महर्षि वाल्मीकि की पुण्यभूमि तुरतुरिया
छत्तीसगढ़ में रामायणकालीन संस्कृति की झलक आज भी देखने मिलती हैं। जिससे यह साबित तो होता है कि भगवान श्रीराम के अलावा माता सीता और लव-कुश का संबंध भी इसी प्रदेश से था। घने जंगलों के बीच स्थित तुरतुरिया में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम इसी बात की याद दिलाता है कि रामायण काल में छत्तीसगढ़ का कितना महत्व रहा होगा। प्राचीन जनश्रुतियों के अनुसार त्रेतायुग में यहां महर्षि वाल्मीकी का आश्रम था और उन्होंने सीताजी को भगवान राम के द्वारा त्याग देने पर आश्रय दिया था।
रायपुर-बलौदाबाजार मार्ग पर ठाकुरदिया नाम स्थान से सात किलोमीटर की दूरी पर घने जंगल और पहाड़ों पर स्थित है तुरतुरिया। यह छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 113 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां जाने का रास्ता शायद पहले आसान नहीं रहा होगा, क्योंकि सुरम्य और घनी पहाडिय़ों के बीच स्थित इस स्थान में जगह-जगह पहाड़ी कछार, छोटे-छोटे नाले और टीलें हैं । इन्हीं पहाडिय़ों के बीच बहती है बालमदेही नदी जिसका पाट तुरतुरिया के पास काफी चौड़ा हो गया है। पहाड़ी नदी होने के कारण वर्षा ऋतु में इसका तेज प्रवाह तुरतुरिया तक पहुंचने के रास्तों को और कठिन बना देता है। यह नदी आगे चलकर पैरागुड़ा के पास महानदी में मिल जाती है।
छत्तीसगढ़ के पृथक राज्य बनने के बाद यहां के ऐतिहासिक और पौराणिक साक्ष्यों से संबंधित क्षेत्रों के विकास में तेजी आई है। इन क्षेत्रों का लगातार विकास कर इन्हें पर्यटन क्षेत्रों के रूप में उभारा जा रहा है। तुरतुरिया को ही ले लीजिए। जहां पहुंचना पहले आसान नहीं था, लेकिन अब इसके रास्तों को आसान बना दिया गया है। छोटे-छोटे मोड़दार नालों पर छोटी-छोटी पुलियां बन गई हैं। अब वहां पर्यटकों का पहुंचना और ठहरना आसान तथा आरामदायक हो गया है। तुरतुरिया तीन मुख्य रास्तों से जाया जा सकता है, एक सीधे रायपुर से बारनवापारा जंगल होते हुए, सिरपुर से या फिर बलौदाबाजार से।
तुरतुरिया की वन विभाग की चौकी पार करने के बाद दो सौ कदम के फासले पर ही स्थित है महर्षि वाल्मीकि का आश्रम। सामने ही एक पहाड़ी पर वैदेही कुटीर नजर आती है। वहां तक पहुंचने के लिए पहाडिय़ों को काटकर सीढिय़ां बना दी गई हैं। सीढिय़ों के किनारे-किनारे जंगली मोगरे के छोटे-छोटे पौधे बिखरे पड़े हैं। गर्मियों और बारिश में जब ये फूल खिलते हैं, तो वातावरण और खुशनुमा हो जाता है। ऊपर पहुंचने पर एक पक्की कुटीर नजर आता है। यदि आपकी किस्मत अच्छी है, तो आपको ऊपर पहुंचने पर हिरणों का झुंड भी विचरण करता नजर आ सकता है। हालांकि पर्यटकों की आहट से चौकन्ना होकर येे हिरण कुंलाचे भरते हुए पल भर में पेड़ों के झुुरमुट में गायब भी हो जाते हैं। रात में और भी जानवर यहां पर देखे जा सकते हैं। इसी पहाड़ी से लगी एक अन्य पहाड़ी है, जहां पर महर्षि वाल्मीकी का आश्रम स्थित है।
प्राचीन जनश्रुतियों के अनुसार त्रेतायुग में यहां महर्षि वाल्मीकि का आश्रम था और यहीं पर उन्होंने सीताजी को रामचंद्र जी द्वारा त्याग देने पर आश्रय दिया था। जनश्रुति है कि वैदेहि सीता को लक्ष्मण फिगेंश्वर के पास सोरिद अंचल के ग्राम रमई पाठ में छोड़ गए थे। वहीं पर सीताजी ने अपना निवास स्थान बनाया था। माता सीता की वहां पर आज भी प्रतिमा मौजूद है। जब माता सीता के बारे में महर्षि वाल्मीकि को जानकारी मिली, तो वे माता को अपने तुरतुरिया के आश्रम में ले आए थे। यहीं पर सीताजी के दोनों पुत्र लव और कुश ने जन्म लिया था। वैदेही कुटीर के नीचे ठीक बाएं एक संकरा रास्ता पैदल जाता है। सामने ही कलात्मक खंभे दिखाई देते हैं, जो विखंडित हो चुके हैं। पहाड़ी पर ही कुछ पक्के मंदिर अब बन गए हैं, जिन पर निर्माण कार्य में सहयोग करने वाले लोगों के नाम भी अंकित हैं।
इसी क्षेत्र में बौद्ध भग्नावेश भी मिलते हैं, जो 8 वीं शताब्दी के हैं। यहीं पर कई उत्कृष्ट कलात्मक खंबे भी नजर आते हैं, जो किसी स्तूप के अंग हैं। यहीं पर माता सीता और लव- कुश की एक प्रतिमा भी नजर आती है, जो 13-14 वीं शताब्दी की बताई जाती है। पाषाण निर्मित ये मूर्तियां कलात्मक तो नहीं कही जा सकती, लेकिन इससे यह बात स्पष्ट होती है कि प्राचीन काल में भी इस जगह को वाल्मिकी के आश्रम के रूप में मान्यता मिली हुई थी। इस प्रतिमा में लव कुश को एक घोड़े के साथ दिखाया गया है। बताया जाता है कि यहीं पर लव और कुश ने भगवान राम के राजसूर्य यज्ञ के घोड़े को रोका था।
इसका तुरतुरिया नाम पडऩे का कारण यह है कि चट्टïानों के बीच से जब यह निर्धरिणी का उद्गम एक लंबी संकरी गुफा से होता है। जहां से वह बड़ी दूर तक भूमिगत होकर बही है। इस झरने का नाम ही तुरतुरिया हैं, जिसे सुरसुरी गंगा के नाम से भी जाना जाता है। घने जंगलों से घिरा है यह क्षेत्र। इस गुफा से उसका जल ईंटों से निर्मित एक कुंड में एकत्र होता है। कुंड में उतरने के लिए सीढिय़ां बनी हुई हैं। पहाड़ों के समीप एक छोटा सा जल कुंड बना हुआ है, जिसमें पानी पहाड़ों से आकर गिरता है। बारहों महीने इसकी जलधारा प्रवाहित होती रहती है। गर्मियों में भी ठंडे शीतल जल की धारा धाराप्रवाह प्रवाहित होती रहती है। यहां पर रहने वाले लोगों के अनुसार पिछले करीब 50 बरसों से वे इस क्षेत्र में निवास कर रहे हैं। इतने बरसों में उन्होंने कभी इस धारा को सूखते नहीं देखा है। पानी कुंड में गोमुख से होकर नीचे गिरता है। कुंड के निकट दो शूरवीर की मूर्तियां हैं, जिनमें से एक तलवार उठाए हुए है जो उस सिंह को मारने के लिए उद्घत है जो उसकी दाहिनी भुजा को फाड़ रहा है। दूसरी मूर्ति एक जानवर का उसकी पिछली टांगों पर खड़ा होकर उसका गला मरोड़ रहा है। यहीं पर भगवान विष्णु की एक स्थानक प्रतिमा भी है। एक प्रतिमा पद्मासन की मुद्रा में है जिसमें भगवान विष्णु की योगमुद्रा है जिसके कारण इसे देखकर लोगों को भगवान बुद्ध की प्रतिमा होने का भान होता है। यहां पत्थर के कई स्तंभ यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं, जिन पर उत्कृष्टï खुदाई का काम किया गया है।
स्त्री और बौद्घ विहार-
यह स्थान कुंड से कुछ दूरी पर नाले के दूसरे किनारे पर पहाड़ पर स्थित ऋुषियों के कुटियों में जाने के लिए बनाए गए पहाड़ी सीढिय़ों के समीप है। जहां पर अब मात्र जैन एवं बौद्घ भिक्षुणियों की मूर्ति है जो कि उपदेश देने की मुद्रा में दिखाए गए हैं। साथ ही उनकी शिक्षाएं भी यहीं उत्कीर्ण हैं, जो आठवी-नवीं शताब्दी की हंै। इस स्थान की विशेषता है कि यहां पुजारिनें स्त्री ही नियुक्त की जाती थीं, जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह बौद्घ भिक्षुणियों का विहार था। भारत में केवल बौद्घ भिक्षुणियों के लिए विहार का निर्माण किया गया था या नहीं यह शोध का विषय है। इन अवशेषों से इस बात का स्पष्ट पता चलता है कि इस क्षेत्र पर 8-9 वीं शताब्दी में बौद्ध धर्म का प्रभाव था और यह प्रमुख बौद्ध स्तूप और स्थल रहा होगा। इस क्षेत्र की खुदाई और शोध से कई बातें और सामने आ सकती हैं। वर्ष 1914 में तत्कालीन अंग्रेज कमिश्नर ए. ए. लारी ने इस स्थान पर खुदाई कराई थी, जिसमें यहां पर अनेक मंदिर और प्राचीन मूर्तियां मिली थीं। लारी का नाम शिलालेश गोमुख के ऊपर आज भी देखने को मिल जाता है।
यहां के कुछ प्राचीन भग्र मंदिरों में बौद्घ मूर्तियां खंडित अवस्था में हंै तथा समीप ही शैव वैष्णव धर्म की कुछ मूर्तियां पाई जाती हैं, जिनमें शिवलिंगों की अधिकता है। इनमें विष्णु और गणेश जी की मूर्तियां हैं। ऐसा जान पड़ता है कि अधिकांश शिवलिंगों का निर्माण बौद्घ विहार के स्तंभों को तोड़कर किया गया है।
छेरछेरा पर लगता है मेला
इस क्षेत्र का महत्व छेराछेरा के मौके पर और बढ़ जाता है, जब यहां पर मेला भरता है। धार्मिक मान्यता के अनुसार इस स्थान पर लव कुश का जन्म हुआ था इसलिए पूष माह में यहां पर तीन दिनों का मेला भरता है। छेरछेरा पर्व छत्तीसगढ़ का पारंपरिक त्यौहार है , जो पूर्णिमा यानी पुन्नी के दिन धान कटाई के बाद मनाया जाता है। इस दिन गांव-गांव में घर - घर जाकर छोटे-छोटे बच्चे गुहार (आवाज) लगाकर कहते हैं- छेरा-छेरा , कोठी के धान ल हेर हेरा। धान का दान देना इस दिन शुभ माना जाता है। इस दिन लगने वाले मेले में आस-पास के हजारों लोग जुटते हैं। तब तक बालमदेही नदी का पाट काफी सिमट जाता है और गांव -गांव से आने वाले लोग नदी के रेतीले तट पर अस्थायी चूल्हे बनाकर अपने खाने-पीने का इंतजाम करते हैं।
इस क्षेत्र से सबसे समीप का गांव है बफरा, जहां कच्चे-पक्के मकान बने हुए हैं। यह गांव तुरतुरिया से 10-12 किमी की दूरी पर स्थित है। तुरतुरिया जाने के मार्ग पर पडऩे वाले गांव काफी बिखरे हुए हैं। इसकी वजह शायद इसका पहाड़ी क्षेत्र में स्थित होना है।
तुरतुरिया से 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है मातागढ़। बालमदेही नदी के पश्चिम में स्थित इस स्थान पर देवी मां का एक प्राचीन मंदिर है। जिसकी बड़ी मान्यता है। इस मंदिर में पहुंचकर मन को शांति मिलती है।
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