को वातावरण में पहुंचा दे। अभी तक, हवाओं की गति और तलछट जमा होने का मापन सीधे तौर पर पृथ्वी और मंगल पर ही संभव हो सका है। हालांकि, उपग्रहों और धूमकेतु तथा अन्य पिंडों पर भी हवा के वेग के कारण जमा हुए धूल के कणों से बनी आकृतियां देखी गई हैं। इन रेत के टीलों के अस्तित्व से ही पता चलता है कि इनके निर्माण के लिए जरूरी चीजें उस ग्रह या पिंड पर मौजूद रही होंगी। हमने अपना ध्यान शुक्र, पृथ्वी, मंगल, टाइटन, ट्राइटन (नेप्च्यून का सबसे बड़ा उपग्रह) और प्लूटो पर केंद्रित किया है। इन पिंडों के बारे में दशकों से बहस होती रही है। ट्राइटन पर बहने वाली वायु से बनी आकृतियों को हम प्लूटो के सतह पर बने टीलों से पृथक कैसे कर सकते हैं जबकि दोनों के वायुमंडल बेहद हल्के हैं? हमें मंगल पर रेत और धूल के तूफान क्यों दिखाई देते हैं जबकि वहां हवा की गति मंद होती है? और क्या शुक्र के बेहद गर्म और घने वायुमंडल में रेत हवा में उसी तरह उड़ सकती है जैसे धरती पर वायु या पानी बहता है? हमारे अध्ययन में वायु के बहने का अनुमान पेश किया गया है और यह कि इन पिंडों पर धूल और रेत के कण जितनी आसानी से टूटते हैं ताकि हवा उन्हें बहा ले जाए। टाइटन के बारे में बात करें तो हमें पता है कि उस उपग्रह की मध्यरेखा में रेत के टीले मौजूद हैं, लेकिन हमें यह नहीं पता कि वहां कौन सा पदार्थ एकत्र है। क्या वह पूरी तरह से ‘आर्गेनिक' (कार्बन से बने पदार्थ) है जो वायुमंडल से गिरा है या वह और घनी बर्फ है? हमने पाया कि टाइटन की मध्यरेखा के क्षेत्र में अगर हवा चलने से आर्गेनिक धुंध बहेगी तो टकरा कर वह पदार्थ विखंडित हो जाएगी। इससे पता चलता है कि टाइटन पर रेत के टीले पूरी तरह आर्गेनिक पदार्थ की धुंध से नहीं बने हैं। टीले बनने के लिए लंबे समय तक हवा चलना जरूरी है, जैसे कि धरती पर बने बहुत से ‘सैंड ड्यून' लाखों साल पुराने हैं। हमने यह भी पाया कि प्लूटो पर मीथेन या नाइट्रोजन बर्फ को बहाकर ले जाने के लिए वायु की गति बेहद तेज होनी चाहिए। इससे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या प्लूटो की सपाट सतह पर मौजूद ‘स्पूतनिक प्लेनिशिया', रेत का टीला है भी या नहीं। यह आकृतियां कणों के जमाव की बजाय ठोस से सीधा वाष्प बने पदार्थों से निर्मित हो सकती हैं। इस प्रक्रिया को ‘सब्लिमेशन' कहा जाता है। मंगल के उत्तरी ध्रुव पर ऐसा ही कुछ दिखाई देता है। मंगल के अध्ययन से हमें पता चला कि वहां पृथ्वी की अपेक्षा, वायु जनित धूल अधिक मात्रा में जमा होती है। इससे पता चलता है कि मंगल का वायुमंडल तेज ठंडी हवाओं को रोक पाने में उतना सक्षम नहीं है।