तब एक ही रिंग टोन थी, डाकिये की सायकल की घंटी ..! अब सियासत के काम आती हैं चिट्ठियां
डॉ. कमलेश गोगिया
अल्फाज कल भी थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे, लेकिन अब वे स्याही से भीगकर संवेदनाओं को सजीव नहीं बनाते। क्योंकि संचार के आधुनिक माध्यमों ने संदेश भेजने की दूरियाँ इतनी कम कर दी हैं कि दिलों की दूरियाँ बढ़ गईं हैं। चिट्ठी , खत या पत्र शब्द इस समय सियासत के गलियारे में गूँज रहा है। कभी रिश्तों की डोर को मजबूत बनाने का अहम जरिया बनने वाली चिट्ठियां फिलहाल सियासत के काम आ रही हैं। जिनके पास आज भी पुरानी चिट्ठियां सहेजकर रखी गई हैं, वे जब भी पढ़ते होंगे, उनकी आँखें संवेदनाओं के सूखे तालाब को यादों की अश्रु-बूदों से जरूर भरती होंगी। वह गोल्डन-टाइम ही तो था, जब हर खत के साथ जुड़ी थीं स्मृतियाँ और उसका इतिहास। कितना प्रेम-भाव था उन संदेशों में जिसकी शुरुआत ही प्राय: "मेरे प्रिय दोस्त", "मेरे प्रियतम", "मेरे प्यारे भईया", "मेरी प्यारी बहन", "मेरी प्यारी बिटिया", या "मेरी प्यारी अम्मा" और "छोटों को प्यार, बड़ों को चरण-स्पर्श", "आदरणीय", "सम्मानीय", "प्रिय" जैसे शब्दों से हुआ करती थी। क्षण-भर में विश्व के किसी भी कोने में बैठे व्यक्ति तक लाइव संदेश पहुँचा देने की तकनीक ने रिश्तों की इस मजबूत डोर के धागों को कमजोर कर दिया है। अब संदेश पहुँचने और जवाब मिलने का बेसब्री से अनेक दिनों तक इंतजार जो नहीं करना पड़ता। कहते हैं प्रेम तो दूरियों से ही बढ़ता है।
वायु, मेघ, अग्नि, कबूतर, तोते, भँवरे कभी संचार का माध्यम हुआ करते थे। मीरा ने भी तुलसीदास को पत्र लिखा था। एक प्रसिद्ध कथा है कि जब मीरा को मारने के अनेक प्रयास किये जा रहे थे तो उन्होंने तुलसीदास को पत्र लिखकर अपने लिए करणीय पूछा। उत्तर में तुलसी का पद प्राप्त हुआ, "जाके प्रिय न राम वैदेही। तजिए ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही।" और मीरा ने घर छोड़ दिया।
कहा जाता है कि 19वीं सदी की शुरुआत तक कबूतर से संदेश भेजे जाते थे। तब होमिंग प्रजाति के कबूतरों का विशेष इस्तेमाल होता था। ये कबूतर जिस स्थान से उड़ते थे, वापस वहीं पहुँच जाते थे जिसकी सटीक पुष्टि हो जाती थी। सूचना के आदान-प्रदान की सुदृढ़ व्यवस्था डाक विभाग से हुई जिसकी भारत में स्थापना 169 साल पहले सन् 1854 से लार्ड डहलौजी के जमाने से मानी जाती है। चि_ी-पत्री की बात ही कुछ और थी। तब लिफाफ़ा, पीले-नीले पोस्ट कार्ड और अंतर्देशीय पत्र ही हमारे प्लेटफार्म हुआ करते थे। पत्र पूरी दुनिया के करोड़ों लोगों की जि़न्दग़ी का अहम हिस्सा हुआ करते थे। लिफाफ़़े में डाक टिकट लगाना तब का रिचार्ज ही था, जिसके अभाव में संदेश गंतव्य तक पहुँचने की बजाए वापस लौट आता था। गली-चौराहों में लाल रंग का गोल आकार का लैटर बॉक्स हुआ करता था। हर-दो से तीन दिन में डाकिया लैटर बॉक्स के पत्रों को एकत्र करता था। सबसे अहम भूमिका डाकिये की ही हुआ करती थी। डाकिये का सभी को बेसब्री से इंतजार हुआ करता था। ठीक वैसे ही, जैसे इंटरनेट के सिग्नल का आज हुआ करता है। घर-घर पहुँचकर ऊँचे स्वर में "पोस्टमैन" शब्द की गूंज या फिर डाकिये की सायकल की घंटी की आवाज तब रिंग टोन हुआ करती थी। खाकी वर्दी पहने डाकिया के पास एक लंबा झोला हुआ करता था। इस झोले में पत्र के रूप में किसी के किस्मत की चाबी तो किसी के दुख भरे लम्हों की दास्तान हुआ करती थी। हँसने, रोने, मुस्कुराने के साजो-सामान से सजा रहता था वह झोला।
आजादी के आंदोलन से लेकर बड़ी से बड़ी क्रांति करने तक, पत्रों की अहम भूमिका रही है। महापुरुषों के संग्रहणीय खतों पर अनेक शोध होते रहे हैं जो संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, रवींद्र नाथ टैगोर सहित अनेक महापुरुषों और साहित्यकारों के खतों और पत्राचार के आधार पर न जाने कितनी प्रसिद्ध पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। विश्व प्रसिद्ध हस्तियों के तरह-तरह के पत्रों की नीलामी भी होती रही है।
चिट्ठी-पत्री, आपके पत्र, पाठकों के पत्र, पाती, संपादक के नाम पत्र जैसे कॉलम समाचार-पत्रों में पाठकों को सम-सामयिक मुद्दों पर बेबाक अभिव्यक्ति के लिए मंच उपलब्ध कराते थे। अनेक पत्र-लेखक बाद में पत्रकार भी बने, इनमें मैं भी शामिल हूँ। पत्र लेखन की कला स्कूली पाठ्यक्रम में भी शामिल है, लेकिन असल जिंदगी से अब चिट्ठी-पत्री नदारद है। इसकी जगह ई-मेल, मोबाइल, एसएमएस, व्हाट्सएप और सोशल मीडिया के अन्य प्लेटफॉंर्म ने ले ली है। लेकिन जो भावनात्मक संतोष पत्र से मिलता था वह आधुनिक माध्यमों से नहीं मिलता। दो लोगों के बीच संवाद का चिट्ठी ही तो एक विश्वसनीय जरिया थी। माना जाता है कि दुनिया का पहला पत्र 2009 ईसा पूर्व बेबीलोन के खँडहरों में मिला था। वह भी प्रेम पत्र था जो मिट्टी की पट्टी पर लिखा गया था। दो पंक्ति के इस पत्र में विरह की तड़प थी। प्रसिद्ध लेखक हेमंत शर्मा की किताब "तमाशा मेरे आगे" में लोक-जीवन के अनेक प्रासंगिक लेखों का संग्रह है। "बिलाती पाती" में वे लिखते हैं, "पत्रों से संवेदनाओं का गहरा रिश्ता है। जब सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष में जा रही थीं तो उनके साथ पिता के हिंदी में लिखे पत्र भी थे। दुनिया का राजनीतिक और सामाजिक इतिहास भी पत्रों के बिना अधूरा है। माक्र्स और एंगेल्स के बीच ऐतिहासिक दोस्ती की शुरुआत भी पत्रों के जरिए हुई थी। महात्मा गांधी एक साथ दोनों हाथों से चिट्ठियां लिखते थे।" कहा जाता है कि महात्मा गांधी को जैसे ही पत्र मिलता था वे तत्काल उसका जवाब दे दिया करते थे। उनके पास दुनियाभर से पत्र पहुँचते थे।
जिन्हें पत्र पढऩा नहीं आता था, उनके पत्र अनेक अवसरों पर डाकिया ही पढ़ दिया करता था। कभी-कभार लिख भी दिया करता था। ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक निरक्षरों की सहायता साक्षर कर दिया करते थे। देश में अनेक पेशेवर पत्र लेखक भी हुए हैं जिन्हें पत्र-लेखन कला में विशेष कौशल हासिल था। उनके लिए यह आय का स्त्रोत हुआ करता था। वर्ष 2014 में बीबीसी संवाददाता गीता पांडे की "कहां गए भारत के चिट्ठी लेखक?" एक बेहतरीन रिपोर्ट है जिसे आज भी पढ़ा जा सकता है। इस रिपोर्ट के अनुसार जगदीश चंद्र शर्मा भारत की राजधानी दिल्ली के अंतिम पेशेवर पत्र लेखक रहे हैं और उन्होंने भी पिछले दस साल से (वर्ष 2014 की रिपोर्ट के अनुसार मानें) एक भी पत्र नहीं लिखा है। उन्होंने कई सालों तक मजदूरों, रेडलाइट एरिया में रहने वाली सेक्स वर्करों, सब्जी और फल विक्रेताओं के लिए पत्र लिखे हैं। लोग उन्हें बताया करते थे कि वे क्या लिखवाना चाहते हैं। वे उनकी बात सुनते थे और संक्षेप में सुंदर शब्दों में लिखते थे। फिर वे उन्हें पढ़कर बताते जिससे लोग प्रभावित हो जाते थे। इस रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजों की हुकूमत के दौर में साक्षरता दर में कमी की वजह से डाक विभाग में भी पेशेवर पत्र लेखकों की नियुक्ति हुई थी। यह रोजगार का अहम जरिया रहा। जब मोबाइल की पहुँच हर हाथ तक होने लगी तो रोजगार का यह माध्यम धीरे-धीरे लुप्त होता चला गया। अब के हालातों से हम सभी वाकिफ़़ ही हैं।
जब कभी प्यार की मुलाकातों पर पाबंदियाँ हुईं, खतों ने ही इस बाधा को दूर किया। हिन्दी फिल्मों ने भी चिट्ठी- पत्री को खा़सी तवज़्जो़ दी। पत्रों पर अनेक लोकप्रिय गीत लिखे और कम्पोज किये गये हैं जिनके सामने आधुनिक तकनीकी शब्दावली वाले संदेशों से संबंधित गाने कहीं नहीं लगते। 1977 में रिलीज हुई फिल्म "पलकों की छाँव में" का गीत "डाकिया डाक लाया डाक लाया, खुशी का पयाम, कहीं दर्दनाक लाया", लोकप्रिय रहा। खाकी वर्दी पहने राजेश खन्ना सायकल पर सवार होकर गीत गाते लोगों के घर चिट्ठी देने पहुँचते हैं। इसके पूर्व 1968 की फिल्म "सरस्वती चंद्र" में इंदिवर का लिखा गीत, "फूल तुम्हें भेजा है खत में, फूल नहीं मेरा दिल है" खासा लोकप्रिय गीत रहा है। फिल्मों में चिट्ठियों पर अनेक गीत फिल्माये जाते रहे हैं। "शारदा" फिल्म का गीत, आपका खत मिला, आपका शुक्रिया, "शक्ति" फिल्म का गीत, "हमने सनम को खत लिखा, खत में लिखा", "कन्यादान" फिल्म में नीरज का लिखा गीत, "लिखे जो खत तुझे, वो तेरी याद में हजारों रंग के सितारे बन गये", शंकर-जयकिशन का गीत, "ये मेरा प्रेमपत्र पढ़कर कि तुम नाराज़ ना होना...," इन गीतों को आज भी सुनो तो दिल को छू जाते हैं। 1986 में प्रदर्शित "नाम" फिल्म का पंकज उधास का गीत "चिट्ठी आई है वतन से चिट्ठी आई है" और 1997 में "बॉर्डर" फिल्म का गीत "संदेशे आते हैं हमें तड़पाते हैं, वो चिट्ठी आती है वो पूछे जाती है कि घर कब आओगे", आज भी आँखें नम कर देते हैं।
जिनके पास भी पुराने खत हैं, उनका महत्व वे अच्छी तरह से जानते हैं, क्योंकि वे उनकी जि़न्दगी़ की सबसे कीमती धरोहर हैं। उन यादों की खुशबू आज भी महकती होगी उन खतों में, जब पहली बार वे हाथों में आए थे। एक ही खत बार-बार पढऩा और सहेजकर रखना, यह सुकून, संतोष आज के सूचना विस्फोट के युग में नहीं मिलता। आधुनिक माध्यमों के संदेशों को वर्षों तक सहेजकर भी नहीं रखा जा सकता। ये सिर्फ दो लोगों के बीच संवाद की विश्वसनीयता पर खरे भी नहीं उतरते, जैसा पत्र हुआ करते थे। हर शब्द के साथ प्यार का और ममता का अहसास, संवेदनाओं की सूक्ष्म अभिव्यक्ति आज के इलेक्ट्रॉनिक संदेशों में नहीं मिलती।
अनेक अध्ययनों में यह भी प्रमाणित किया गया है कि लिखने का संबंध स्वास्थ्य से भी है। लिखने के दौरान अनेक ज्ञानेंद्रियाँ कार्य करती हैं। मस्तिष्क की मासपेशियाँ, हाथ की ऊंगलियों के पोर, आँखें। एक प्राचीन युक्ति है कि जब भी मन विचलित या बेचैन हो या परेशानियों और समस्याओं से ग्रस्त हों तो उन बातों को पेपर पर लिख दें। इससे इम्यून सिस्टम मजबूत होता है और दिल के जख्म भी भरने लगते हैं।
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