माँ, मैं निःशब्द हूँ...
माँ ने मेरा हाथ खूब ज़ोर से पकड़ा और कहा, देख लेना !! यह तो थे माँ के अन्तिम शब्द । क्या इन शब्दों का अर्थ विश्वास जताना था, या कुछ और..
माँ का स्वर्गवास हुए अभी कुछ ही दिन हुए, लेकिन लगता नहीं कि अब माँ नहीं है। मैं तो ससुराल में हूँ ना, बेटी जो हूँ। वैसे तो मैं भी अब माँ हूँ, लेकिन इसकी अनुभूति अब हो रही है। ममत्व का अहसास हाथ हटने के बाद ही होता है। कहते हैं ना किसी के होने का अहसास उसके चले जाने के बाद होता है, सच है। मां है तो मायका भी है उसके जाने के बाद शायद ही वैसा हो. एक विश्वास की कमी.. मेरे पिता की मृत्यु से क्षति का अहसास हुआ, बहुत बड़ी कमी भी रही, जिसे भी माँ ने सम्हाल रखा था। माँ ने अपने रहते पिता की कमी को अपने दोहरे किरदार से शायद संजो रखा था, लेकिन अब तो माता-पिता दोनों ही नहीं हैं।
लेकिन मेरे चार भैया-भाभी हैं न, तीन मुझसे बड़े भी हैं। चारों ही मेरे लिए तो समकक्ष भी हैं और सक्षम भी। चारों ही ने मुझे फूल की तरह रखा है और खुशबू की तरह समझा भी हाँ, यह भी कि मैं पत्नी और माँ भी हूँ। ये सभी प्यार, भरपूर प्यार के ही रिश्ते हैं। माँ के उपचार के चलते शायद मैंने इन रिश्तों की सूक्ष्मता को महसूस किया । मातृत्व की परिभाषा अंतर्मन से पहचानी भी ।
माता-पिता की भूमिका वैसे तो जानी-पहचानी सी है, ससुराल जाने के बाद भी उनकी मृत्यु पर जो बड़ा सा शून्य बनता है,उसे भाई- भाभी हटा कर लगाव की निरंतरता दे पाएँगे ? यह एक बड़ा सा प्रश्न दबी आवाज़ से पहले भी होता था और अब वह सामने दिखाई देता है।
वही पुरानी बचपन की अठखेलियाँ, नटखट उत्पात आगंतुकों के वार्तालाप, कुछ प्रश्न कुछ अनमने और कुछ रोचक उत्तर मन ही मन लगातार आते रहते हैं। लेकिन, मां के द्वारा उनकी मृत्यु पूर्व आत्म विश्वास को बढ़ाने वाली पकड़, अभी भी मन को झकझोर देती है। माँ ने मुझे मेरे ब्याह के बाद से लगातार जो प्यार, बढ़ाने की राह दी, जो जीवन के प्रति और सभी संबंधों के प्रति जिम्मेदारी की सीख दी, मेरा जीवन उनके आशीर्वचन से उपकृत हो गया। उनके ईश्वरीय दृष्टिकोण को क्या लिखूँ, अप्रतिम भक्ति-भाव आसक्ति मेरे लिए तो समझना भी मानो पूजा ही है। सामाजिक ढांचा और उससे हमारा सरोकार, नैतिकता, सामंजस्य को नारीत्व के भाव से जोडऩा अतुलनीय रहा है। उनका मंदिरों में जाना वहाँ की सुविधा-असुविधा समझना और यथा संभव सहयोग, वाह... पुन: नि:शब्द..
माँ, हमने आपको शायद पूरा जाना ही नहीं, समझा ही नहीं, एक बार और मौका देना माँ इसी रूप में। शत् शत् नमन.. मैं पूरा लिख नहीं पाई एक बार फिर से कलम पकडऩा सिखाना माँ, प्रणाम माँ।
शजिन्ता(स्मृति)शुक्ला
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