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 युगों तक महकते रहेंगे ’गदर के फूल’
 डॉ. कमलेश गोगिया 
166 साल बीत चुके हैं, 8 अप्रैल सन 1857 को...! स्वाधीनता संग्राम की पहली गोली चलाकर आजादी का बिगुल फूंकने वाले शूरवीर मंगल पांडे को अंग्रेजी हुकूमत ने इस दिन फांसी दे दी थी। सत्तावनी क्रांति को अंग्रेजों ने ’गदर’ कहा था...तब मौत भी धन्य हो गई थी सैकड़ों क्रांतिकारी वीरों को गले लगाकर! नई और भावी पीढ़ियों को यह जानना बेहद आवश्यक जान पड़ता है कि आज जिस स्वतंत्र देवभूमि भारत में हम अमन-चैन की सांसें ले रहे हैं, वह उन वीरों की शहादत का परिणाम है जिन्होंने हँसते-हँसते मातृभूमि के लिए अपने प्राणों की आहूतियां दी हैं। इस गदर में क्या बच्चे और क्या बूढ़े, आम जनता, स्त्री-पुरुष, हिन्दू-मुस्लिम, सिपाहियों, रानियों, बेगमों और वेश्याओं तक ने संगठित होकर सक्रिय भागीदारी निभाई थी। इसका मार्मिक उल्लेख हमें प्रख्यात रचनाकार अमृतलाल नागर की किताब ’गदर के फूल’ में मिलता है। यह सर्वेक्षण के आधार पर भारतीय दृष्टिकोण से लिखा गया इतिहास से ज्यादा प्रमाणिक दस्तावेज जान पड़ता है। यह बात सभी जानते हैं कि गूगल बुक्स हमें उपलब्ध किताबों के कुछ पन्नों की ही झलक दिखलाता है। इस किताब के नये संस्करण के कुछ पन्ने पढ़ने को मिलते हैं, लेकिन ई-पुस्तकालय से प्रथम संस्करण बिना कव्हर पेज के ’निःशुल्क’ डाउनलोड किया जा सकता है। इसका मूल्य साढ़े चार रुपए, प्रकाशन वर्ष-स्वतंत्रता संग्राम शताब्दी 1957 और प्रकाशन शाखा, सूचना विभाग, उत्तरप्रदेश अंकित है। नागर जी ने पुरानी अवध रियासत के गावों में जाकर आम लोगों के बीच गदर की स्मृतियों और दस्तावेजों को संग्रहित किया। वे प्रस्तावना में लिखते हैं, ’’सत्तावनी क्रान्ति सम्बन्धी अपने उपन्यास के लिए ऐतिहासिक सामग्री एकत्र करते हुए मुझे लगा कि अपने उपन्यास के क्षेत्र-अवध-में घूम-घूम कर गदर संबंधी स्मृतियाँ और किंवदतियां आदि एकत्र किए बिना मेरी गढ़ी हुई कहानी में झकोले रह जाएंगे। यों भी गदर की किंवदतियों या बातों को सुनानेवाले व्यक्ति अब छीजते जा रहे हैं। सत्तावनी क्रान्ति के संबंध में भारतीय दृष्टिकोण से लिखे गये इतिहास के अभाव में जनश्रुतियों के सहारे ही इतिहास की गैल पहचानी जा सकती है।’’
प्रस्तावना में ही वे किताब के शीर्षक का भी स्पष्टीकरण कुछ इस तरह से देते हैं, ’’हमारे देश में स्वजनों की चिता के फूल चुने जाते  हैं। सौ वर्ष बाद ही सही मैं भी गदर के फूल चुनने की निष्ठा लेकर अवध की यात्रा का आयोजन करने लगा।’’ नागर जी इस कृति का समर्पण इस तरह से करते हैं, ’’’सत्तावनी क्रान्ति के अठारह वर्षीय तरुण सेनानी अभिनव अभिमन्यु श्री बलभद्र सिंह (चलहारी के ठाकुर) और उनके स्वदेश की इंच-इंच भूमि के लिए अन्तिम बूंद तक रक्तदान करने वाले नवाबगंज बाराबाकी के युद्ध क्षेत्र के अभूतपूर्व रणबाँकुरे छह सौ हिन्दू-मुसलमान पुरखों को प्रतीक स्वरूप यह श्राद्ध आयोजन सविनय अर्पित।’ इस किताब को आज 66 साल हो रहे हैं। सहज और सरल भाषा में लिखी गई इस किताब को पढ़ने के बाद अन्तःकरण से सहसा यह स्वर निकल पड़े-
 "ज़मीने हिन्द के ज़र्रे-ज़र्रे में
शहीदों का लहू मिला हुआ है
क्या हिन्दू और क्या मुसलमान
आजाद भारत का गुलशन तो
गदर के ’फूलों’ से ही खिला हुआ है"
गदर के प्रथम शहीद मंगल पांडे सा़ढ़े नौ फुट ढाई इंच के थे! रचनाकार ने बिना किसी साहित्यिक रूप-रंग और कठिन शब्दावली का चोला पहनाए उसी अंदाज में बयां किया है जैसी उन्हें स्मृतियां और दस्तावेज प्राप्त हुए। यथा-’’श्री मंगल पांडे का जन्म फैजा़बाद ज़िले की अकबरपुर तहसील के सुरहुरपुर नामक ग्राम में सन् 1827 के जुलाई की 19वीं तारीख को अर्थात् आषाढ़ शुक्ल द्वितीया शुक्रवार विक्रमीय संवत् 1884 को हुआ था। इनके पिता का नाम दिवाकर पांडे था, वस्तुतः फैज़ाबाद जिले की फैज़ाबाद तहसील के दुगवा रहीमपुर नामक ग्राम के रहने वाले थे और अपने ननिहाल की सम्पत्ति के उत्तराधिकारी होकर सुरहुरपुर में जाकर  बस गये थे। वहीं पर उनकी पत्नी अभयरानी देवी के गर्भ से मंगल पांडे का जन्म हुआ। इनकी लम्बाई 9 फुट 2।। इंच थी। 22 वर्ष की आयु में अर्थात 10 मई 1849 में आप ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में भरती हुए। किसी काम से आप सुरहुरपुर से अकबरपुर आए हुए थे उसी समय कम्पनी की सेना बनारस से लखनऊ को ग्राड ट्रक रोड होती हुई जा रही थी। आप सेना का मार्च देखने के लिए कौतूहलवश सड़क किनारे आकर खड़े हो गये। सैनिक अधिकारी ने आपको हष्ट-पुष्ट और स्वस्थ देख कर सेना में भरती हो जाने का आग्रह किया, आप राजी हो गये। बस यहीं से आपका सैनिक जीवन प्रारम्भ हुआ। (पृष्ठ-74-75)’’
इसके बाद की घटनाओं से हम में से अधिकांशतः वाकिफ होंगे। मंगल पांडे पर फ़िल्म भी निर्मित हो चुकी है। मंगल पांडे को फांसी देने के बाद भारत की सैनिक छावनियों में जबर्दस्त विद्रोह प्रारम्भ हुआ। अंग्रेजी हुकूमत ने मंगल पांडे के पूरे खानदान से बदला लिया। नागर जी लिखते हैं, ’’मंगल पांडे के खानदान से जो भी मिला उसे तोप के मुँह पर धर कर अंग्रेजों ने उड़ा दिया। फिर भी मंगल पांडे के कई एक निकट संबंधी बच गये, जिनमें मंगल पांडे के सगे भतीजे बुझावन पांडे भी थे। वह अपनी जमात के सभी रिश्तेदारों, खान्दानियों और साथियों को साथ लेकर क्रान्तिकारी दल में मिल गये। 25 अगस्त को इन सबने मिल कर फैजा़बाद की सैनिक छावनी पर रात में धावा बोल दिया जिनके फलस्वरूप सभी हिन्दुस्तानी सैनिक उनसे मिल गये और छावनी के सभी अंग्रेज या तो मार डाले गये या बलवाइयों के हाथ बन्दी हो गये।’’ गदर  में अंग्रेजों द्वारा किये गये कत्ले-आम के बर्बरतापूर्ण दृष्यों का रहस्य भी प्रकट होता है। लेखक इस बात के कायल थे कि सत्तावन का नायक फौज का सिपाही था।
नागर जी ने अनेक मार्के की बात लिखी है और उनकी बातें आज आधा युग बीतने के बाद भी प्रासंगिक लगती हैं। वे लिखते हैं, ’’यह भी मार्के की बात है कि अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ने के लिए सबसे पहले सिपाही उठे। सामन्तगण सिहापियों के कारण ही संघबद्ध हुए थे। यह सिपाही संगठन ही देश में नये युग के आने का परिचय देता है। सिपाही आखिरकार हमारी आम जनता के ही प्रतिनिधि तो थे। और इसीलिये जब हमारे राजे-सामन्त हार गये तब भी जनसाधारण एकाएक चुप होकर न बैठ सका। (पृष्ठ-298).
’’आगे और भी अहम बात उन्होंने लिखी है, ’’एक बात यह भी विचारणीय है कि क्या गदर होने का प्रमुखतम कारण धर्म-मजहब ही था? मैं तो समझता हूँ कि अंग्रेजों के खिलाफ हमारी शिकायतों का यह एक बहाना मात्र था। जिन चरबी के कारतूसों के कारण गदर होना बतलाया जाता है वे कारतूस ही भारतीयों के द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ इस्तेमाल किये गये। ब्राह्मण सिपाहियों तक ने आपद्धर्म कहकर चर्बी वाले कारतूस मुँह से काटे और शत्रु अंग्रेजों को मारा। मेरी दृष्टि में यह बड़ी बात है-बड़ा धर्म है।’’
गदर में दूसरी मार्के की बात यह दिखलाई देती है कि उसके प्रमुख नेताओं में एक ओर जहाँ अस्सी वर्ष के कुँवर सिंह, साठ-पैंसठ के राणा वेणीमाघव, मौलवी साहब, बहादुरशाह जफर, तात्या आदि बड़े-बूढ़े थे वहां अठारह वर्ष के बलभद्र सिंह, बाईस वर्ष की लक्ष्मीबाई, छब्बीस-सत्ताइस वर्ष की हज़रत महल और तैंतीस वर्ष के नाना साहब आदि ताजे़ खून वाले नौजवान भी थे। गदर में इस प्रकार हम देखते हैं कि वे तमाम खूबियां जो किसी भी राष्ट्र को ऊँचा उठा सकती है, हमें भी बहुत बल दे रही थी। अस्सी वर्ष का वृद्ध हो अथवा अठारह वर्ष का नवयुवक, दोनों एक ही महाभाव से बंधे, एक ही उद्देश्य के लिये अपना सर्वस्व अर्पण कर रहे थे।’’
पुरातत्व और इतिहास प्रेमी नागर जी ने यह भी लिखा है कि, ’’हमने भारतीय इतिहास की एक यह विशेषता भी पहचानी कि बाहरी शत्रु का दबाव पड़ने पर देश संगठित हो उठने का प्रयत्न बराबर करता है, परन्तु वह संगठन कभी पूरी तौर पर स्थायी नहीं पो पाता। सांस्कृतिक रूप से भारत सदा से सुसंगठित है। व्यापार की दृष्टि से भी देश की एकसूत्रता स्वयंसिद्ध है, राजनीतिक दृष्टि से हम आपस में कटे-कटे रहे।’’ कृति के अन्त में नागर जी देश के लिए मर मिटने वाले वीरों के संस्मरणों से प्रेरणा लेकर आगे बढ़ने का संदेश देते हैं।
इस समय भारत की आजादी को 75 वर्ष हो चुके हैं और पूरा देश 12 मार्च 2021 से आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। यह अमृत महोत्सव सबसे दीर्धकाल तक चलने वाले आजादी का उत्सव है, इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं। 15 अगस्त 2023 तक चलने वाले इस उत्सव के तहत पूरे देश में विभिन्न रचनात्मक गतिविधयों के साथ ही वीर-शहीदों को भी स्मरण किया जा रहा है। उन्हें हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उन्हें कभी विस्मृत न करें और उनके लहू की हर एक बूंद का मान रखकर भावी पीढ़ी को भी उनके योगदान से अवगत कराते रहें।
वस्तुतः प्रथम शहीद मंगल पांडे से लेकर स्वतंत्रता के पूर्व, पश्चात और वर्तमान में भी देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान देने वाले सभी शहीदों को शत-शत नमन... आने वाले अनेक युगों तक महकते रहेंगे गदर के फूल...इसमें कोई सन्देह नहीं है। 
जय हिन्द...जय भारत...वंदे मातरम...।

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