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पहचाना इन्हें..... इन्हें लोग देवी की तरह पूजते थे!
13 अक्टूबर: पुण्यतिथि पर विशेष
आलेख - मंजूषा शर्मा 
ये हैं कोकिला किशोरचंद्र बुलसारा, जो हिन्दी और गुजराती फिल्मों की लोकप्रिय अभिनेत्री रही हैं। हिन्दी फिल्मों की मां कही जाने वाली इस अभिनेत्री को अपने मूल नाम कोकिला किशोरचंद्र बुलसारा से नहीं बल्कि फिल्मी नाम निरुपा रॉय से लोकप्रियता मिली। उन्हें आज भी फिल्मों की सर्वेश्रेष्ठ मां कहा जाता है। अपने 50 साल के फिल्मी कॅरिअर में उन्होंने 5 सौ से अधिक फिल्में कीं। उनका शुरुआती फिल्मी कॅरिअर संघर्ष भरा रहा। अपनी प्रारंभिक फिल्मों में उन्होंने देवी का किरदार इस तरह से निभाया कि लोग उनकी पूजा करने लगे। फिर आया मां के किरदार का दौर, इसमें तो निरुपा रॉय ऐसे रच बस गईं कि वे फिल्मों की मां ही बन गईं। खासकर अमिताभ बच्चन की मां का रोल उन्होंने सबसे ज्यादा निभाया। अपने बेमिसाल अदायगी से उन्होंने फिल्मों में मां के किरदार को एक अलग ही आयाम दिया। 
निरुपा रॉय का जन्म 4 जनवरी, 1931 को गुजरात राज्य के बलसाड में एक मध्यमवर्गीय गुजराती परिवार में हुआ था। गौर वर्ण की वजह से उन्हें  धोरी चकली  कहकर पुकारा जाता था। उनके पिता रेलवे में सरकारी कर्मचारी थे। निरुपा रॉय ने चौथी तक शिक्षा प्राप्त की। जब वे मात्र 15 साल की ही थीं, उनका उनका विवाह मुंबई में कार्यरत राशनिंग विभाग के कर्मचारी कमल रॉय से हो गया। विवाह के बाद निरुपा रॉय भी मुंबई आ गईं।  उनके दो बेटे हुए- योगेश और किरण। उनके पति को फिल्मों का शौक था और वे हीरो बनना चाहते थे। किस्मत का खेल देखिए उसी दौरान निर्माता-निर्देशक बी. एम. व्यास अपनी नई फि़ल्म  रनकदेवी  के लिए नए चेहरों की तलाश कर रहे थे। उन्होंने इसके लिए   अख़बार में विज्ञापन दिया। निरुपा रॉय के पति ने ये इश्तहार देखा और पत्नी संग पहुंच गए बी. एम. व्यास से मिलने। उनका हीरो बनने का सपना तो पूरा नहीं हुआ , लेकिन निरुपा रॉय को फिल्म में जगह मिल गई।  निरुपा रॉय 150 रुपये प्रति माह पर काम करने लगीं। किंतु कुछ समय बाद ही उन्हें भी इस फि़ल्म से अलग कर दिया गया। यह निरुपा रॉय के संघर्ष की शुरुआत थी। इसी दौरान उन्हें गुजराती फिल्म  गणसुंदरी में काम करने का मौका मिला। इसी के साथ वे हिन्दी फिल्मों में भी काम तलाशने लगीं। किस्मत ने पलटा खाया और उन्हें  हमारी मंजिल में नायक प्रेम अदीब के साथ काम करने का मौका मिल गया। फिर जयराज के साथ फि़ल्म  गऱीबी में वे नायिका के तौर पर नजर आईं।   1951 में आई फिल्म हर हर महादेव से उनके कॅरिअर में जबरदस्त उछाल आया।   फिल्म में वे देवी पार्वती के रोल में ऐसे फिट हुई, कि  दर्शकों के बीच माता पार्वती के रूप में  प्रसिद्ध हो गईं। इसी दौरान  फि़ल्म  वीर भीमसेन निरुपा रॉय द्रौपदी के किरदार में नजर आई। इस तरह से पौराणिक किरदारों ने उनकी काफी शोहरत दिलाई। एक के बाद एक 16 फिल्मों में उन्होंने पौराणिक किरदार निभाया। अभिनेता त्रिलोक कपूर के साथ उन्होंने सबसे ज्यादा 18 फिल्मों में नायिका का किरदार निभाया। कुछ फिल्मों में बोल्ड रोल भी किए।   
 वर्ष 1953 में प्रदर्शित विमल रॉय की फि़ल्म दो बीघा ज़मीन ने निरुपा रॉय को एक बेहतरीन अभिनेत्री के रूप में स्थापित किया। सामाजिक सरोकारों पर बनी इस फिल्म में बलराज साहनी हीरो थे।    1955 में  फि़ल्मिस्तान स्टूडियो  के बैनर तले बनी फि़ल्म  मुनीम जी  में उन्होंने पहली बार देवानंद की मां का रोल स्वीकार किया।   फि़ल्म में  सशक्त अभिनय के लिए वे सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री के  फि़ल्म फ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित की गईं। इसके बाद तो उनके सामने मां के रोल के ठेरो प्रस्ताव मिलने लगे, लेकिन टाइप्ड होने के डर से निरुपा रॉय ने सारी फिल्में ठुकरा दी। 60 के दशक में उन्होंने नियति के साथ समझौता कर लिया और फिल्म छाया में एक बार फिर मां के किरदार में नजर आईं।  इस फि़ल्म में भी उनके अभिनय को सराहा गया और एक बार फिर उन्हें  सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेत्री का फि़ल्म फ़ेयर पुरस्कार मिल गया। फिर फिल्म शहनाई के लिए भी उन्होंने यह पुरस्कार जीता। 
 सन 1975 में प्रदर्शित फि़ल्म  दीवार ने उनकी किस्मत ही बदल दी। अच्छाई और बुराई के रास्तों के बीच फंसी मां का रोल उन्हें बखूबी निभाया।  फिल्म का एक डॉयलॉग आज भी लोग भूले नहीं हैं जब गलत रास्तों में चल पड़े अमिताभ, अपने भाई शशि कपूर से कहते हैं- मेरे पास बंगला है, गाड़ी है, बैंक बैलेंस है। तुम्हारे पास क्या है? तो शशिकपूर जवाब देते हैं-मेरे पास मां है।   वर्ष 1999 में प्रदर्शित होने वाली फि़ल्म  लाल बादशाह में वे अंतिम बार अमिताभ बच्चन की मां की भूमिका में दिखाई दीं। 13 अक्तूबर साल 2004 में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
 
 
 
निरुपा रॉय ने भले ही हिन्दी फिल्मों में काम किया और शौहरत हासिल की, लेकिन बहुत कम लोगों को मालूम है कि वे हिन्दी नहीं लिख पाती थीं। वे अपने संवाद गुजराती में लिखा करती थीं। इसके बाद भी उनकी संवाद अदायगी में कहीं से भी उनके गुजराती होने का आभास नहीं होता था। वे अपने किरदारों के साथ ऐसी रच-बस जाती थीं कि जैसे वहीं उनकी असल जिंदगी है। 
 साल 2001 निरुपा रॉय लिए दुखदायी रहा जब दहेज मांगने के जुर्म में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उनके साथ में पति कमल रॉय और बेटा किरन रॉय भी जेल चले गए थे। बहू ऊना रॉय ने उन सभी पर दहेज उत्पीडऩ का केस कर दिया था। 13 अक्टूबर 2004 में हार्ट अटैक से उनका निधन हो गया। वे अपने पीछे करीब सौ करोड़ की संपत्ति छोड़ गई थीं। 2015 में उनके पति कमल रॉय की मौत के बाद दोनों बेटों के बीच इसी संपत्ति को ऐसी लड़ाई छिड़ी कि मामला पुलिस थाने तक पहुंच गया। अच्छा हुआ कि यह सब देखने के लिए वे  जीवित नहीं थीं।
मशहूर फिल्मी गीत जो निरूपा रॉय पर फिल्माए गए थे—
-आ लौट के आजा मेरे गीत.....
-जरा सामने तो आओ छलिए...
-मेरा देखो तो छोटा सा संसार....
-चाहे पास हो या दूर हो....
-मैं यहां तू कहां, मेरा दिल तुझे पुकारे....
-ढलती जाए रात....
-- तू कितनी अच्छी है, तू कितनी भोली है...ओ मां
 

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